हमारे कई सहकर्मी अध्यापकों और शोधार्थियों ने मिलकर ‘एकेडेमिक्स फॉर नमो’ नामक मंच बनाया है। नमो ‘नमो नमः’ वाला नमो नहीं है। वह नरेंद्र मोदी के आरंभिक अक्षरों को मिलकर बनाया गया है। यह संक्षेपीकरण नेता के नाम को कर्णप्रिय बनाने के लिए उन्हीं की टीम के द्वारा गढ़ा गया था। हमने अनेक अवसरों पर नरेंद्र मोदी के सार्वजनिक अवतरण पर ‘नमो, नमो’ के नारे सुने हैं। मोदी, मोदी की तरह ही नामो को लोकप्रिय बनाने में मीडिया की भी ख़ासी भूमिका है। शायद जगह बचाने के लिए या स्मार्ट दीखने के लिए नरेंद्र मोदी लिखने की जगह वह नामो लिखता है। रोमन लिपि में यह NAMO लिखा जाता है। हम हिंदी में इसे कैसे बोलें: नामो या नमो?
यानी यह भी इन बुद्धिजीवियों की अपनी ईजाद नहीं है। मंच के नाम को लिखा जाता है इस तरह; Academics4NaMo।
फॉर की जगह 4 लिखकर नए ज़माने का होने का दावा पेश किया जा रहा है। यह विज्ञापन के, एस एम एस के ज़माने का प्रयोग है। हम अध्यापक अपने छात्रों को पूरे शब्द और वाक्य लिखने के लिए कहते रहते हैं। यहाँ अध्यापक ही उस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं जो सोशल मीडिया उन्हें सिखला रहा है।
मंच का नाम अंग्रेज़ी में है। ‘राष्ट्रभाषा’ हिंदी में अंग्रेज़ीवाली चुस्ती नहीं है। ‘एकेडेमिक्स फॉर नामो’ को हिंदी में लिखने में वह काफ़ी लद्धड़ हो जाता। अंग्रेज़ी के लिए यह ललक इस मंच में उसके नेता जैसी ही है। अगर मोदी के भाषणों को देखें तो योजनाओं से लेकर वादों तक में विज्ञापनवाली अंग्रेज़ी का भरपूर इस्तेमाल है। जैसे 'स्किल, स्पीड, स्केल’, या ‘रिफार्म, परफ़ॉर्म, ट्रांसफॉर्म’ या 'स्किल इंडिया’ या ‘मिलेट मेला’। ऐसे उदाहरण बीसियों हैं।अंग्रेज़ी का यह इस्तेमाल निश्चय ही उपनिवेशवादी मानसिकता को राष्ट्रवादी जवाब है।
बहरहाल! इन मंच का मक़सद 2024 के चुनाव के पहले सकारात्मक माहौल बनाना है और नरेंद्र मोदी सरकार की उपलब्धियों का प्रचार करना है। इस मंच की ज़रूरत इसलिए आ पड़ी है कि एक तरफ़ वंशवाद वाला विपक्ष है जो भ्रष्ट है और तुष्टीकरण की राजनीति करता है और जो लगातार सर्वनाश आदि का प्रलाप करके जनता को भ्रमित कर रहा रहा है, नकारात्मकता फैला रहा है। ऐसी हालत में यह आवश्यक हो जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकसित भारत के विचार को जनता के बीच ले ज़ाया जाए।
लोग पूछ सकते हैं कि जिस सरकार के पास प्रचार के सारे साधन हैं और जिसका प्रचार सारा बड़ा मीडिया स्वेच्छा से कर रहा है, उसे क्या इस तरह के मंच की ज़रूरत भी है?
जो हो, जब राम समुद्र पर पुल बांध रहे थे तो गिलहरी भी अपनी औक़ात भर बालू तो डाल ही रही थी। इसलिए महान कार्य में योगदान करना ही चाहिए। शक्ति कितनी है, यह दीगर बात है।
आलोचक एक दूसरी निगाह से इसे देखेंगे।आम तौर पर दुनिया भर में बुद्धिजीवी सत्ता के क़रीब होने पर संकोच करते हैं। वे सत्ता के आलोचक के रूप में ही पहचाना जाना पसंद करते हैं। इतिहासकार रोमिला थापर ने तो पद्म पुरस्कार तक लेने से इनकार कर दिया था। उनका कहना था कि वे अपने हमपेशा लोगों से स्वीकृति चाहती हैं, राज्य या सत्ता से नहीं। लेकिन रोमिला तो आज के ज़माने में किसी दूसरे ग्रह की प्राणी जान पड़ती हैं।
इन सारी बातों से अलग एक बात के लिए इन मंच की प्रशंसा करनी चाहिए। वह यह कि इसके मुताबिक़ चुनाव जैसे महत्त्वपूर्ण अवसर पर अध्यापकों को जनता से बात करनी चाहिए। यानी अध्यापक या बुद्धिजीवियों को अपनी राजनीतिक भूमिका निभानी चाहिए। बल्कि यह उनका कर्तव्य है। यह चुनाव जैसे मौक़े तक ही सीमित हो, ज़रूरी नहीं।
इस मंच की यह बात मोदी सरकार के रवैये के ख़िलाफ़ है। इस सरकार के मंत्रियों ने और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने बार बार शिक्षकों और छात्रों की राजनीतिक सक्रियता की निंदा की है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय या दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापकों और छात्रों पर इसलिए हमला किया गया है कि वे अपनी सीमा का अतिक्रमण करके राजनीति कर रहे हैं। उनको मशविरा दिया जाता है कि वे राजनीति छोड़कर सिर्फ़ कक्षा और पाठ्यक्रम तक ख़ुद को सीमित रखें।
लेकिन अब 500 से ज़्यादा अध्यापक या शोधकर्ता ख़ुद भाजपा की राजनीति के प्रचार में उतर आए हैं। इससे अध्यापकों के राजनीति में भाग लेने का सिद्धांत स्थापित होता है।
मुझे याद है कि 2002 में गुजरात में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा के बाद लेखकों या बुद्धिजीवियों के आंदोलन में भाग लेने के कारण अशोक वाजपेयी को तत्कालीन सरकार ने कारण बताओ नोटिस भेजा था। वे तब महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति थे। हमने सरकार को जवाब दिया था कि कुलपति अकादमिक व्यक्ति है, सरकारी नौकर नहीं। वह अकादमिक नेता है। इसलिए उसे अपना मत व्यक्त करने का अधिकार है। हमने सरकार को याद दिलाया था कि जिस शिक्षा मंत्रालय से यह पत्र आया था, उसके मंत्री ख़ुद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापक रहते हुए राजनीति कर रहे थे।
इस मंच की सक्रियता से एक और बात यह होगी कि कॉलेज और विश्वविद्यालय के अध्यापकों के लिए सरकार जो सेवा की शर्त लागू करना चाहती है, वह अपने आप निरस्त हो जाएगी। सेवा की इस शर्त के मुताबिक़ किसी अध्यापक को अकादमिक पर्चा लिखने के अलावा कुछ भी और बोलने या लिखने के पहले प्रशासन से अनुमति लेनी होगी। इस मंच में ऐसे संस्थानों के अध्यापक या कर्मचारी होंगे ही, जिन्होंने यह सेवा शर्त लागू कर दी है। हमें इसकी जानकारी है कि कई संस्थानों में ऐसे अध्यापकों से प्रशासन ने पूछताछ की है, उनकी तंबीह की है क्योंकि उन्होंने कोई राजनीतिक वक्तव्य दिया है या कोई लेख लिखा है। कुछ को दंडित भी किया गया है। पूछा जाना चाहिए कि क्या इस मंच के सदस्यों ने मंच बनाने और इस तरह के राजनीतिक बयान देने के पहले अनुमति ले ली है?
यह मंच इसके जवाब में यह कह सकता है कि वह राजनीति नहीं कर रहा, राष्ट्रनीति कर रहा है। राजनीति विभाजनकारी होती है, राष्ट्रनीति लोगों को जोड़ती है। राजनीति नकारात्मक होती है, राष्ट्रनीति सकारात्मक। इनके संस्थान यह कह सकते हैं कि राजनीति होती है सरकार की आलोचना, उसके समर्थन को राजनीति नहीं राष्ट्रनिर्माण कहा जाना चाहिए।
सरकार या नरेंद्र मोदी को इस मंच की ज़रूरत नहीं है। यह इस कारण बनाया गया है कि ये अध्यापक इसे अपना कर्तव्य मानते हैं कि जनता को वे बतलाएँ कि उसका हित किस प्रकार की सरकार या किस प्रकार के नेता के पक्ष में मतदान करने या उसे चुनने से सुरक्षित होगा। यह उनकी बौद्धिक आवश्यकता है। इसके हिसाब से वे नेता मोदी हैं। आप ध्यान दीजिए यह मंच किसी विचारधारा, किसी राजनीतिक दल के पक्ष में नहीं बोल रहा। वह एक व्यक्ति को ही समर्पित है। नामो के लिए अकादमिक जन। सिर्फ़ उसी के लिए।
इसके पीछे किसी सांसारिक लाभ की कामना हो, यह क़तई ज़रूरी नहीं। ज़रूरी नहीं कि इस मंच में सक्रिय होने का कारण कुलपति, निदेशक आदि पद का लोभ हो। हमारे सहकर्मी नितांत निस्पृह भाव से जनजागरण का काम कर रहे हैं: जनता को मोदी के पक्ष में गोलबंद कर रहे हैं। वैसे ही जैसे मोदी निःस्वार्थ भाव से देश की सेवा कर रहे हैं।
हमें भी इस मंच का स्वागत करना चाहिए। जो अध्यापक ऐसा मानते हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार या भाजपा के शासन से भारत दुर्दशा हो रही है, उन्हें इस मंच के निर्माण से प्रेरणा लेनी चाहिए और संगठित होकर अपने तर्क लोगों तक, कम से कम अपने विद्यार्थियों तक ले जाने चाहिए कि वे ऐसा क्यों मानते हैं और उनके हिसाब से देश या राष्ट्रहित किस प्रकार की सरकार, किस प्रकार के नेता के चुनाव से सधेगा। उनके अनुसार किस राजनीति को राष्ट्रनीति होना चाहिए। जनता दोनों तर्कों की तुलना कर सकेगी और अपना फ़ैसला करेगी। अगर इस मंच के आलोचक ऐसा नहीं करते तो अध्यापक के अपने कर्तव्य से वे चूकते हैं।
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