सावरकर पर नए सिरे से बहस छिड़ गई है। उस प्रसंग में ऐतिहासिक तथ्य क्या थे यह तुरंत उजागर हो गया। यह जानने के लिए किसी नए शोध की ज़रूरत नहीं है कि गांधी के मशविरे पर सावरकर ने ब्रिटिश सरकार को माफीनामे नहीं लिखे थे। इसलिए उस प्रसंग को आगे खींचने की आवश्यकता नहीं।
लेकिन इस बहाने कुछ और बातों पर विचार करना हमारे लिए स्वास्थ्यकर होगा।
अगर हम पिछले 7 वर्षों की सार्वजनिक चर्चाओं को देखें तो मालूम होगा कि हम ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्तित्वों पर बहस में उलझे रहे हैं।
अकबर महान थे या राणा प्रताप, हल्दी घाटी का युद्ध किसने जीता था, पद्मिनी थी या नहीं, अलाउद्दीन खिलजी कितना जालिम था, औरंगजेब और दारा शिकोह में अगर दारा शिकोह बादशाह होता तो भारत का भविष्य कुछ और होता, आदि-आदि।
मध्य युग हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक ग्रंथि बन गया है और वहां जाकर हम अपनी श्रेष्ठता, वीरता, कायरता के लिए प्रमाण और तर्क खोज रहे हैं। कौन अत्याचारी था, कौन शिकार था, यह साबित करने के लिए प्रमाण और तर्क खोजे जा रहे हैं।
केंद्र में है मध्यकाल
हम अपने पूर्वज खोज रहे हैं, अपने शत्रु और मित्र वहीं तलाश कर रहे हैं। अपने आदर्श के स्रोत भी मध्यकाल में ही खोज रहे हैं। मध्यकाल पतन और उत्थान की गाथाओं की भूमि है। लगता है हम आज तक उसी भूमि पर वे लड़ाईयाँ लड़ रहे हैं और अपने-अपने पूर्वज चुनकर उनकी तरफ से हिसाब बराबर कर रहे हैं।
स्वाधीनता आंदोलन एक दूसरा चिरजीवी ऐतिहासिक संदर्भ बिंदु है। मध्यकाल तो फिर भी हमसे कुछ दूर है। स्वाधीनता आंदोलन जैसे हाथ बढ़ाकर छू लो, ऐसी दूरी पर है। मध्यकाल में कल्पना की उड़ान फिर भी भरी जा सकती है। स्वाधीनता आंदोलन में उसकी गुंजाइश कम है। अनेक प्रकार के दस्तावेज मौजूद हैं।
रक्षा मंत्री ने बोला झूठ?
एक कल्पना गढ़ो तो दस्तावेज अगले पल उसे ध्वस्त कर देते हैं। यही बेचारे राजनाथ सिंह के साथ हुआ। उन्होंने एक काल्पनिक सत्य प्रस्तुत किया और अगले ही क्षण सैकड़ों लोगों ने सावरकर के पत्र, उनकी तारीखें वगैरह सप्रमाण पेश करके रक्षा मंत्री के झूठ का पर्दाफाश कर दिया।
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षड्यंत्रवादी था सावरकर का तरीका
मंत्री यह कह सकते थे कि माफी माँगना सावरकर की रणनीति का हिस्सा था। सावरकर की काफी लानत मलामत उनकी क्षमा याचना के कारण की गई है। ऐसा करने वाले भूल जाते हैं कि सावरकर का तरीका षड्यंत्रवादी था। वह उस वीरता को मूर्खतापूर्ण मानता है जिसमें आप अपने किए की घोषणा करते हैं और उसकी जिम्मेवारी लेते हैं।
षड्यंत्र में मुख्य षड्यंत्रकारी कभी भी खुद को सामने नहीं रखता। इस बात को सावरकर के आलोचक नहीं समझते। प्रश्न मात्र हिंसक तरीकों के इस्तेमाल का नहीं। वह भगत सिंह का भी था। लेकिन वे अपने निर्णय और कार्रवाई की जिम्मेदारी लेते थे।
गांधी का तरीका और भी अलग था। वे अपनी हर कार्रवाई एलानिया करते थे। जिसके ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे हैं उसे औचक पकड़ना उनका तरीका न था। जिम्मेदारी लेना तो उनके सत्याग्रह का अनिवार्य अंग था ही।
फिर भी माफी माँगना इतना बड़ा विषय नहीं होना चाहिए। अगर सावरकर यातना बर्दाश्त न कर सके, अगर वे आगे अंग्रेज़ी हुकूमत की सज़ा भुगतने की ताकत नहीं रख सके तो उन्हें अपने लिए जीवन और उसकी सुविधा की याचना का अधिकार था।
यह दिलचस्प है कि सावरकर के अनुयायियों को इससे कोई आपत्ति नहीं। उनके हिसाब से यह चाणक्य नीति है, शिवाजी की नीति है या कृष्ण नीति है। वे यह भूलते हैं कि राम के चरित्र को भी बालि की हत्या दुर्बल करती है, कृष्ण और बलराम का संवाद और बड़े भाई की फटकार कृष्ण को उनकी अनीति के लिए याद कीजिए या युधिष्ठिर को उनके अर्ध सत्य के लिए नरक की यात्रा की सज़ा।
इसलिए सावरकर की अनीति की भर्त्सना से कोई फर्क नहीं पड़ता। जो समाज ‘साम दाम दंड भेद’ के सिद्धांत में विश्वास करता है उसे सावरकर के माफीनामे से कोई परेशानी नहीं होगी।
असल बात यह है कि जीवन के किन सिद्धांतों में हम विश्वास करते हैं।
...हम पीछे देखू लोग हैं
लेकिन फिर से यह क्षण इस पर विचार करने का अवसर है कि हमारी यह अतीतग्रस्तता हमारे बारे में क्या बतलाती है। क्या हम एक स्वस्थ समाज हैं? नामवर सिंह ने दो पद गढ़े थे: भारत व्याकुल और पीछे देखू। उनके मुताबिक़ हम भारत के लोग पीछे देखू लोग हैं। हमारे नेता पिछली सदी में निवास करते हैं।
चाहे वे गांधी हों या नेहरू या सावरकर या सुभाष या बाबा साहब आंबेडकर। हमारे विचार भी पिछली सदी के पूर्वार्द्ध के हैं। हर बात में हम या तो गांधी का हवाला देते हैं या किसी और का। वे ही हमारे संदर्भ बने हुए हैं।
रास्ता आगे को जाता है लेकिन हमारी निगाहें पीछे को मुड़ी हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि इतिहास आधुनिक मनुष्य की चेतना के लिए अनिवार्य है। एक तरह से हम अपनी अस्मिता इतिहास के सहारे गढ़ते हैं। फिर भी यह तो हमें सोचना ही पड़ेगा कि आज़ादी के बाद से आज तक हमने खुद अपने सामूहिक जीवन के बारे में कौन से सिद्धांत स्थिर किए हैं।
इन 70 वर्षों में आज़ाद भारत में भी वैचारिक संदर्भ बिंदु 1947 के हैं। मानो उस वक्त के द्वंद्व का समाधान करने का ही दायित्व हमारा है।
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अलग-अलग विचार
इतिहास ने जो चुनौती हमारे सामने पेश की उसका उत्तर अपने वर्तमान में हमने कैसे दिया? अगर हमारे पूर्वजों के निर्णयों या अनिर्णय के कारण दो राष्ट्रों का जन्म हुआ तो प्रश्न यह था कि उन राष्ट्रों का सहकारी जीवन सिद्धांत क्या होगा। पाकिस्तान ने एक विचार चुना। भारत ने दूसरा। भारत की राह कठिन थी लेकिन वह आकर्षक यात्रा थी।
इस यात्रा के प्रस्थान बिंदु को हम न भूलें लेकिन हमारी यात्रा का पाथेय क्या होगा, यह तो हमें तय करना होगा। राष्ट्र में साथ रहने का कौन सा सिद्धांत हम तय करते हैं, यह महत्वपूर्ण है। सावरकर ने अपने जीवन का निर्णय लिया और बाकी लोगों ने भी।
हमसे हमारे बाद की पीढ़ी पूछेगी कि हमारे क्या सिद्धांत थे तो क्या हम गांधी, नेहरू, आंबेडकर, तिलक, रविंद्रनाथ, सावरकर का ही नाम जाप करते रहेंगे?
स्वभाव से पैदा हुई चुनौतियाँ
हमारी चुनौतियाँ हमारे समय के स्वभाव से पैदा हुई हैं। पूँजीवाद का एक नया स्वरूप, जनतंत्र को तोड़-मरोड़ कर लोकलुभावनवाद के रास्ते बहुसंख्यकवाद का खतरा, बाहरी लोगों का हौवा खड़ा करके स्थानीयता का संगठन, उसकी संकीर्णता और क्षुद्रता।
लेकिन उसी समय जर्मनी का विनम्र साहस। आप्रवासियों के लिए दरवाज़ा खोल देना। ब्रिटेन में दक्षिणपंथी ही सही लेकिन भारतीय और पाकिस्तानी मूल के राजनेताओं को सरकार की निर्णायक जगहें देना।
अमेरिका की सारी न्यूनता के बावजूद काले, एशियायी, हिस्पानिक, आदिवासी लोगों को महत्वपूर्ण राजनीतिक जगह देना। कनाडा की राजनीति में भारतीय मूल के लोगों की निर्णायक उपस्थिति!
यह राजनीति है। इससे अलग सारी कमियों के बावजूद अमेरिकी विश्वविद्यालयों में सारी दुनिया के बौद्धिकों के लिए जगह है, ब्रिटेन में भी, यूरोप के दूसरे देशों में भी। इससे उन देशों की बौद्धिक क्षमता में निश्चय ही समृद्धि आती है और उन देशों को इसका लाभ मिलता है।
राजनीति हो, संस्कृति हो, भारत में संकीर्णता बढ़ती जा रही है। स्वागत का, मेजबानी का भाव कहीं नहीं। हम नए-नए बाहरियों की खोज कर रहे हैं और उन्हें खुद से दूर कर रहे हैं।
जिनके साथ रहने का अभ्यास हमें था अब हम उनसे अलग होने के बहाने खोज रहे हैं जबकि हमारे सामने सहकारी जीवन के नए प्रयोग हैं। हम वसुधैव कुटुम्बकम का जाप तो करते हैं लेकिन अपने आपको सिकोड़ते जा रहे हैं।
भारत भी पहुँच से दूर
इसका नतीजा क्या हो रहा है? हम अपने अतीत का पाठ करने लायक भी नहीं रह गए हैं। प्राचीन पोथियों, ग्रन्थों का पाठ हो या व्याख्या, उसके विशेषज्ञ भी भारत के बाहर हैं क्योंकि भारत में अतीत का ज्ञान नहीं अतीत का कीर्तन ही स्वीकार्य है। तो भारत भी हमारी पहुँच से दूर हो रहा है।
पश्चिम में एक ही विदुषी उर्दू, फारसी, संस्कृत जानती है। हम एकभाषी बनते जा रहे हैं और भाषाई राष्ट्रवाद ने हमारे कान भी बंद कर दिए हैं और ज़बान भी पकड़ ली है।
किस तरह याद किया जाएगा?
हमारे पूर्वजों ने भारतीयता को एक निरंतर चलने वाला प्रयोग माना था। एक खुला, साहस भरा प्रयोग। अब हम किसी प्रयोग से घबराने लगे हैं। विचारों के क्षेत्र में भी हमारा योगदान शून्य प्राय है। हमारा पूरा समय इतिहास में गुजर रहा है और वह भी ईमानदारी से नहीं। तो हमें किस प्रकार की पीढ़ी के तौर पर याद किया जाएगा?
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