इतवार 5 जनवरी की रात स्तम्भ लिखने की नहीं, स्तंभों को ढहते हुए देखने की रात थी। ये स्तम्भ सिर्फ़ भारतीय जनतंत्र के नहीं थे, ये भारतीय संस्कृति या सभ्यता, जिसका अहंकार हमें है, उनके स्तम्भ थे। इतवार की शाम से ही घंटों तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में गुंडों ने तांडव किया। तेज़ाब, लाठी, लोहे की रॉड के साथ आराम से हर होस्टल में घुस कर निहत्थे छात्रों पर हमला। अध्यापकों पर हमला। यह विश्वविद्यालय प्रशासन, पुलिस, केन्द्रीय सरकार की शह के बिना न हो सकता था। इस खुली गुंडागर्दी को, गुंडों के खुले हमले को मीडिया दो गुटों में झड़प बताता रहा, उसके बेशरम और बेरहम झूठ के बिना भी यह गुंडागर्दी नहीं हो सकती थी।
जेएनयू में जनतंत्र, संस्कृति-सभ्यता के स्तंभ ढहते हुए दीखे
- वक़्त-बेवक़्त
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- 6 Jan, 2020

तेज़ाब, लाठी, लोहे की रॉड के साथ आराम से जेएनयू के हर होस्टल में घुस कर निहत्थे छात्रों और अध्यापकों पर हमला किया गया। तीन घंटे तक। क्या विश्वविद्यालय प्रशासन, पुलिस, केन्द्रीय सरकार की शह के बिना यह संभव है? जो भी हो, इसके बाद शहर जेएनयू के साथ खड़ा हो गया। यह कहना होगा कि समाज के लोग हैं जिन्होंने कहा कि बावजूद सारी कोशिश और साज़िश के समाज का अंतःकरण अभी मरा नहीं है।
यह गुंडागर्दी थी और इसे गुंडागर्दी ही कहा जाना चाहिए। कल जेएनयू को ध्वस्त करने का जो काण्ड किया गया, उसके वर्णन के लिए कोई सभ्य और मुलायम शब्द खोजने की ज़रूरत नहीं। गाँधी ने 1947 में दिल्ली की सड़कों पर जो मुसलमानों पर हमले हो रहे थे, उन्हें हिंदू-मुसलमान के बीच हिंसा नहीं कहा था। उन्होंने उसे सीधे-सीधे गुंडागर्दी कहा था। यह भी कहा था कि सड़क पर यह जो खुली गुंडागर्दी दीख रही है, वह हम जैसे लोगों के, जो सड़क पर ख़ुद ख़ून नहीं बहा रहे, मन में बैठी सूक्ष्म गुंडागर्दी के बिना मुमकिन नहीं था।