भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी संगठन जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हैं, ज्ञान और शिक्षा के मित्र तो क़तई नहीं हैं और इसलिए वह अध्यापकों और विद्यार्थियों के लिए भी ख़तरा हैं। यह पहले भी मालूम था लेकिन ये पिछले 10 सालों में तो बार बार साबित हुआ है। इसके बावजूद 11 फ़रवरी को कर्नाटक के मंगलोर के सेंट गेरोसा हायर प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका सिस्टर प्रभा के निलंबन के बाद फिर से यह कहा जाना ज़रूरी है। सिस्टर प्रभा को भारतीय जनता पार्टी के विधायक वेदव्यास कामथ के दबाव के कारण स्कूल ने निलंबित कर दिया है। भाजपा ने सिस्टर प्रभा पर हिंदू धर्म के अपमान का आरोप लगाया था। साथ ही यह इल्ज़ाम भी लगाया कि वे प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ बोल रही थीं।
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के मुताबिक़ सिस्टर प्रभा रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता ‘वर्क इज़ वरशिप पढ़ा रही थीं। इस कविता को पढ़ाते हुए उन्होंने बतलाया कि कवि के अनुसार ईश्वर मंदिर, मस्जिद, चर्च जैसी इमारतों में नहीं है और न माला फेरने से उसे पाया जा सकता है। सिस्टर प्रभा ने कहा कि ईश्वर इन इमारतों में नहीं बल्कि हमारे हृदय में निवास करता है। हमारे शरीर या मन ही मंदिर या उपासना स्थल हैं। इसलिए हमें मनुष्य को नहीं मारना चाहिए।
इस कविता और उसकी इस व्याख्या से किस प्रकार हिंदू धर्म का अपमान होता है, यह समझ के बाहर है। लेकिन आरोप एक ताकतवर राजनीतिक दल का ताकतवर व्यक्ति, जो विधायक भी है, लगा रहा है। इसलिए उस दबाव को झेलना स्कूल के लिए आसान नहीं। आसान था अध्यापिका को निलंबित करना। वह कर दिया गया।
आरोप और सारा प्रकरण इतना हास्यास्पद है कि इसपर रवि ठाकुर एक और कविता या प्रहसन लिख डालते। लेकिन सच पूछें तो यह सब कुछ हास्यजनक नहीं, भय पैदा करनेवाला है। हम चाहें तो इस कविता की व्याख्या करते हुए भाजपा से पूछ सकते हैं कि वह कबीर को भी पढ़ाने देगी या नहीं जिनके ईश्वर या ख़ुदा का कहना है कि वह न तो काबे में है, न कैलास में, न मंदिर में है, न मस्जिद में। उसे खोजते हुए इतना हैरान क्यों होना, वह तो पास ही है!
अयोध्या में राम मंदिर को लेकर हिंदू समाज में उत्साह का जो ज्वार उठा है उसपर स्वामीजी क्या कहते, क्या किसी इतिहास, साहित्य, राजनीति शास्त्र की कक्षा में यह पूछना मुमकिन है?
अभी फिर से कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘ज़िन्दगीनामा’ पढ़ रहा था। उसके उस प्रसंग को याद कीजिए जिसमें एक ‘दयानंदी’ के आने पर गाँव में शोर मच जाता है और सब उसका प्रवचन सुनते हैं। गाँववाले उसका मज़ाक़ बनाते हैं। फिर भी वह डटा रहता है और सबको साथ गाने को बोलता है:
“बुत-शिकन भारत में कोई भी नहीं माजूद क्या!
मैं बनूँगा बुत शिकन पुरज़े उड़ा दूँगा तेरे
मेरी ताक़त देखना टुकड़े उड़ा दूँगा तेरे।”
क्या रवि ठाकुर जैसी कविताओं को या कृष्णा सोबती को पढ़ना और पढ़ाना अब संभव है? या अब सारी कक्षाओं में ‘झंडा ऊँचा रहे हमारा’ जैसी कविताएँ ही पढ़ाई जाएँ?
कर्नाटक में अभी कांग्रेस पार्टी की सरकार है लेकिन भाजपा का आतंक इतना अधिक है कि स्कूल में भाजपा की आगे की हिंसा से बचने के लिए अध्यापिका को दंडित करके भाजपा को खुश रखना ही सुरक्षित समझा।
इस तरह की घटनाएँ देश के अलग-अलग हिस्से में लगातार घट रही हैं और ज़्यादातर प्रकाशित नहीं हो पातीं। कुछ समय पहले महाराष्ट्र में कोल्हापुर के एक कॉलेज ने अपनी एक अध्यापिका को निलंबित कर दिया क्योंकि उन्होंने कक्षा को समझाया कि बलात्कारी या अपराधी हर धर्म में पाए जा सकते हैं, यह कहना ग़लत होगा कि मुसलमान बलात्कारी होते हैं। इसपर भी भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों के लोगों ने एतराज जतलाया। कॉलेज ने ख़ुद को हिंसा से बचाने को अध्यापिका की बलि चढ़ा दी।
स्कूलों में सर्वधर्म प्रार्थना पर आपत्तियों की कई ख़बरें मिलती रही हैं। ‘लब पे आती है दुआ’ वाली दुआ के लिए भी स्कूलों को दंडित किया जा चुका है। अगर स्कूल विद्यार्थियों को सारे धर्मों से परिचित करवाने के क्रम में मस्जिद ले जाना चाहें तो उसपर भी स्कूल के ख़िलाफ़ हिंसा हो सकती है।
ऐसे हालात में क्या स्कूल या कॉलेज शिक्षा का अपना धर्म निभा सकते हैं? उन्हें मालूम है कि समाज में शायद कोई नहीं जो उन्हें भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंसा से बचा सके। फिर वे क्या करें? क्या समाज को इससे कोई फ़र्क पड़ेगा अगर टैगोर की इस कविता को पढ़ाना बंद कर दिया जाए? क्या इसके पक्ष में कोई प्रदर्शन होगा?
यह उम्मीद करना ज़्यादती है या बमुश्किल साक्षर इस समाज में इसे लेकर कोई चिंता होगी कि उसके बच्चों को ज्ञान का माहौल मिल रहा है या नहीं, पाठ्यक्रम ऐसा है या नहीं कि ज्ञान पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक हो। ज्ञान या शिक्षा का मतलब मात्र अपने पसंदीदा अतीत का गुणगान, या पूर्वजों की उपलब्धियों का, वे काल्पनिक ही क्यों न हों, कीर्तन मात्र नहीं है।
शिक्षा का मतलब प्रभुत्वशाली विचार का अनुमोदन या उसका प्रचार नहीं है। अब तक हम मानते रहे हैं कि उस विचार की आलोचनात्मक पड़ताल की कुव्वत और सलाहियत विद्यार्थी हासिल कर सकें, यही कोशिश अध्यापक और संस्थान को करनी चाहिए।
यह दायित्व भी शिक्षा संस्थानों का है कि वे अपने परिसर और कक्षा को ऐसा बनाएँ कि सब उसमें ख़ुद को शामिल मान पाएँ। इसी कारण सर्वधर्म प्रार्थना, या अलग-अलग पर्व त्यौहार से परिचय संस्थानों की पाठ्यचर्या का हिस्सा है। कक्षा की भाषा भी ऐसी होनी चाहिए कि हर तरह के छात्र मान पाएँ कि उन्हें संबोधित किया जा रहा है या उन्हें सुना जा रहा है।
अगर यह सब करने से उनपर हमला होने लगे, वे ख़तरा महसूस करने लगें तो इसका नतीजा क्या होगा? वे जब यह सब कुछ बंद कर देंगे तो इसका नुक़सान किसे होगा?
शिक्षकों के सामने दो विकल्प हैं। वे ख़ुद को बचाएँ या अपने धर्म को। उनका धर्म है शिक्षा। उस धर्म को निभाने की क़ीमत आज बहुत ज़्यादा है। शारीरिक हिंसा, निलंबन, गिरफ़्तारी, अपनी, अपने परिवार की शांति का ख़ात्मा। संस्थान प्रायः शिक्षा के धर्म की रक्षा की जगह अपनी रक्षा को तरजीह देते हैं। ऐसे अध्यापक जो अपना काम करने की ज़िद करें दूसरे कई अध्यापकों के लिए सरदर्द हैं क्योंकि वे ‘बेवजह’ विवाद की जड़ हैं।
अध्यापकों से अब असाधारण वीरता की माँग की जा रही है। आज तक उनको मेहनत करनी थी ख़ुद को ज्ञान के अपने क्षेत्र में ताज़ा रखने की, उसमें गहराई हासिल करने की। अपने पूर्वग्रहों के कारण छात्रों से वे कुछ न छिपाएँ, ज्ञान के गगन में उड़ने के लिए उनके डैने मज़बूत करें, अपना अनुयायी न बनाएँ, यह अपेक्षा उनसे थी। अब उनसे उम्मीद है कि वकील ठीक करके रखें, ज़मानत और जमानतियों का इंतज़ाम करें, अपने शरीर को भी हिंसा के लिए तैयार रखें जिससे आरएसएस के हमले से उसे अचंभा न हो।
वह समाज कैसा है जो अपने अध्यापकों से इस वीरता की माँग करता है?
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