क्या लिखूँ? लिखने की आदत जिन्हें हो, उनके सामने भी यह सवाल एक पहाड़ की तरह आकर खड़ा हो जाता है। कलम रुकी रहती है या की-बोर्ड के ऊपर ख़ाली जगह चुनौती देती रहती है। क्या विषय की कमी है? मुक्तिबोध ने लेखक की इस समस्या पर विचार करते हुए लिखा है - समस्या दरअसल विषयों की कमी नहीं, उनका अधिक होना है। उससे बड़ी समस्या उनमें से विषय के चुनाव की है।
भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों पर संकीर्ण होने का आरोप क्यों?
- वक़्त-बेवक़्त
- |
- |
- 30 Dec, 2019

सामाजिक संवेदनातंत्र के खंडित होने की बात जब कही जाती है तो ऐसा कहने वालों पर संकीर्णदृष्टि होने का आरोप लगाया जाता है। यह कहा जाता है कि वे सार्वभौम अनुभव की संभावना पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। यह उसी तरह है जैसे दलितों ने जाति व्यवस्था को हिंसक कहा तो समाज के बड़े तबक़े ने इसे खुद पर इल्ज़ाम माना या पंडिता रमाबाई ने जब भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा पर अमेरिका में चर्चा की तो विवेकानंद ने इसका बुरा माना।
क्या विषय के चुनाव के साथ ही समस्या का हल मिल जाता है? विषय के चुनाव के बाद भी लेखक का आत्मविश्वास लिखने से पहले क्यों डगमगाता है? इस वजह से कि वह विषय के साथ न्याय नहीं कर सकता? या, उसे इसका विश्वास नहीं होता कि वह जो लिखेगा, उसे उसी तरह पढ़ा जाएगा जैसा वह चाहता है? यानी, लेखक को कई बार सहानुभूतिशील पाठक की कमी सताती है। वह लिखने से पहले ही हताश हो उठता है कि उसके दर्द, उसकी चिंता को समझने और साझा करने वाले शायद कहीं नहीं हैं।