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तानाशाह की जमीन दरक रही है, लेकिन संवैधानिक संस्थाओं को शर्म नहीं

“तो आपको क्या लग रहा है? चीज़ें बदल रही हैं? क्या चुनाव ने कुछ बदला है?” 4 जून को गुजरे 2 महीने हो गए लेकिन लोगों के सवाल में तब्दीली नहीं आई है। हमसे मिलने वाले एक ही तरह के हैं। जिन्हें कुछ हिक़ारत और कुछ दया के साथ धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है। उनके स्वर में चिंता है और उम्मीद भी है। 18वीं लोक सभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अपने दम पर बहुमत न मिलने को  बड़ी घटना माना गया। जो सरकार शासन के हर मोर्चे पर विफल हो गई हो उसका सत्ता से बाहर होना जनतंत्र के लिए स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए।
लेकिन भाजपा को बहुमत न मिलना असाधारण था या एक असंभव घटना थी, इससे यही मालूम होता है कि भारतीय जनतंत्र को चलानेवाली सारी संस्थाओं ने ख़ुद को प्रायः भाजपा के विभागों में बदल दिया था और वे सब मिलकर जनमत के विरुद्ध साज़िश कर रही थीं। चुनाव आयोग हो या प्रशासन हो या मीडिया: सबने मिलकर तय किया था कि भाजपा को किसी भी तरह वापस लाना है। इस संयुक्त राष्ट्रीय महाप्रयास के बावजूद  भाजपा बहुमत से दूर रह गई।लेकिन अगर इस वजह से आप समझ बैठे हैं कि चुनाव आयोग सुधर जाएगा और वह भाजपा की कम संख्या का लाभ उठाकर अपनी स्वायत्तता हासिल कर लेगा तो आप भ्रम में हैं। 
अभी हाल में उसने चुनाव की प्रतीक्षा कर रहे 4 राज्यों में सिर्फ़ जम्मू कश्मीर और हरियाणा  के लिए चुनाव की घोषणा करके और महाराष्ट्र और झारखंड को अलग करके साबित कर दिया है कि वह जनतंत्र के लिए नहीं काम नहीं कर रहा,वह भाजपा का वफ़ादार सहायक है।उसके लिए दूसरे स्वायत्तता की माँग करते रहें, वह अपने इस हाल में कितना उल्लसित है यह मुख्य चुनाव आयुक्त की घटिया शेरोशायरी से आप समझ ही सकते हैं। 
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जैसे चुनाव आयोग को स्वायत्तता नहीं चाहिए वैसे ही आम तौर पर पुलिस और प्रशासन भी ख़ुद को बदलने को तैयार नहीं हैं। जब मैं यह लिख रहा हूँ, मेरे सामने असम के कछार ज़िले के सोनाई थाने में पड़नेवाले  नरसिंगपुर में अली नामक किशोर पर भीड़ के हमले की तस्वीर है। और यह खबर कि भीड़ ने तो अली को पीट पीटकर लहूलुहान कर दिया और पुलिस ने भीड़ के हमलावरों पर कार्रवाई की जगह अली को ही गिरफ़्तार कर लिया। अली का क़सूर यह है कि वह एक स्कूल की मित्र से बात कर रहा था जो हिंदू है। हिंदू भीड़ या  बजरंग दल यह बर्दाश्त ही कैसे कर सकता है कि मुसलमान लड़का हिंदू लड़की के क़रीब भी दीखे। लेकिन यह पुलिस को भी बर्दाश्त नहीं है। 
जैसे उदयपुर का प्रशासन। दो लड़कों में लड़ाई हुई। एक ने दूसरे को छुरा मार दिया। पुलिस ने फ़ौरन वह मकान बुलडोज़र से ढाह दिया जिसमें लड़के का परिवार रहता था। क्योंकि वह लड़का मुसलमान था।विडंबना यह कि वह मकान लड़के के माता-पिता का नहीं था। किराए का था जिसमें और 3 परिवार रहते थे। लेकिन पुलिस और प्रशासन को इससे फर्क नहीं पड़ता। पहले ही मुसलमान को मकान मिलने में मुश्किल आती थी, अब सबको बतलाया जा रहा है कि मुसलमान को मकान देना अपराध हो सकता है। आपका मकान कभी भी गिराया जा सकता है।
कॉंग्रेस पार्टी के नेता दिग्विजय सिंह ने भिंड ज़िले के कलक्टर का बयान जारी किया कि वे मुसलमानों के घरों को तोड़ेंगे, हिंदुओं के नहीं। 
जनमत बदला लेकिन पुलिस और शासन हिंदुत्ववादी के हिंदुत्ववादी बने हुए हैं। काँवड़ यात्रा शुरू होते ही मुज़फ़्फ़रनगर की पुलिस ने हुक्म जारी किया कि सभी दुकानदार अपना, अपने कर्मचारियों का नाम बड़े बड़े अक्षरों में बाहर लिखेंगे जिससे बेचारे हिंदुओं को भ्रम न हो और वे ग़लत जगह से कुछ ख़रीद न लें। फिर सहारनपुर पुलिस ने और उत्तराखंड की पुलिस ने ऐसे ही आदेश जारी किए। ध्यान रहे, यह सरकार का निर्णय नहीं था। पुलिस क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर यह कर रही थी। उसने अदालत में यह क़बूल भी किया कि इस आदेश में अस्थायी भेदभाव है लेकिन क्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ इतना भी भेदभाव नहीं किया जा सकता अगर उससे कुछ हिंदू( या आर एस एस के संगठन खुश हो रहे हों?
4 जून के चुनाव नतीजों के बाद एक महीने के भीतर 12 लोगों को पीट पीट कर मार डाला गया। क्या यह कहना होगा कि वे कौन थे? पुलिस ने क्या किया, क्या यह भी कहना होगा?
4 जून के बाद क्या बदला? मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा में कमी नहीं आई है। बल्कि वह बढ़ गई है। जैसे चुनाव आयोग कह रहा है कि जनमत जो हो हम भाजपा के औज़ार हैं, वैसे ही प्रशासन और पुलिस का कहना है कि अब बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद की ज़रूरत नहीं। आर एस एस और भाजपा को बड़े कामों में अपनी ताक़त लगानी चाहिए, मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा करने के लिए वह तो है ही!
तो सड़क की हिंसा और प्रशासन के मुसलमान विरोधी रुख़ में कोई तब्दीली नहीं आई है। जैसा हमने कहा, कुछ मामलों में वह और उग्र और ढीठ हो गई है।
मुसलमान जब सड़क से निगाह हटाकर संसद की तरफ़ देखता है तो क्या उसे इस बात से तसल्ली मिलती है कि भाजपा को इस बार तेलगू देसम पार्टी जेडीयू के साथ मिलकर सरकार चलानी पड़ रही है। लोग इसे दो बैसाखियों पर चलनेवाली सरकार कह रहे हैं। बिना यह महसूस किए कि उनकी भाषा में असंवेदनशीलता है। जिनकी टाँगें किसी वजह से काम न कर रही हों, उन्हें बैसाखी चाहिए ही और वह मज़ाक़ का विषय नहीं हो सकता। हमें अपनी संख्या के बल पर सरकार न बना पाने और दूसरों के सहारे के लिए भाजपा की मजबूरी के लिए कोई और रूपक, कोई और मुहावरा खोजना चाहिए।
बहरहाल! भाषा एक बड़ी चिंता है लेकिन अभी हम अपने मित्रों के सवाल पर सोच रहे हैं। 4 जून के बाद क्या बदला है? उसके साथ यह भी पूछा ही जाना चाहिए कि क्या नहीं बदला है। बदलाव तो हुआ है। अब यह मात्र नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं रह गई है। सिर्फ़  भाजपा की भी नहीं।यह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन डी ए) की सरकार है। मैं, मेरा, मुझसे कहनेवाले नरेंद्र मोदी को भी अपनी सरकार  को एन डी ए की कहना पड़ रहा है, इससे बड़ा दुख उनके लिए क्या हो सकता है? 

तानाशाह की मूर्ति दरक गई है। आत्मविश्वास हिल गया है। लेकिन ढिठाई में कमी नहीं आई है।


इसलिए अपने मंत्रिमंडल में महत्त्वपूर्ण महकमों के लिए पुराने मंत्रियों को ही चुनकर बतलाने की कोशिश की जा रही है कि कुछ नहीं बदला है।कुछ नहीं बदलेगा।अगर आप सोच रहे थे कि जनता ने ख़राब शासन की सज़ा के तौर पर सीटें कम दीं तो कम से कम नेता इसे स्वीकार नहीं करता। तानाशाह भ्रम बना कर रखना चाहता है कि कुछ नहीं बदला है। यह भ्रम वह इसलिए रख पा रहा है कि उसकी पार्टी ही पूरी तरह उसके दरबारियों का दल बन कर रह गई है। जनता ने संख्या कम करके मौक़ा दिया था कि वह मोदी के सामने खड़ी हो सके। लेकिन 10 सालों में भाजपा का स्टालिनीकरण हो चुका है। जनता को भले याद हो  भाजपा भूल चुकी है कि आज़ादी का मतलब क्या होता है। 10 साल में “मोदी मोदी” के नारे के अलावा उसके पास शब्द नहीं रह गए हैं।

नई संसद का सबसे हास्यास्पद और दयनीय दृश्य था नरेंद्र मोदी के संसद में घुसने पर मोदी मोदी की नारेबाजी। जनता की संख्या-शास्ति से घबराया तानाशाह इन नारों के सहारे ताक़त हासिल करने की कोशिश कर रहा था!


लेकिन यथार्थ तो संख्या में है। गलेबाज़ी चाहे भाजपा कर ले क़ानून के मामले में अब उसे विपक्ष की संख्या के चलते कदम पीछे खींचने पड़ रहे हैं। जिस तरह उसने न्याय संहितावाला क़ानून या सी ए ए अपने संख्या बल से पारित करवा लिया था, उस तरीक़े से वक़्फ़ बोर्ड का कानून पास नहीं करवा सकी। उसे ब्राडकास्टिंग बिल का भी हश्र दिखलाई पड़ा इसलिए पहले ही उसे वापस ले लिया। 
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लोक सभा अध्यक्ष के लिए अब विपक्ष का माइक बार बार बंद करके उसकी आवाज़  रोकना आसान नहीं रह गया है। लोकसभा अध्यक्ष या राज्य सभा के सभापति अपनी क्षुद्रता से बाज नहीं आ रहे लेकिन इस बार हर कदम पर विपक्ष उन्हें भी आईना दिखला रहा है।
क्या बदला है और क्या नहीं? सड़क और शासन की हिंदुत्ववादी हिंसा नहीं थमी है। इसलिए मुसलमान की ज़िंदगी की अनिश्चितता बनी हुई है। वह कब गिरफ़्तार हो जाएगा, कब मार डाला जाएगा, कब उसका घर, मकान तोड़ दिया जाएगा, मात्र मुसलमान होने के कारण उसे नहीं मालूम। लेकिन अब मुसलमान विरोधी क़ानून बनाना उतना आसान नहीं है। यह वह अंतर्विरोध है जिसमें 4 जून का भारत फँसा हुआ है। लेकिन इसका जो असर मुसलमान पर है, वह हिंदू पर नहीं। भारत को इस जनमत ने इस तरह विभाजित ही रखा है। 
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अपूर्वानंद
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