"आदमी की दर्दभरी गहरी पुकार सुन,
समाज से सहानुभूति समाप्त कर दो, जनसंहार की बाधा ख़त्म हो जायेगी!
- वक़्त-बेवक़्त
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- 25 Apr, 2022

क्या सावित्रीबाई फुले फातिमा शेख की सहानुभूति के बिना अपना दुष्कर कार्य आरंभ भी कर पातीं? वैसे ही क्या हम दीनबंधु ऐन्ड्रूज की या ग्राहम पोलक अथवा मिली पोलक या मीरा बेन की सहानुभूति के बिना महात्मा गाँधी या भारत की स्वाधीनता की कल्पना कर सकते हैं?
जो दौड़ पड़ता है आदमी है वह भी,
जैसे तुम भी आदमी, वैसे मैं भी आदमी।"
गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन मानी जानेवाली कविता ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की ये पंक्तियाँ कितनी सहज और बोधगम्य हैं। लेकिन मेरा ध्यान हमेशा अटक जाता है इन पंक्तियों में प्रयुक्त ‘भी’ पर। जो किसी की दर्दभरी पुकार सुन दौड़ पड़ता है, वह भी आदमी ही है। क्या यह कहना चाहती हैं ये पंक्तियाँ? या यह कि इसके बाद भी या ऐसा करने के बावजूद वह आदमी बना रहता है? अंतिम पंक्ति एक दूसरे में आदमीयत पहचान लेने की बात करती है।
सहानुभूति मुक्तिबोध के लिए कीमती है। ‘अँधेरे में’ कविता की ये पंक्तियाँ:
“समस्वर, समताल
सहानुभूति की सनसनी कोमल!!
हम कहाँ नहीं हैं,
सभी जगह मन!
निजता हमारी।“
मार्क्सवादी मुक्तिबोध के लिए सहानुभूति इतना बड़ा मूल्य क्यों है? कई बार ‘वर्ग चेतना’ से भी अधिक महत्त्व वे सहानुभूति को देते दिखलाई पड़ते हैं। क्या यह कहा जा सकता है कि वर्ग चेतना को अंतिम और सहानुभूति को कमतर करके आँकने के कारण ही क्रांतियाँ असफल हुईं? क्योंकि उन्होंने शत्रु वर्ग के किसी भी व्यक्ति में सहानुभूति की संभावना से इनकार कर दिया।