लाल कृष्ण आडवाणी को भारत रत्न दिया जाना आज के भारत के तर्क से उचित ही है। यह उक्ति प्रसिद्ध है कि मनुष्य अपने देवता अपनी शक्ल में गढ़ते हैं। इसे बदल कर यह भी कहा जा सकता है कि वे अपने नायक या अपने आदर्श भी वैसे ही चुनते हैं जैसे वे ख़ुद हैं। या यह कहना अधिक उचित होगा, जैसे वे बना दिए गए हैं।
लेकिन आडवाणी को भारत ने यह उपाधि प्रदान की है? क्या उसने उन्हें अपना आदर्श चुना है जिसकी अभ्यर्थना इस अलंकरण से की जाए? इस भारत में 15% मुसलमान हैं, लगभग 2.5% ईसाई, लगभग 1.75% सिख हैं और 79% हिंदुओं में भी करोड़ों ऐसे हिंदू हैं जिन्हें आडवाणी में कहीं से अभी आदर्श का कोई तत्व नज़र नहीं आता। यह आबादी भी भारत है। फिर यह कहना इस आबादी के साथ नाइंसाफ़ी है कि भारत ने आडवाणी को अपना नायक चुना है।
यह तो भारत की सरकार या उसके प्रधानमंत्री का फ़ैसला है कि वह आडवाणी को भारत रत्न दे। इसके ठीक पहले उसने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिया था। दोनों ही राजनेता हैं। दो भिन्न विचारधाराओं के नेता। भारत और समाज के बारे में दोनों का ख़याल दूसरे से बिलकुल जुदा है। जब कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा की गई तो विश्लेषकों ने इसे मोदी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ बतलाया। आम चुनाव के ठीक पहले नाई जाति के नेता को भारत रत्न देकर नरेंद्र मोदी ने पिछड़ी जातियों को लुभा लिया है और आडवाणी को भारत रत्न देकर हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दुहराई है। “आडवाणी को भारत रत्न, भाजपा का चुनावी संदेश स्पष्ट है: ‘सामाजिक न्याय और हिंदुत्व’”, एक अंग्रेज़ी अख़बार ने मुखपृष्ठ पर सुर्ख़ी लगाई।
एक दूसरे विश्लेषक ने आडवाणी को ‘भारत रत्न’ दिए जाने पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि इससे समझ में आता है कि क्यों भाजपा जीतती है। इस घोषणा से मोदी ने भाजपा में एकता का संदेश दिया है। आडवाणी और मोदी के बीच जिस विभाजन की चर्चा थी, मोदी ने इस अलंकरण से उसे व्यर्थ करते हुए बता दिया है कि दोनों एक हैं। इससे भाजपा के लोगों में एकजुटता का संदेश पहुँचेगा और वह मज़बूत होगी। मोदी की इस चतुराई पर ये विश्लेषक फिदा हैं।
इसका मतलब साफ़ है कि यह भारत रत्न एक बहुत ही वक़्ती और क्षुद्र उद्देश्य से दिया गया है। वह उद्देश्य है भाजपा का आधार विस्तार या जो आधार अभी है, उसे और मज़बूत बनाना। इसके पीछे मात्र यह विचार है कि इससे मोदी या भाजपा को फ़ायदा होगा।
भारत रत्न या पद्म पुरस्कारों जैसे अलंकरण राजनेताओं को पहले भी दिए गए हैं। उनमें अगर नानाजी देशमुख जैसे राजनेताओं को छोड़ दें जिन्हें इसी सरकार ने पुरस्कृत किया, तो शेष ऐसे राजनेता हैं जिन्होंने जो काम किए वे समाज के एक ही हिस्से के लिए ही नहीं थे। उन्होंने देश के किसी तबके के प्रति घृणा का प्रचार नहीं किया। राजीव गांधी और इंदिरा गांधी से सिखों की नाराज़गी की वजह है और वह जायज़ है लेकिन इन दोनों ने सिखों के ख़िलाफ़ घृणा का प्रचार नहीं किया। इनकी राजनीति सिख विरोधी घृणा पर आधारित नहीं थी।
लाल कृष्ण आडवाणी को क्यों ‘भारत रत्न’ कहा जाना चाहिए? उन्होंने ऐसा क्या ख़ास किया है? राष्ट्र निर्माण में उनकी क्या भूमिका रही है?
आडवाणी आज 96 साल के हो चुके हैं। उन्होंने इस लंबी ज़िंदगी में राजनेता के तौर पर देश के हित में कुछ किया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं। अंग्रेजों से आज़ादी मिलने तक उनकी सामाजिक सक्रियता मात्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता की रही थी। आज़ादी के आंदोलन में उनके हिस्सा लेने का कोई सबूत नहीं। लोग कह सकते हैं जैसा प्रायः दीनदयाल उपाध्याय के बारे में भी कहा जाता है कि बेचारे की उम्र उस वक्त कम थी। लेकिन उम्र कम होने का बहाना इसलिए सिर्फ़ बहाना है कि ख़ुद संघ के लोग उस भगत सिंह या प्रफुल्ल चाकी के गुण गाते हैं जिन्होंने किशोरावस्था में ही अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ मुहिम में भाग लिया और क़ुर्बानी भी दी।
अगर किसी ने आज़ादी के आंदोलन में भाग नहीं लिया तो इस वजह से उसे चरित्र प्रमाण पत्र न मिले, यह ठीक नहीं। असल बात यह है कि आज़ाद भारत की उसकी कल्पना क्या है और उसके जीवन और राजनीति के मूल्य क्या हैं। क्या उन्होंने भारत के उस जहाज़ को जो आज़ादी के वक्त हिंसा के समंदर में डूब उतरा रहा था, उसे स्थिर करने के लिए उन्होंने कुछ किया या उस हिंसा को और भड़काया?
आज़ादी के बाद आडवाणी आर एस एस और जन संघ के नेता रहे। दोनों ही संगठन भारत में मुसलमानों और ईसाइयों के बराबर के अधिकार के ख़िलाफ़ काम करते रहे हैं। मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा की कई वारदातों में आर एस एस के लोगों के हाथ होने के सबूत हैं। आर एस एस चूँकि अनौपचारिक तरीक़े से काम करता है, इसलिए ऐसे लोगों की आर एस एस से संबद्धता साबित करने का कोई उपाय नहीं।
इन संगठनों के नेता के रूप में आडवाणी की भूमिका घृणा के इस विचार के प्रसारक की ही थी। लेकिन उनके राजनीतिक जीवन का सर्वोच्च बिंदु था राम जन्मभूमि आंदोलन। वे टोयोटा गाड़ी को रथ का स्वाँग देकर सोमनाथ से एक रथयात्रा पर निकले जिसका नारा था: “मंदिर वहीं बनाएँगे।” इस अभियान के दूसरे लोकप्रिय नारों की भी हमें याद है जिनमें बाबर की औलादों को जूता मारने और मुसलमानों को पाकिस्तान या क़ब्रिस्तान में से एक चुनने को कहा जा रहा था। उस अभियान में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलानेवाले साध्वी ऋतंभरा के भाषणों की भी हमें याद है।
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लाल कृष्ण आडवाणी इस घृणा अभियान के शीर्ष नेता थे। मुझे पटना में उनके रथ के प्रवेश की याद है। पटना में तनाव और भय व्याप्त था। आडवाणी के गण गाड़ियों पर डंडे बजा बजाकर और लोगों को रोक रोककर ज़बरदस्ती ‘जय श्री राम’ का नारा लगवा रहे थे। इस रथयात्रा का विरोध करने पर बैठे सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमला किया गया और उनका टेंट जला दिया गया। आडवाणी इस हिंसा के जनक थे।
और फिर 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में उन्होंने लाखों की भीड़ इकट्ठा की और बाबरी मस्जिद उनकी आँखों के सामने ढाह दी गई। आडवाणी ने इसकी ज़िम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया। यह उनकी कायरता थी। लेकिन यही आरएसएस का चरित्र रहा है। वह कभी भी अपनी हिंसा की ज़िम्मेदारी नहीं लेता है। उसके लोग गिरफ़्तार होते हैं लेकिन आरएसएस हमेशा अपने सदस्यों से दूरी बना लेता है। वीरता और आर एस एस दो ध्रुव हैं। आडवाणी इसी आर एस एस के समर्पित स्वयंसेवक रहे।
राम जन्मभूमि अभियान इस देश का सबसे विभाजनकारी अभियान था जिसने हिंदुओं के मन में मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा भरने में बड़ी भूमिका निभाई और उन्हें मुसलमानों से दूर किया। आडवाणी ने हिंदू समाज में पहले से मौजूद मुसलमान विरोधी द्वेष को गाढ़ा किया।
सद्भाव कभी आडवाणी का मूल्य नहीं रहा। उन्होंने देश के लोगों को टुकड़ों में बाँटने के अलावा शायद ही कुछ किया है। इसलिए वे देश के नेता कहलाने के हक़दार नहीं। जैसा शुरू में कहा गया, इस देश के मुसलमान, ईसाई और अन्य अल्पसंख्यक उन्हें कभी देश का रत्न नहीं मान सकते और न वे हिंदू उन्हें स्वीकार करेंगे जिन्होंने देखा कि किस तरह इस शख़्स ने उनके धर्म को विष में बदल दिया और राम को एक हथियार में। आख़िर वे हिंदू भी जो ख़ुद को मनुष्य मानना चाहते हैं, जानते हैं कि आडवाणी के साथ जिन ‘गुणों’ का ज़िक्र आएगा, वे हैं असत्य, कपट, हिंसा और कायरता। क्या वे चाहेंगे कि उनका नेता इन गुणों के कारण जाना जाए?
यह ठीक ही है कि आडवाणी के रास्ते चलकर सफल हुई भाजपा की सरकार उन्हें पुरस्कृत करे। आख़िर घृणा और हिंसा की राजनीति में आडवाणी के योगदान को वह कैसे भुला सकती है या कमतर कर सकती है? नफ़रत की यह खाई तो आडवाणी ने ही खोदी है जिसमें भारत गिर पड़ा है और इससे निकलने में ख़ुद को लाचार पा रहा है।
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