‘उसका मन नहीं लगता
क्योंकि उसे पूरी सूचना नहीं मिलती
मैं उसकी क्या मदद करूँ
वह मुझ पर प्यार के लिए निर्भर है
….
हर बार वह किसी बात को अधूरी जानती है
….
या तो वह एक दिन पूछना बंद कर देगी
या जब पूछने पर फटकारी जाएगी तो
एक दिन एकाएक किसी दिन
लंबी साँस लेकर
मुँह फेर लेगी चुपचाप।’
भारत के तेज़ी से तानाशाही में तब्दील होते जाने पर ध्रुव राठी के इस वीडियो को 48 घंटों के भीतर 1 करोड़ लोग देख चुके थे और जब ये पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं, यह संख्या कई गुना बढ़ चुकी होगी। इस वीडियो की लोकप्रियता ने सनसनी फैला दी है। जब बड़े मीडिया मंचों ने इस सरकार और उससे भी ज़्यादा इसके मुखिया नरेंद्र मोदी के महिमामंडन में अपनी सारी ताक़त झोंक दी है, जब हर तरफ़ एक ही नाम का जाप हो रहा है, जब बड़े बड़े बुद्धिजीवी सिर्फ़ यह बतला रहे हैं कि मई, 2024 में दिल्ली में संघीय सरकार फिर से नरेंद्र मोदी के पास ही रहेगी, तब एक अकेले आदमी द्वारा इस सरकार की आलोचना में बनाए गए इस वीडियो को हाथोंहाथ लिए जाने का क्या मतलब है?
क्या यह इस बात का संकेत है कि भारत में अभी भी सच जानने की भूख बची हुई है? क्या भारत के लोग जनता से प्रजा में बदल दिए जाने से ख़ुद को बचाए रखने का संघर्ष करने को तैयार हैं? जिस वक्त प्रायः सारे लोग हथियार डाल चुके हैं किकुछ नहीं बदल सकता क्योंकि कोई कुछ नहीं सुनना चाहता, इस वीडियो की असाधारण दर्शक संख्या से क्या मालूम होता है?
वीडियो में ध्रुव बड़े स्थिर भाव से बतलाते हैं कि क्यों और कैसे जनतंत्र के आवरण में भारत में तानाशाही धीरे धीरे जड़ जमा रही है। बात तर्कपूर्ण तरीक़े से कही जा रही है और बिना किसी उत्तेजना के, बिना आडंबरपूर्ण शब्दों के। शायद यही वजह है कि इस वीडियो को देखा जा रहा है। ध्रुव कुछ भी नया नहीं कह रहे हैं, जिन तथ्यों के आधार पर जो विश्लेषण वे कर रहे हैं, वे पहले कई लोग कर चुके हैं, यह सब कहकर उनके इस वीडियो के महत्त्व को कम नहीं किया जा सकता।1 करोड़ की संख्या इस विशाल जनसंख्या में नगण्य है, इसलिए इस वीडियो का असर जनता के चुनावी निर्णय में नगण्य होगा, इस तरह की बातें सिर्फ़ यह साबित करती हैं कि इस वीडियो का असर हुआ है।
वीडियो के असर का दूसरा प्रमाण यह है कि कुछ लोग इसके जवाब या इसकी काट में एक से अधिक कार्यक्रम तैयार कर प्रसारित कर रहे हैं। कुछ ध्रुव राठी के राजनीतिक रुझान का हवाला दे रहे हैं, कि वे आम आदमी पार्टी के समर्थक रहे हैं इसलिए इस वीडियो के पीछे एक गुप्त मंशा है, उसे पहचाना जाना चाहिए। एक तर्क यह भी है कि वीडियो में ध्रुव नरेंद्र मोदी को जिस तरह तानाशाह बतला रहे हैं, उस तरह अरविंद केजरीवाल में भी तानाशाही के सारे लक्षण पाए जाते हैं।
क्या इससे इस वीडियो की बात ग़लत साबित हो जाती है? ध्रुव राठी की राजनीतिक सहानुभूति पहले किस पार्टी के साथ रही है, उससे क्या इस वीडियो के तथ्य और तर्क झूठ साबित होते हैं? क्या ध्रुव राठी को साथ ही साथ यह भी बतलानाचाहिए था कि केजरीवाल के भी तानाशाह होने का ख़तरा है?
क्या हम यह कह रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी, या नरेंद्र मोदी की आलोचना का क्या मतलब क्योंकि बाक़ी सब भी वैसे ही हो सकते हैं? यह तर्क कुछ न बदलने का और यथास्थिति रखने का तर्क है। अगर हम विशुद्ध जनतांत्रिक नेता और दल की तलाश में हैं जिसके अवतरण पर ही इस सरकार को बदला जाना चाहिए तो हम ख़ुद को एक ऐसी खाई में धकेल देने की तैयारी कर रहे हैं जिससे हम कभी नहीं निकल सकेंगे।
ध्रुव राठी सूचना दे रहे हैं जो जनतंत्र के लिए प्राण वायु है। ताज्जुब नहीं कि तानाशाह सबसे पहले सूचना के स्रोतों को बंदकर देना चाहता है। सूचना का एक ही स्रोत होगा और वह तानाशाह का मुँह है। बाक़ी सब सिर्फ़ उसके लाउडस्पीकर होंगे। स्टालिन हो या माओ, हिटलर हो या मुसोलिनी, हर तानाशाह यही चाहता है और यही करता है। सिर्फ़ उसकी छवि, सिर्फ़ उसकी आवाज़। वही पत्रकार है, वही अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री है, वही कवि है और वही मनोवैज्ञानिक औरदार्शनिक है। एक आवाज़ जब दिनरात जनता के कानों में डाली जाती रहे तो धीरे धीरे दूसरी आवाज़ों को सुनने की उसकी कुव्वत जाती रहती है।
ऐसे वक्त में जो जनतंत्र का मूल्य समझते हैं, वे जनता के कानों को ज़िंदा रखने का अपना फ़र्ज़ निभाते हैं। बिना इसकी परवाह किए कि कितने कान इसके लिए तैयार हैं। उनका काम कानों को सजग रखने का है। और उसके लिए सच्ची सूचना का पोषण चाहिए।
ध्रुव राठी के वीडियो की लोकप्रियता का एक ही अर्थ है कि तानाशाही की अवश्यंभाविता के आगे निराशावादी और पराजयवादी होकर लाचार होने का वक्त नहीं है। जनता जीना चाहती है। अगर हम उससे प्यार करते हैं तो हमें क्या करना चाहिए?
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