‘साउथ एशिया यूनिवर्सिटी’ से निकाले गए छात्र भीमराज एम को ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में छात्रवृत्ति सहित दाख़िला मिला है। इस खबर से आशा बँधी है कि हम जानना चाहेंगे कि आख़िर उन्हें क्यों निकाला गया था और उसके बाद क्या हुआ।
फिर शायद हम याद कर पाएँ कि इसी विश्वविद्यालय के 4 अध्यापक पिछले एक हफ़्ते से ज़्यादा से निलंबित हैं।अख़बारों में कुछ ने एक बार इसकी सुध ली है लेकिन ज़ाहिर है,इस घटना में इतनी उत्तेजना पैदा करने की शक्ति नहीं है कि दूसरी बार इस मसले पर नज़र डाली जाए। टेलीविज़न चैनलों से यह उम्मीद तो बेकार ही है कि वे इसे रिपोर्ट करने लायक़ भी मानें। विश्वविद्यालय दक्षिण एशिया का है, बाक़ी देशों के शिक्षा जगत को तो छोड़ दीजिए, भारत के दूसरे परिसरों में भी इसकी खबर भी नहीं होगी। लेकिन हमारे लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए कि अध्यापकों को इसके लिए दंडित किया जा रहा है कि उन्होंने विश्वविद्यालय अधिकारियों से छात्रों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रुख़ के लिए कुछ अनुरोध किया।माँग भी नहीं,मात्र अनुरोध। विश्वविद्यालय प्रशासन अध्यापकों के इस अनुरोध को छात्रों को प्रशासन के ख़िलाफ़ उकसाने की कार्रवाई मानता है। इस ‘अपराध’ के लिए अध्यापकों को निलंबन की सज़ा दी गई है।
पहले जान लें कि छात्रों की तरफ़ से प्रशासन को कुछ भी कहने के लिए अध्यापक बाध्य क्यों हुए? 2022 के सितंबर के महीने से विश्वविद्यालय में छात्रों का आंदोलन चल रहा था। अचानक छात्रवृत्ति में भारी कटौती के ख़िलाफ़ छात्रों ने आंदोलन किया।उनका कहना था कि कहाँ तो ज़रूरत छात्रवृत्ति की रक़म बढ़ाने की थी, उल्टे उसे घटा दिया गया। साथ ही वे यह माँग भी कर रहे थे विश्वविद्यालय की वैधानिक समितियों में छात्रों का प्रतिनिधित्व भी हो। ख़ासकर जेंडर और यौन उत्पीड़न से जुड़ी समितियों में। यह कोई नाजायज़ माँग न थी। हमारे यहाँ कम से कम इन दो समितियों में विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व रहता है।
जब यह बात न सुनी गई तो छात्रों ने धरना और घेराव का रास्ता लिया। प्रशासन ने पुलिस बुला ली। इसके बाद 13 अध्यापकों ने प्रशासन को लिखा कि छात्र आंदोलन से निबटने के लिए पुलिस को परिसर में बुलाने से परहेज़ करना चाहिए था।इसलिए भी कि इस विश्वविद्यालय का चरित्र अंतर्राष्ट्रीय है। फिर कई अध्यापक अधिकारियों से मिले भी कि स्थिति सँभाली जा सके। लेकिन उन्हें सुनने की जगह प्रशासन ने 5 विद्यार्थियों को अलग अलग प्रकार से दंडित किया। निलंबन से लेकर उनका दाख़िला ख़ारिज कर देने तक का दंड उन्हें दिया गया। अध्यापक फिर प्रशासन से मिले। विद्यार्थियों से संवाद शुरू करने का आग्रह उन्होंने किया।
कुछ न होने पर विद्यार्थियों ने फिर अनशन शुरू किया जो आगे जाकर आमरण अनशन में बदल गया। उनमें से कुछ की हालत बहुत ख़राब हो गई और एक, अम्मार पर तो इतना बुरा असर पड़ा कि उसे कई बार हस्पताल में भर्ती किया गया।उसकी बिगड़ती हालत से क्षुब्ध होकर विद्यार्थियों ने कुलसचिव के कमरे में जाकर कहा कि प्रशासन को उसे देखने जाना चाहिए और उसके इलाज का इंतज़ाम करना चाहिए।भूख हड़ताल जारी रही।प्रशासन ने इसके बाद विद्यार्थियों को दंडित करनेवाला अपना आदेश वापस लिया लेकिन नई कारण बताओ नोटिस जारी कर दी। साथ ही दो विद्यार्थियों , उमेश जोशी और भीमराज को विश्वविद्यालय से निकाल दिया।
दिसंबर में आंदोलन ख़त्म हो गया लेकिन महीने के अंत में 5 अध्यापकों को प्रशासन ने कई आरोपों का जवाब देने को कहते हुए नोटिस जारी की। उनपर आरोप था कि उन्होंने विद्यार्थियों के आंदोलन का साथ दिया, उन्हें उकसाया, बीमार अम्मार से मिलने हस्पताल गए, प्रशासन को पत्र लिखे। यह आरोप भी था कि उनमें से कुछ का परिसर के एक मार्क्सवादी अध्ययन मण्डल से संबंध था।
इसके बाद एक उच्च स्तरीय समिति गठित की गई और इन अध्यापकों को उसके सामने पेश होने को कहा गया। जब वे कमरे में पहुँचे तो सबको एक एक पुस्तिका थमाई गई। इन पुस्तिकाओं में सवाल लिखे थे जिनके जवाब अध्यापकों को देने थे। क्या आप अनुमान कर सकते हैं कि प्रश्नों की संख्या क्या रही होगी? 132 से 246 तक! आदेश दिया गया कि उन्हें वहीं बैठकर कलम से जवाब लिखने हैं।अध्यापक हैरान रह गए।
अपमानित महसूस करना भी अस्वाभाविक न था। उन्होंने तथ्य पता करने के इस असाधारण और अभूतपूर्व तरीक़े पर एतराज किया और कहा कि ऐसा करना उनके लिए मुमकिन नहीं। सवाल ईमेल से भेज दिए जाएँ तो वे शायद जवाब लिखकर कुछ दिनों में भेज भी दें। समिति ने ऐसा करने से इनकार किया। धमकी दी कि वहीं बैठकर सारे सवालों के जवाब देने से मना करना भी उनके ख़िलाफ़ एक सबूत होगा।
यह ध्यान रखना चाहिए कि यह उच्च स्तरीय समिति में भी वरिष्ठ अध्यापक ही सदस्य थे।लेकिन अपने सहकर्मियों के साथ ऐसा व्यवहार करते उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ। बहरहाल! अध्यापकों ने उत्तर नहीं दिया और इस अपमान के विरुद्ध एक प्रतिवेदन दिया। उस प्रतिवेदन के उत्तर में प्रशासन ने स्नेहाशीष भट्टाचार्य, श्रीनिवास बुर्रा,इरफ़ानुल्लाह फ़ारूक़ी और रवि कुमार को निलंबित कर दिया।
इस पूरे घटनाक्रम से ज़ाहिर है कि प्रशासन का रवैया कितना असंवेदनशील है। वह छात्रों और अध्यापकों में से किसी की इज्जत नहीं करता।
विश्वविद्यालय में इनके अलावा और भी अध्यापक हैं जैसे आंदोलनकारी छात्रों के अलावा और भी छात्र हैं। क्या जो अध्यापकों ने किया उसके बिना उनका जीवन नहीं चलता? क्या मात्र कक्षा में जाकर और पाठ्यक्रम पूरा करवा देना ही उनका कर्तव्य नहीं? आख़िर क्यों उन्हें विद्यार्थियों के पचड़े में पड़ना चाहिए? ये सवाल किए जा रहे होंगे।लेकिन इन अध्यापकों ने वही किया जो उनका फर्ज था। विश्वविद्यालय अध्यापकों और विद्यार्थियों की पारस्परिकता पर ही टिका रहता है। विद्यार्थियों की भौतिक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक अवस्था से निरपेक्ष होकर कक्षा में व्याख्यान देते रहना आसान है लेकिन क्या वह उचित है? हमें मालूम हो कि विद्यार्थियों के साथ अन्याय हो रहा है लेकिन हम “राम की शक्तिपूजा” में शक्ति और अन्याय के संबंध पर कक्षा में बात भर करें, इससे बड़ी विडंबना क्या होगी?
अध्यापकों को अनुशासित करने की प्रवृत्ति इधर बढ़ती जा रही है। अभी जब यह लिख रहा हूँ, पढ़ा कि कोलकाता में प्रेसिडेंसी यूनिवर्सिटी ने अध्यापकों और विद्यार्थियों के लिए आचार संहिता जारी की है। पश्चिम बंगाल में तो भारतीय जनता पार्टी का शासन नहीं है। उसके पहले केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से कई ने अध्यापकों को शासित करने के लिए आचार संहिता लागू कर दी है। उनके बोलने, लिखने और सार्वजनिक सक्रियता पर रोक लगाने की कोशिश इसके ज़रिए की जा रही है। ऐसे मामलों की खबर हमें है कि लेख लिखने के लिए अध्यापकों को नोटिस भेजी गई है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 48 अध्यापक इसी प्रकार की अनुशासनात्नक कार्रवाई के ख़िलाफ़ अभी कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। जामिया मिलिया इस्लामिया की प्रोफ़ेसर सोन्या सुरभि गुप्ता शिक्षक संघ की गतिविधि में शिरकत के कारण निलंबित हैं। उनके बारे में कोई बात नहीं हो रही है।
विश्वविद्यालय अध्यापक के कारण ही जाने जाते हैं।लेकिन इधर उन्हें मात्र कर्मचारी के दर्जे में शेष कर देने की कोशिश की जा रही है। वे ख़ुद को सरकारी कर्मचारी मान लें और प्रशासन का मातहत, यह कहा जा रहा है।
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