चर्चा में कुछ छात्रों ने मुसलमानों के बारे में वही धारणा दुहराई जो बाहर हिंदू समाज में प्रचलित है: मुसलमान बलात्कारी होते हैं, हिंसक होते हैं। यही नहीं, उन्होंने आगे कहा कि बाबरी मस्जिद को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर गिराया गया था।
कुछ छात्र इस चर्चा का वीडियो बना रहे थे। इस बात के कोई 8 दिन बीत जाने के बाद प्रोफ़ेसर देसाई को प्राचार्य ने बुलाया जहाँ एक पुलिस अधिकारी मौजूद था। तब उन्हें मालूम हुआ कि चर्चा के वीडियो को संपादित करके कई सोशल मीडिया माध्यमों से प्रसारित कर दिया गया है और आरोप लगाया जा रहा है कि उन्होंने कहा है कि औरंगज़ेब भला था और पाटिल और देशमुख बलात्कारी होते हैं। प्रोफ़ेसर देसाई यह जानकर सकते में आ गईं क्योंकि चर्चा में उनकी बात को पूरी तरह विकृत करके बाहर दिखलाया जा रहा था।
प्रोफ़ेसर देसाई के साहस के लिए हम उनकी तारीफ़ कर सकते हैं लेकिन अध्यापकों को इस असाधारण साहस की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। उन्होंने वह किया जो हम सारे अध्यापक करते हैं।लेकिन उनके छात्रों में से कुछ ने कक्षा की मर्यादा का उल्लंघन किया। कक्षा सार्वजनिक मंच नहीं है। वह अध्यापक और छात्रों के बीच की जगह है। वह इस रूप में सड़क से अधिक खुली है कि वहाँ आप बिना हिचक अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं । ऐसे विचार भी जो बाहर ज़ाहिर करने पर आप संकट में पड़ सकते हैं। इसीलिए हम अध्यापक कभी भी कक्षा में छात्रों द्वारा व्यक्त विचारों को सार्वजनिक नहीं करते। उनके नाम के साथ तो भी कभी नहीं।
हम हमेशा छात्रों को अपनी बात कहने के लिए उत्साहित करते हैं। परिसर और कक्षा विचारों की प्रयोगशालाएँ हैं। यहाँ वे खुलकर अपनी बात नहीं कहेंगे तो और कहाँ उन्हें यह मौक़ा होगा क्योंकि समाज में तो हर जगह तरह-तरह के संकोच, सेंसर लगे होते हैं।
कक्षा छात्रों और शिक्षकों के बीच एक तरह के अनुबंध पर आधारित है,परस्पर विश्वास पर। जैसे छात्रों को इसकी इजाज़त है कि वे अपना पक्ष रखें, अध्यापक को भी अपना मत रखने की आज़ादी है।उसका काम विचारों के खेल में अंपायर भर का नहीं है। उसका दायित्व अपने प्रशिक्षण के कारण अधिक अवश्य है। छात्रों को सोचने का तरीक़ा सिखलाने का जिम्मा उसका है। उत्तरदायित्वपूर्ण तरीक़े से कैसे सोचा जाए, यह बतलाना उसका फर्ज है।यही काम प्रोफ़ेसर तेजस्विनी देसाई कर रही थीं।
जिन छात्रों ने चर्चा को रिकॉर्ड किया और सार्वजनिक किया, उन्होंने कक्षा की मर्यादा तोड़ी। उस अनुबंध को तोड़ दिया जिसके आधार पर कक्षा का व्यापार चलता है। ऐसा करके उन्होंने प्रोफ़ेसर देसाई को संकट में डाला लेकिन बाक़ी छात्रों का भी नुक़सान किया।सिर्फ़ अपने कॉलेज के नहीं, भारत में अन्य संस्थानों के छात्रों का भी। क्योंकि अब उनके अध्यापक सावधान और ख़ामोश भी हो जाएँगे।वे ख़ुद को सेंसर करेंगे और छात्रों से ख़ुद को दूर करेंगे।
इस घटना से केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय के डॉक्टर गिल्बर्ट सेबेस्टियन की याद हो आई। फासिज्म पर उनकी कक्षा की प्रस्तुति को प्रोफ़ेसर देसाई की बात की तरह ही सार्वजनिक कर दिया गया था। फिर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों ने हंगामा करके उन्हें निलंबित करवा दिया। कुछ महीने बाद उनका निलंबन वापस हुआ लेकिन क्या उसके बाद वे उतने ही इत्मीनान से अध्यापन कर पा रहे होंगे?
कक्षा में अगर अध्यापक छात्रों की नीयत हर क्षण भाँपने को बाध्य हो तो कक्षा से इत्मीनान चला जाता है और वह सीखने-सिखाने की जगह नहीं रह जाती। हिंदुत्ववादी संगठन यही चाहते हैं लेकिन क्या सभी छात्र भी उनके साथ हैं?
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