भारत की सड़कों पर ख़ून है। यह उसकी औलादों का ख़ून है। ज़्यादातर उनका जिन्हें पिछले बरसों में बाबर की औलाद कहकर बेइज़्ज़त करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा गया है। बाबर की आख़िरी औलादों में से एक बहादुरशाह ज़फ़र के हिंदुस्तान में रहने से इतना ख़ौफ़ था अंग्रेज़ों को कि उन्हें जलावतन करके रंगून में आख़िरी वक़्त बिताने को मजबूर किया गया। कभी भारत की आज़ादी की पहली जंग के सिपाहियों ने बाबर की औलाद को अपना सरपरस्त बनाया था। आज इस आज़ादी का फल खा रहे वे लोग, जिनके वैचारिक पुरखों ने कभी इस आग में हाथ नहीं जलाए, बाबर की औलादों को गाली देते घूम रहे हैं।
सड़क पर ख़ून है। मैंने कहा यह हिंद के बच्चों का ख़ून है। यह ख़ून अपना हिसाब माँगेगा और वह सरकार को करना ही पड़ेगा। जो यह नारा लगाकर सरकार में पहुँचे थे, हालाँकि उस वक़्त भी वे झूठ बोल रहे थे कि वे सबका साथ लेकर सबका विकास करेंगे, आज उनके नुमाइंदे कह रहे हैं कि जो लोग सड़क पर हैं, वे एक वर्ग विशेष के लोग हैं। इसलिए उन्हें बहुत परेशान होने की ज़रूरत नहीं क्योंकि यह वर्ग विशेष कभी उनके साथ नहीं रहा है।
इसी वर्ग विशेष को अलग-अलग नामों से पुकारा गया है। कभी पाकिस्तानी, कभी बांग्लादेशी, कभी रोहिंग्या, कभी घुसपैठिया, कभी दीमक। ये सब कूट शब्द हैं जिनका तर्जुमा एक ही है: मुसलमान। सरकारी दल यह अनुमान कर रहा है कि जितना यह वर्ग विशेष सड़क पर होगा उतना ही इसके ख़िलाफ़ दूसरा वर्ग, यानी हिंदू ध्रुवीकरण होगा। इसलिए सड़क पर ख़ून से शायद उन्हें ख़ुशी है।
जो यह शैतानी ख़ुशी का ज़हर हिंदुओं की नसों में डालना चाहते हैं, उन्हें हम जानते हैं। लेकिन ख़ुद हम सबका इस वक़्त क्या फ़र्ज़ है? क्या उन्हें जो मुसलमान नहीं हैं, किनारे खड़े होकर तमाशा देखना चाहिए या पुलिस जो ज़ुल्म कर रही है, उस पर ताली बजानी चाहिए? या, ख़ुद पुलिस के साथ मिलकर विरोध ज़ाहिर कर रही जनता पर हमला बोल देना चाहिए?
मुज़फ़्फ़रनगर में यही किया गया है। मुसलमानों की बस्ती पर, उनके घरों, दुकानों पर हमला किया गया है और उनकी गाड़ियों और बाक़ी सम्पत्ति को बर्बाद किया गया है। उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक ज़ुल्म हुआ है। कितनी जानें गई हैं, यह ठीक-ठीक बताने को सरकार तैयार नहीं। 20, 22? हम सिर्फ़ अन्दाज़ कर सकते हैं क्योंकि अफ़वाह ख़ुद सरकार और उसके दल के लोग फैला रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने आंदोलनकारियों से बदला लेने की धमकी दी है। यह कि उनके घरों और सम्पत्ति की कुर्की ज़ब्ती की जाएगी। एक ख़बर के मुताबिक़ यह शुरू हो चुका है।
आंदोलन फिर भी जारी है। जो औरतें कभी चौखट से बाहर नहीं आई थीं, वे इस कड़ाके की ठंड में रात बाहर गुज़ार रही हैं।
पुलिस ने एक बार फिर यह बता दिया है कि वह मनोवैज्ञानिक तौर पर बीमार है। उसके भीतर के मुसलमान विरोध और मुसलमानों को लेकर नफ़रत का मवाद बाहर निकल आया है।
लखनऊ में हिंदू अख़बार के संवाददाता ओमर राशिद को वहाँ की पुलिस के हाथों जो झेलना पड़ा है, सिर्फ़ उसका ब्योरा इस नफ़रत की तीव्रता बताने के लिए काफ़ी है।
हिंदी मीडिया एक आंदोलन को उपद्रव और हिंसा बताने पर तुला हुआ है। नमाज़ियों के जमावड़े पर कैमरा फ़ोकस करके बार-बार यह कहना कि ‘डर से दिल धड़कता है’, आख़िर किस मंशा का इज़हार है?
कैसे होती है हिंसा?
अरसे से मुसलमान के ख़िलाफ़ नफ़रत के प्रचार में यह कहा जाता रहा है कि अगर वह समूह में हो तो हिंसक ही होगा। यही बात गुड़गाँव में बाहर नमाज़ पढ़नेवालों पर हमला करते वक़्त कही गई थी। आज भी मीडिया इसी पूर्वग्रह का प्रचार कर रहा है।
हिंसा हुई है। लेकिन वह कैसे होती है? अगर आप किसी को उसके ग़म और ग़ुस्से को ज़ाहिर करने का शांतिपूर्ण रास्ता रोक देते हैं, उसे यह अहसास दिलाते हैं कि सड़क उसकी नहीं है, उसके साथ मालिकों सा बर्ताव करते हैं तो वह ख़ुद को कैसे व्यक्त करे? एक तरह की हिंसा वह है जो अपनी लाचारी व्यक्त करती है। वह उचित नहीं है लेकिन उसे समझना चाहिए। प्रत्येक हिंसा तुलनीय नहीं।
मुसलमान को सड़क पर आने से रोकना ही चाहिए, यह समझ भारत के राजकीय दिमाग़ में है। गोरखपुर, दिल्ली गेट का उदाहरण दिया जा रहा है।
मुसलमान मुंबई में भी निकले, कोलकाता में भी और हैदराबाद में भी। वहाँ हिंसा क्यों नहीं हुई? क्यों भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में हुई? जामिया और अलीगढ़ के छात्र तो शांतिपूर्ण विरोध ही कर रहे थे, पुस्तकालय, छात्रावास में घुसकर उनपर हमले की वजह?
सरकार नागरिकता के क़ानून का विरोध करनेवालों से दुश्मन की तरह पेश आ रही है। पुलिस ने अपनी आत्मा सरकार के पास गिरवी रख दी है। राजनीतिक दल अब तक निर्णायक रूप से मैदान में नहीं उतरे हैं। राष्ट्रीय जनता दल ने बिहार बंद किया और समाजवादी पार्टी ने भी विरोध ज़ाहिर किया है। पहली बार अपनी हिचकिचाहट छोड़कर कांग्रेस पार्टी कल राजघाट पर इस सवाल पर विरोध ज़ाहिर कर रही है।
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