इतवार 5 जनवरी की रात स्तम्भ लिखने की नहीं, स्तंभों को ढहते हुए देखने की रात थी। ये स्तम्भ सिर्फ़ भारतीय जनतंत्र के नहीं थे, ये भारतीय संस्कृति या सभ्यता, जिसका अहंकार हमें है, उनके स्तम्भ थे। इतवार की शाम से ही घंटों तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में गुंडों ने तांडव किया। तेज़ाब, लाठी, लोहे की रॉड के साथ आराम से हर होस्टल में घुस कर निहत्थे छात्रों पर हमला। अध्यापकों पर हमला। यह विश्वविद्यालय प्रशासन, पुलिस, केन्द्रीय सरकार की शह के बिना न हो सकता था। इस खुली गुंडागर्दी को, गुंडों के खुले हमले को मीडिया दो गुटों में झड़प बताता रहा, उसके बेशरम और बेरहम झूठ के बिना भी यह गुंडागर्दी नहीं हो सकती थी।