दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने एक कार्यक्रम में श्रोताओं को तटस्थता का त्याग कर राष्ट्र हित के पक्ष में काम करने के बारे में सोचने के लिए कहा। कार्यक्रम ‘मोदी VS ख़ान मार्केट गैंग’ नामक किताब के लोकार्पण का था। इस किताब के लेखक को पत्रकार कहा जाता है। मंच पर कुलपति के अलावा भारतीय जनता पार्टी के पदाधिकारी जिन्हें नेता कहा जाता है, मौजूद थे। श्रोताओं में कॉलेजों के प्राचार्य, अध्यापक और छात्र बड़ी संख्या में मौजूद थे। विश्वविद्यालय के कुछ अन्य अधिकारी भी। हॉल खचाखच भरा था।
किसी किताब के लोकार्पण समारोह में इतनी बड़ी संख्या में अध्यापक और छात्र उमड़ कर आएँ, इससे अधिक प्रसन्नता की बात किसी भी विश्वविद्यालय के लिए और क्या हो सकती है।वह भी जब लेखक अपने क्षेत्र में प्रतिष्ठित न हो और किताब के बारे में शायद ही कोई जानता हो। प्राचार्यों की पुस्तकों में ऐसी रुचि का प्रदर्शन देखकर विश्वविद्यालय को जाननेवाले व्यक्ति को सुखद आघात लग सकता है। छात्र भी बौद्धिक चर्चा के प्रति इस प्रकार उत्सुक हों, यह किसी भी शिक्षा संस्थान के लिए शुभ ही है।
हम जानते हैं कि हक़ीक़त कुछ और है। जैसा किताब के नाम से ज़ाहिर है, यह वैसी किताब नहीं जिसका विद्या या विद्वत्ता से कोई लेना देना हो। किताब के शीर्षक में देवनागरी और रोमन का फूहड़ मेल और अंग्रेज़ी के VS का इस्तेमाल ही काफ़ी है यह बतलाने के लिए कि किताब सस्ती और सतही है। VS के लिए हिंदी समानार्थी शब्द मौजूद हैं। या तो उन्हें दिमाग़ी आलस की वजह से खोजा नहीं गया या VS ज़्यादा स्मार्ट मालूम पड़ा। जो हो, ऐसी किताब पर चर्चा के लिए विश्वविद्यालय स्थान और अवसर दे, इससे उसके बारे में चिंता तो होनी ही चाहिए।
किताब के नाम से यह भी मालूम हो जाता है कि यह नरेंद्र मोदी के महिमामंडन या प्रचार अभियान का एक हिस्सा है। इस प्रचार अभियान के लिए विश्वविद्यालय के संसाधनों का इस्तेमाल कितना उचित है, क्या इस पर बहस होनी चाहिए। लेकिन ज़्यादा बुरी बात यह है कि या सिर्फ़ मोदी के प्रचार का कार्यक्रम न था,यह उनके आलोचकों पर आक्रमण का मंच था। कुलपति इसमें अपना स्वर मिलाएँ, यह अत्यंत निराशाजनक बात है।
तर्क दिया गया कि यह विश्वविद्यालय का अपना कार्यक्रम नहीं था। कुलपति या अन्य अधिकारी और अध्यापक अतिथि के रूप में थे। लेकिन इस कार्यक्रम की पूरी रिकॉर्डिंग विश्वविद्यालय ने अपनी वेबसाइट पर लगा रखी है। कुलपति का भाषण अलग से लगाया गया है।यह बात भी कोई भोला ही मानेगा कि प्राचार्य, अध्यापक और छात्र इस किताब से आकर्षित होकर ख़ुद ही हॉल भरने आ गए थे।
हालाँकि ऐसा कार्यक्रम पहली बार नहीं हो रहा है और पिछले 10 वर्षों में एक तरह से विश्वविद्यालय को आर एस एस और भाजपा के प्रचार का मंच ही बना दिया गया है फिर भी हरेक ऐसे कार्यक्रम के बाद इस संस्थान के सदस्य के रूप में अपमान का अनुभव होता है। यह देखकर बुरा लगता है कि हमारे अधिकारी बुद्धिजीवियों और शोधकर्ताओं का मजाक उड़ा रहे हैं।
‘ख़ान मार्केट गैंग’ पद नरेंद्र मोदी ने बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए गाली के तौर पर ईजाद किया। इसके पहले 2014 में वे इसी तरह के एक पद का आविष्कार कर चुके थे: ‘फ़ाइव स्टार एक्टिविस्ट’। उन्होंने न्यायाधीशों को चेतावनी दी थी कि वे फ़ाइव स्टार एक्टिविस्टों के दबाव में काम न करें।मोदी की इस चेतावनी के बाद से पिछले 10 सालों में मानवाधिकार संस्थाओं और कार्यकर्ताओं पर राजकीय हमले हुए हैं, उनपर मुक़दमा किया गया है और उन्हें जेल में डाला गया है।
ख़ान मार्केट गैंग क्या है? सभा के वक्ताओं के अनुसार, कुलपति उनमें शामिल थे, यह उन लोगों का गिरोह है जो भारत को बदनाम कर रहे हैं, उसके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार कर रहे हैं। कुलपति ने कहा कि बतलाया जा रहा है कि जनतंत्र सूचकांक पर भारत नीचे खिसकता जा रहा है। भला इससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है? उसी तरह जो देश 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त खाना खिला रहा हो उसके बारे में यह कहना कितना सही है कि वहाँ भुखमरी बढ़ती जा रही है?
नोबेल पुरस्कार विजेता प्रख्यात वैज्ञानिक वेंकी वेंकटरमण, अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन, रघुराम राजन, सलमान रश्दी, इतिहासकार रोमिला थापर,इरफ़ान हबीब, उमा चक्रवर्ती, लेखक अशोक वाजपेयी, नयनतारा सहगल जैसे लोगों को ख़ान मार्केट गैंग कहा जाता है। आरोप लगाया जाता है कि ये सब भारत को बदनाम कर रहे हैं।
“
अटल बिहारी वाजपेयी के शिक्षा मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने इन्हें बौद्धिक आतंकवादी कहा था। जोशीजी ने जिन्हें मार्ग का दर्शन कराया, उन नरेंद्र मोदी ने इन सबको ख़ान मार्केट गैंग कहा।
कुलपति को इस बात पर ख़ास एतराज था कि स्वीडन जैसे एक छोटे से देश की एक संस्था ‘वी डेम’ भारत में जनतंत्र के स्वास्थ्य के बारे में कोई राय दे। स्वीडन के इतने छोटे होने पर उन्होंने बार बार ज़ोर दिया। मानो आकार और आबादी में छोटा होना अपने आप में कोई छोटी बात है और आकार प्रकार में विशाल होना अपने आप विशालता का प्रमाण है। भारत जैसे विराट देश के बारे में ‘इतने छोटे देश’ की एक संस्था कैसे राय दे सकती है!
कुलपति ने इस पर विचार नहीं किया कि राजनीति शास्त्रियों ने, जो जनतंत्र का अध्ययन करते हैं, अभी तक ‘वी डेम’ पर सवाल नहीं उठाया है। उसी तरह अभी तक दुनिया भर के विशेषज्ञों ने भूख के सूचकांक या प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक या मानवाधिकार सूचकांक पर कोई संदेह नहीं किया है। इन पर हमेशा सरकारें ही एतराज करती हैं क्योंकि ये सूचकांक उन्हें आईना दिखलाते हैं।
“
विश्वविद्यालय विशेषज्ञों का जमावड़ा है। वहाँ अगर विशेषज्ञता को साज़िश कहा जाए तो चिंता होनी चाहिए। अगर विशेषज्ञों, शोधार्थियों पर विश्वविद्यालय में ही हमला होने लगे और उस हमले में अगर कुलपति ही शामिल हो जाए तो ज्ञान के व्यापार का क्या होगा!
इस कार्यक्रम के बैनर को देखकर ही मालूम हो गया था कि यह भाजपा का प्रचार कार्यक्रम है। यह प्रचार पिछले 10 सालों में अनेक तरीक़ों से विश्वविद्यालय कर रहे हैं। भाजपा का प्रचार और राष्ट्र हित एक नहीं है।
कुलपति ने लोगों को तटस्थता छोड़कर राष्ट्र हित चुनने को कहा। राष्ट्र हित अलग-अलग तरीक़े से सिद्ध किया जाता है। किसान फसल उगा कर, मज़दूर उत्पादन करके, डॉक्टर स्वास्थ्य का संरक्षण करके, नर्स मरीज़ों की देखभाल करके राष्ट्र हित सिद्ध करते हैं।
वक़्त-बेवक़्त से और खबरें
विश्वविद्यालय का काम ज्ञान का सृजन और उसका विस्तार है। दुनिया में हर जगह और हर समय यही माना गया है कि ज्ञान हमेशा सवाल पूछने से आगे बढ़ता है। जो स्थापित है और अधिकारियों द्वारा स्वीकृत है उसका प्रचार ज्ञान नहीं है। स्टालिन के कहे को ज्ञान की तरह प्रसारित करके तत्कालीन सोवियत संघ के विश्वविद्यालयों ने राष्ट्र का हित नहीं किया था, उसके ख़िलाफ़ काम किया था। उसी तरह सांस्कृतिक क्रांति के समय माओ की आज्ञा लागू करके चीन के विश्वविद्यालयों ने जब अध्यापकों, शोधार्थियों को बाहर किया तो वे राष्ट्र हित में काम नहीं कर रहे थे।अभी अमरीका या यूरोप में फ़िलिस्तीन के समर्थन को अपराध घोषित करके वहाँ के विश्वविद्यालय राष्ट्र हित में काम नहीं कर रहे हैं।
अपनी राय बतायें