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आप ने हिंदुत्ववादी वोटर तैयार किए:नतीजा सामने है

दिल्ली विधान सभा के चुनाव के नतीजे का दिन था। संवैधानिक मूल्यों के लिए जीवन भर काम करनेवाले  प्रोफ़ेसर उपेन्द्र बक्षी पर केंद्रित कार्यक्रम में भाग लेने घर से निकले थे। भाई वीर सिंह मार्ग पर एक जगह ट्रैफ़िक धीमा हुआ।भारतीय जनता पार्टी के झंडे लिए लोग ढोल बजा रहे थे। “बी जे पी आ गई।”, ड्राइवर ने कहा।” क्या आपको अच्छा लगा? “ मैंने पूछा। ड्राइवर खामोशी से गाड़ी चलाती रही। “कोई आ जाए…”, मेरे दुबारा पूछने पर हल्के से बोली।  “बी जे पी तो नफ़रत फैलाती रहती है।”, मैंने कहा। उसने सहमतिपूर्वक इस बात को दुहराया। लेकिन फिर बोली: “कोई आ जाए, हमें क्या!”
ज़ाहिर है, वह अनजान सवारी के सामने दिल नहीं खोलना चाहती थी।लेकिन यह बात उसने मानी कि भाजपा नफ़रत फैलाती रहती है। लेकिन मैं सोचने लगा, इस काम में आम आदमी पार्टी ने भी तो कोताही नहीं बरती थी। चुनाव के ठीक पहले दिल्ली सरकार ने स्कूलों को आदेश जारी किया था कि बांग्लादेशी और रोहिंग्या बच्चों को दाख़िला बिलकुल न दिया जाए और यह निश्चित करने के लिए उनके काग़ज़ात की सख़्त जाँच की जाए। वह इतना क्रूर फ़ैसला कर सकती है, यह देख कर उसके बहुत सारे समर्थक भी स्तब्ध रह गए थे। यह फ़ैसला संविधान के खिलाफ़ था। भारत की धरती पर रह रहे हर व्यक्ति को इज्जत से जीने का अधिकार है और उससे उसे वंचित नहीं किया जा सकता। लेकिन ‘आप’ सरकार ने यह किया। इतना ही नहीं उसने भाजपा पर यह कहकर हमला बोला कि उसने रोहिंग्या शरणार्थियों को जगह देकर दिल्ली वालों के संसाधन उनसे छीन लिए हैं। वह बार बार कहती रही कि भाजपा रोहिंग्या लोगों को दिल्ली में बसा रही है।
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भाजपा पिछले कुछ सालों से विपक्षी दलों पर आरोप लगाती रही है कि वे बांग्लादेशी और रोहिंग्या लोगों को देश में बसा रहे हैं। ‘आप’ ने सोचा कि इस आरोप को पलट कर भाजपा पर ही जड़ दें। उसके कई समर्थकों ने कहा कि यह एक बहुत चतुर हिकमत है। आप  स्कूल के दरवाज़े बच्चों के मुँह पर बंद कर सकते हैं, इससे आपके स्वभाव की क्रूरता का पता चलता है। लेकिन ‘आप’ के नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनके लिए यह राजनीतिक ज़रूरत थी।
दो साल पहले जहाँगीर पुरी में रामनवमी के दौरान हुई हिंसा के बाद भी ‘आप’ ने बुलडोज़र चलाने का विरोध नहीं किया था बल्कि यह कहा था कि दंगे फैलाने के लिए भाजपा रोहिंग्या और बांग्लादेशी लोगों को बसा रही है।
रोहिंग्या और बांग्लादेशी वास्तव में मुसलमान के लिए भाजपा के कूट शब्द हैं। सीधे मुसलमान कहने की जगह 'बाहरी', घुसपैठिया', 'नाजायज़' कहा जाता है। भाजपा भी यही कहती है जो 'आप' कह रही है, कि वह तो मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं, रोहिंग्या और बांग्लादेशी लोगों के ख़िलाफ़ हैं जो भारतीयों का हक़ मार रहे हैं।
‘आप’ ने यह न सोचा कि ऐसा करके वह भाजपा की राजनीतिक विचारधारा और उसकी राजनीतिक भाषा, दोनों को जायज़ ठहरा रही है। यह वह पहली बार नहीं कर रही थी। कोविड महामारी के दौरान ‘आप’ के मंत्रियों ने तबलीगी जमात पर आरोप लगाया कि उसके लोग दिल्ली और देश में कोरोना संक्रमण फैला रहे हैं। यह पूरी तरह झूठ था लेकिन रोज़ रोज़ ‘आप’ के मंत्री और पदाधिकारी बयान देते रहे कि दिल्ली में तबलीगी जमात के जलसे से कोरोना संक्रमण पूरे देश में फैला। इस बयान से पूरे भारत में मुसलमानों के बहिष्कार और उनके खिलाफ हिंसा की कई घटनाएँ हुईं। ये सब मुसलमान 'आप' के वोटर थे।'आप' अपने वोटरों के ख़िलाफ़ हिंसा उकसा रही थी।
रिंकू शर्मा नामक एक युवक की हत्या के बाद 'आप' ने उसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की। मनीष सिसोदिया ने भी बयान दिया कि उसकी हत्या ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने की वजह से हुई और पूछा कि अगर भारत में ‘जय श्रीराम’ का नारा नहीं लगेगा तो क्या पाकिस्तान में लगेगा। उन्होंने कहा कि चूँकि दिल्ली पुलिस भाजपा की संघीय सरकार के पास है, वह इस हत्या के लिए ज़िम्मेवार है। 
बीसियों उदाहरण हैं कि ‘आप’ ने मतदाताओं को यह समझाने के लिए हर जतन  किया कि उसे हिंदुत्व की विचारधारा से कोई परेशानी नहीं है। वह सक्रिय रूप से मुसलमानों या ईसाइयों का खून नहीं बहाएगी लेकिन अगर ऐसा हुआ तो वह उसका विरोध भी नहीं करेगी। नागरिकता के क़ानून में संशोधन के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन पर हुई हिंसा पर उसकी ‘समझदार’ खामोशी की सबको याद है। लेकिन उसके साथ अरविंद केजरीवाल के इस बयान की भी याद है कि शाहीन बाग आंदोलन के लिए भाजपा ज़िम्मेवार है। उनके हाथ पुलिस होती तो वे 3 दिन में  सड़क ख़ाली करवा देते।
उत्तर पूर्वी दिल्ली में हिंसा के बाद वहाँ ‘आप’ के एक मुसलमान पदाधिकारी से बातचीत की याद है। बाबरपुर में हिंसा की आशंका के दौरान उन्होंने पार्टी के उच्च पदाधिकारियों से संपर्क की कोशिश की लेकिन उनके फ़ोन का कोई जवाब नहीं आया। हिंसा के बाद के पीड़ितों को राहत दिलाने में भी ‘आप’ सरकार की हिचकिचाहट की हमें याद है। इससे बड़ी अनैतिकता क्या हो सकती है कि आप अपने समर्थकों की जान की हिफ़ाज़त के लिए खड़े भी न हो सकें! अपने पार्षद ताहिर हुसैन से उसने जिस तरह पल्ला छुड़ाया, उस पर अभी बात नहीं हुई है। 
अयोध्या में ध्वस्त की गई बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर बनाए गए राम मंदिर की यात्रा के लिए विशेष व्यवस्था करके ‘आप’ ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किए जाने के अपराध को जायज़ ठहराया। ख़ुद अरविंद केजरीवाल अयोध्या में इस मंदिर का दर्शन करने गए। ‘वायर’ की एक रिपोर्ट से मालूम हुआ कि दिल्ली में विश्व हिंदू परिषद के त्रिशूल वितरण कार्यक्रम में ‘आप’ के नेता शामिल हुए।
मुसलमान ‘आप’ के पक्के वोटर रहे हैं। लेकिन ‘आप’ को अपने वोटरों के ख़िलाफ़ हिंसा का मुखर और मौन समर्थन में कोई दुविधा नहीं हुई। 
‘आप’ के पास 10 साल थे। इस बीच उसने किस तरह के वोटर तैयार किए? भाजपा तो हिंदुत्ववादी वोटर तैयार कर रही थी। ‘आप’ ने भी हिंदुत्ववादी वोटर तैयार किए। ‘सनातन सेवा समिति’ का गठन या पुजारियों को वेतन देने का ऐलान या ‘सुंदर कांड के हफ़्तावर पाठ की योजना या स्कूल में कट्टर  देशभक्त पाठ्यक्रम के माध्यम से हिंदुत्ववादी मतदाता ही तो तैयार किए जा रहे थे। इन मतदाताओं को ‘आप’ की जगह भाजपा को वोट देने में उज्र क्यों होता? क्या वे सिर्फ़ सड़क, पानी, बिजली और स्कूली इमारतों के लिए ‘आप’ के साथ रहते? उस मामले में भी उन्हें भाजपा के साथ जाने में फ़ायदा दिख रहा था जिससे संघीय सरकार और राज्य सरकार के बीच की रोज़ रोज़ की किचकिच से भी वे बच जाएँ और उन्हें सारी सुविधाएँ बिना किसी बाधा के मिलें। भाजपा ने यह तो कह ही दिया था कि पिछली सरकार की सारी योजनाओं को वह जारी रखेगी। फिर वे ‘आप’ के साथ क्यों रहें?
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कई मित्र ‘आप’ के नैतिक पतन पर अफ़सोस कर रहे हैं। वे भूलते हैं कि ‘आप’ का जन्म ही राजनीति में नीति विहीनता के उसूल  की वकालत के साथ हुआ था। इंसानी जीवन में पानी बिजली सड़क के अलावा कुछ नहीं और अगर कुछ है तो राजनीति को उससे कोई मतलब नहीं, यह ‘आप’ और उसके समर्थकों ने पार्टी की स्थापना के समय किया।लेकिन उसने 10 सालों में हिंदुत्ववादी नैतिकता की राह हमवार की। इस राह पर चलते हुए मतदाता ‘आप’ की जगह भाजपा के पास पहुँचे तो क्या ताज्जुब?
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अपूर्वानंद
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