जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों पर हुए हमले से पैदा हुई राष्ट्रीय उत्तेजना और विक्षोभ ने कुछ समय के लिए नागरिकता संबंधी क़ानून और नागरिकता के लिए पंजीकरण के ख़िलाफ़ चल रहे राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध की ओर से ध्यान हटा दिया है। याद रखना ज़रूरी है कि यह प्रतिरोध अभी चल रहा है। कोलकाता जैसा बड़ा शहर हो या मालेगाँव या गया या कोच्चि, लोग अलग-अलग ढंग से इस प्रतिरोध को जारी रखे हुए हैं। जेएनयू पर हुए हुए हमले ने दिलचस्प एकजुटता भी पैदा की है। जामा मसजिद की सीढ़ियों पर जेएनयू के लिए आवाज़ उठाने हज़ारों स्त्रियाँ जमा हुईं। शाहीन बाग़ में भी यह एकजुटता व्यक्त हुई।
नागरिकता क़ानून-एनआरसी पर प्रदर्शन में कौन ढूंढ रहा है हिंदू-मुसलमान?
- वक़्त-बेवक़्त
- |
- |
- 12 Jan, 2020

नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन को हिंदू-मुसलमान के नज़रिए से क्यों देखा जा रहा है? यह सलाह दी जा रही है कि प्रतिरोध का रूप धर्मनिरपेक्ष दीखना चाहिए। तिरंगे, जन गण मन और संविधान के साथ भारत भर में सड़कों पर उठी इस लहर की आत्मा तो धर्मनिरपेक्ष है ही, लेकिन इसे नाकाफ़ी कहा जा रहा है। फिर क्या किया जाए? मुसलमान मुसलमान दीखना कैसे बंद कर दें?
यह ठीक है कि इस देश व्यापी उभार में उत्साह है। हज़ारों और कुछ जगह लाख-लाख की तादाद में उमड़ी जनता की छवियाँ उम्मीद जगाती हैं। इसके बाद एक बड़ा लेकिन है। क्या इस विक्षोभ को जन आंदोलन कहा जा सकता है?
जो सड़क पर हैं, वे भारत के जन ही हैं। फिर भी देखा जा सकता है कि इसमें भारत के एक तबक़े को शामिल होने में अभी भी संकोच है। जो इस जन उभार से कटा-कटा है, वह हिंदू समाज है। बंगाल और केरल को अपवाद माना जाना चाहिए। असम तो सबसे अलग है। वहाँ के आंदोलन को बाहरी विरोधी बताया जा रहा है लेकिन यह सच है कि बंगाली मुसलमान जो असमिया भाषी भी हैं, अपनी जगह के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। क्या बंगाली हिंदू को इस नये क़ानून से उसकी तरह की असुरक्षा है?