वह मुल्क कैसा मुल्क है जहाँ किसी को अपनी ज़मीन में ही दफ़्न होने की इजाज़त न हो और वे लोग कैसे लोग हैं जो अपने गाँव के ही एक आदमी को अपने पुरखों के बग़ल में मिट्टी देने से रोकें? वह मुल्क कैसा है जहाँ लोगों को भली बातें बतलाने के लिए किसी को 5 साल की क़ैद की सज़ा सुनाई जाए क्योंकि वह ईसाई है? इस मुल्क का नाम भारत है। क्या हम भारत के लोग अपने इस मुल्क को पहचानते हैं?
75 साल पूरा करने के मौक़े पर भारतीय गणतंत्र की सूरत कैसी नज़र आती है? 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस के ठीक पहले की इन दो खबरों और एक रिपोर्ट से मालूम पड़ता है कि हमारा गणतंत्र बीमार है। एक खबर छत्तीसगढ़ की है और दूसरी उत्तर प्रदेश की। ये दोनों खबरें ईसाइयों पर उत्पीड़न और उन्हें अधिकार विहीन करने की हैं। रिपोर्ट ईसाइयों के एक संगठन की है जिसने ईसाइयों के ख़िलाफ़ हिंसा की घटनाओं की फ़ेहरिस्त जारी की है और उन पर चिंता ज़ाहिर की है।
यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम की इस रिपोर्ट के मुताबिक़ 2014 में ईसाई समुदाय पर हमलों की प्रकट संख्या 127 थी जो 2024 में 834 तक पहुँच गई है। 149 शारीरिक हिंसा के 149, ईसाई संपत्ति पर हमले के 209, धमकी, प्रताड़ना के 798, प्रार्थना और धार्मिक कार्यक्रमों पर हमलों के 331 मामले फोरम दर्ज कर पाया है। इनमें सिर्फ़ 392 मामलों में पुलिस ने एफ़ आई आर दर्ज की। इससे यह भी मालूम होता है कि ईसाइयों पर हिंसा को अपराध मानने में भारतीय पुलिस को कितनी हिचक है।
राष्ट्रपति द्रौपदी मूर्मू के राज्य ओड़िशा में एक ईसाई औरत को पेड़ से बांधकर मारने और उसका चेहरा बिगाड़ देने की खबर हम सबको मिली थी। ईसाइयों को पीटने, बेइज्जत करने की खबरें हर कुछ दिन पर उनके राज्य से मिलती रहती हैं। उस राज्य का मुख्यमंत्री ही एक ऐसे व्यक्ति को बनाया गया है जिसने ग्राहम स्टेंस और उनके बच्चों को जलाकर मार डालने वाले दारा सिंह को रिहा कराने का आंदोलन किया था।
इस गणतंत्र दिवस के पहले राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में राष्ट्रपति ने ईसाइयों पर हिंसा का कोई ज़िक्र नहीं किया है। संभवतः दस सालों में ईसाइयों पर हमलों की संख्या में इस अभूतपूर्व वृद्धि को वे अपनी सरकार की उपलब्धि नहीं मानतीं। वे इसे राष्ट्रीय चिंता का विषय भी नहीं मानतीं।
जिस मुल्क में ईसाइयों पर हमलों पर ईसाई ही चिंता करें और शेष समाज उसे न सुने न उस फ़िक्र को महसूस करे, वह कैसा मुल्क है? भारत के आज के प्रधानमंत्री भारत के बाहर ईसाइयों पर हिंसा को लेकर वक्तव्य ज़रूर जारी करते हैं लेकिन भारत में उनकी नाक के नीचे ईसाई पीटे जा रहे हैं, गिरिजाघरों पर हमले हो रहे हैं, बाइबल रखने और बाँटने के चलते ईसाइयों को मारा और गिरफ़्तार किया जा रहा है और वे ख़ामोश हैं। क्रिसमस के रोज़ वे दिल्ली के गिरिजाघर जाकर बाग़वानी की चर्चा करते हैं लेकिन ईसाई समुदाय जब अपने ऊपर हिंसा को लेकर उन्हें प्रतिवेदन देता है तो वे होंठ भींच लेते हैं।
आपने खबर सुनी होगी कि उत्तर प्रदेश की एक अदालत ने केरल के एक ईसाई दंपति को 5 साल की क़ैद की सज़ा सुनाई है। वायर की रिपोर्ट के मुताबिक़, “22 जनवरी को एससी/एसटी अधिनियम के विशेष न्यायाधीश रामविलास सिंह ने उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम की धारा 5 (1) के तहत दोषी ठहराते हुए जोस पापाचेन और उनकी पत्नी शीजा को पाँच साल की कैद और 25-25 हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई।
न्यायाधीश सिंह ने दम्पति को पूर्वी उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर के शाहपुर फिरोज गांव में गरीबी से त्रस्त दलितों को हिंदू से ईसाई बनाने के लिए प्रलोभन देने का दोषी ठहराया। अदालत ने कहा कि दंपत्ति बाइबिल की शिक्षा देते थे, ईसा मसीह के बारे में प्रचार करते थे, धार्मिक पुस्तकें वितरित करते थे, क्रिसमस पर भंडारे (भोज) आयोजित करते थे और दलितों को धन और अन्य प्रलोभन देते थे और उन्हें धर्मांतरित करने के लिए ईसा मसीह का अनुसरण करने के लिए कहते थे।”
न्यायाधीश सिंह ने यह फ़ैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस निर्णय के बावजूद दिया जिसमें उसने कहा था कि भाजपा अधिकारी की
एफ़ आई आर स्वीकार ही नहीं की जा सकती क्योंकि वे किसी तरह पीड़ित या प्रभावित व्यक्ति नहीं हैं। किसी दलित ने रिपोर्ट नहीं दर्ज करवाई। बल्कि जिन दलितों की तरफ़ से अदालत ने यह फ़ैसला सुना दिया, प्रायः उन सबके बयान हैं कि पापाचेन और शीजा उन्हें अच्छी बातें बतलाते थे, आपस में मिलजुल कर रहने को कहते थे, शिक्षा के लिए प्रेरित करते थे और शराब से दूर रहने को कहते थे। वे उन्हें ईसा की तस्वीर और बाइबिल देते थे और प्रार्थना में उन्हें शामिल करते थे।
यह सारा कुछ किस तरह अपराध है, समझना मुश्किल है।ट्रेन, बस में और सड़क पर अक्सर कुछ लोग गीता बाँटते हुए मिल जाते हैं। क्या उन्हें गिरफ़्तार कर लेना चाहिए? तो क्या इस मुल्क में गीता तो बाँटी जा सकती है लेकिन क़ुरान और बाइबिल नहीं? क्या इस देश में सिर्फ़ हिंदुओं को अपने धर्म का प्रचार करने की छूट है? अन्य धर्मावलंबी अगर ऐसा करें तो वे मुजरिम हो जाते हैं?
- यह एफ़ आई आर भारतीय जनता पार्टी के एक अधिकारी ने दर्ज कराई थी। उच्च न्यायालय ने साफ़ कहा कि वे किसी तरह प्रभावित नहीं हैं। क्या वे दलितों के अभिभावक हैं? जैसे भाजपा और आर एस एस के लोग राम के अभिभावक हो गए थे?
दूसरी खबर छत्तीसगढ़ की है। रमेश बघेल के पिता की मौत 7 जनवरी को हो गई। तब से उनका शव मुर्दाघर में रखा है क्योंकि गाँववाले क़ब्रिस्तान में उन्हें दफ़्न करने की इजाज़त नहीं दे रहे। पंचायत ने बघेल का साथ नहीं दिया। उच्च न्यायालय ने उनकी अर्ज़ी यह कहकर ख़ारिज कर दी कि इससे क़ानून व्यवस्था भंग हो सकती है। बघेल को सर्वोच्च न्यायालय आना पड़ा।अदालत ने कहा, "किसी गाँव में रहने वाले व्यक्ति को उसी गाँव में क्यों नहीं दफनाया जाना चाहिए? शव 7 जनवरी से मुर्दाघर में पड़ा है। दुख की बात है कि एक व्यक्ति को अपने पिता के अंतिम संस्कार के लिए सुप्रीम कोर्ट आना पड़ रहा है।"
अदालत ने आगे कहा, “हमें यह कहते हुए खेद है कि न तो पंचायत, न ही राज्य सरकार या उच्च न्यायालय इस समस्या का समाधान करने में सक्षम रहे। हम उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी से आश्चर्यचकित हैं कि इससे कानून-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होगी। न्यायाधीशों ने कहा, "हमें यह देखकर दुख हुआ कि एक व्यक्ति अपने पिता का अंतिम संस्कार नहीं कर पाया और उसे सर्वोच्च न्यायालय आना पड़ा।"
पंचायत, पुलिस और उच्च न्यायालय एक ईसाई के अधिकार को क़ानून व्यवस्था के नाम पर कुचलने को आमादा हैं। लेकिन इस मामले में भारत सरकार के सॉलिसिटर जेनरल तुषार नेहता ने जिस तरह दखल दिया, वह ज़्यादा फ़िक्र की बात है। जब अदालत ने कहा कि वह शव को दफ़्न करने का आदेश दे सकती है तो मेहता ने अदालत को ऐसा करने से मना किया। उनके मुताबिक़ रमेश बघेल की अपने पिता के शव को गाँव के क़ब्रिस्तान में दफ़्न करने की इच्छा एक बड़ी साज़िश का हिस्सा है, दुर्भावनापूर्ण क़िसी बड़े अभियान का अंग है।
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इस देश में किसी का ईसाई बनना बड़ी साज़िश है, ईसाई धर्म का प्रचार षड्यंत्र है: यह भाजपा कहे तो हमें समझ में आता है क्योंकि वह मुसलमान और ईसाई विरोधी है लेकिन इसे भारतीय राज्य भी मानने लगे और अदालतें भी, तब हमें ज़रूर चिंतित होना चाहिए। लेकिन वह चिंता कहीं दिखलाई नहीं पड़ती। क्या हममें से कोई ईसाइयों के इस अकेलेपन को महसूस करता है?
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