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मनमोहन सिंह के समय जनता शक्तिशाली थी, आज लाचार क्यों?

डॉक्टर मनमोहन सिंह की मृत्यु के बाद उनके जिन गुणों की सबसे अधिक चर्चा की जा रही है, वे हैं संयम, सभ्यता, शालीनता, सहनशीलता, स्थिरता और संवाद के गुण।यह सोचकर आश्चर्य होता है कि बहुत दिन नहीं हुए, हमारी राजनीति में और उससे भी अधिक हमारी सत्ता में ये गुण मौजूद थे। इन गुणों के कारण ही हम ख़ुद को जनतंत्र कह सकते थे। कोई समाज या देश तभी जनतंत्र कहा जा सकता है जब सत्ता में ये गुण हों।
Indian People were powerful during Manmohan Singh regime, today helpless - Satya Hindi
डॉक्टर मनमोहन सिंह की याद करते हुए लेकिन हमें क्षुद्रता, संकीर्णता, असहनशीलता और हिंसा की याद भी आती है। आख़िरकार यह कैसे भूला जा सकता है कि वे प्रधानमंत्री इसी कारण बने कि भारतीय जनता पार्टी और मीडिया ने देश का नेतृत्व करने के लिए सोनिया गाँधी के विदेशी मूल को लेकर आसमान सर पर उठा लिया था? यह परले दर्जे की क्षुद्रता और संकीर्णता थी। यह सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी में न थी।बहुत सारे धर्मनिरपेक्ष राजनेता सोनिया गाँधी के विदेशी मूल के कारण उनके ख़िलाफ़ थे।कई बुद्धिजीवी भी।कॉंग्रेस पार्टी के कई नेता तो इसी कारण पहले ही पार्टी छोड़ गए थे।
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सोनिया गाँधी ने अगर प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव ठुकराया तो इस कारण कि उन्होंने देखा कि उनके देश में उदारता की सख़्त कमी है और अभी वह पर्याप्त रूप से सभ्य नहीं हुआ है। लेकिन इसके लिए भी ज़िम्मेवार थे यहाँ के अभिजन।आप याद कर सकते हैं कि जब सुषमा स्वराज जैसी ‘भद्र महिला’ धमकी दे रही थी कि सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर वे सर मुँड़ा लेंगी, नंगे फ़र्श पर आजीवन सोएँगी और चने खाकर दिन बिताएँगी तो इसका मीडिया में और बड़े उद्योगपतियों या बुद्धिजीवियों की तरफ़ से दृढ़तापूर्वक विरोध नहीं किया गया था। यानी यह उचित मान लिया गया था कि सोनिया गाँधी पर इस तरह का हमला किया जा सकता है। अगर  उचित नहीं तो यह कि यह स्वीकार्य राजनीतिक रणनीति है और कॉंग्रेस को पीछे धकेलने के लिए यह तरकीब अपनाई जा सकती है।
इस घटना से हमें यह मालूम पड़ता है कि भारतीय जनता पार्टी की पराजय का अर्थ यह न था कि भारत में संकीर्ण हिंदू राष्ट्रवाद की पराजय हुई थी।बल्कि हिंदू राष्ट्रवाद एक प्रकार से हर दल में मौजूद था, कॉंग्रेस भी अपवाद न थी।भारतीय जनता पार्टी को भी इसीलिए और आक्रामक होने का मौक़ा मिला था।

2004 की जीत के लिए सोनिया गाँधी के नेतृत्व को श्रेय दिया गया लेकिन उन्हें सरकार चलाने के लिए इस वजह से अयोग्य पाया गया कि वे जन्मना भारतीय नहीं हैं। हम सारे लोग जो मूलतः अमरीकी या इंगलिश या कनाडा के नहीं, ख़ुद को उन देशों के नेतृत्व के लिए योग्य उम्मीदवार मानते हैं लेकिन भारत में किसी अभारतीय मूल को प्रथम अयोग्यता माना लेते हैं। 

सोनिया गाँधी ने यह देखा। भारतीय मन का संकुचन देखा और उसकी सीमा समझी। उन्हीं ने मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री के लिए प्रस्तावित किया। यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता थी कि उन्होंने एक घुटे हुए राजनेता पी वी नरसिम्हाराव का नाम प्रस्तावित नहीं किया और न प्रणव मुखर्जी का। नरसिम्हाराव का चरित्र 6 दिसंबर, 1992 को उजागर हो गया था और प्रणव मुखर्जी की वैचारिक नम्यता कुछ समय बाद ज़ाहिर होनेवाली थी। अगर इस लिहाज़ से देखें तो मनमोहन सिंह का चुनाव राजनीतिक परिपक्वता का प्रमाण था।
 कहना कठिन है कि क्या उस वक्त वे यह भी सोच रही थीं कि मनमोहन सिंह का चयन एक तरह से 1984 में कॉंग्रेस सरकार और पार्टी के सिखों के साथ किए गए अन्याय का परिमार्जन है। वह एक ऐसा अध्याय है जिसपर कॉंग्रेस पार्टी को अलग से अधिवेशन करके प्रायश्चित करने की आवश्यकता है। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि 31 अक्टूबर, 1984 के बाद सिखों के संहार को रोकने के लिए उसने कारगर कदम नहीं उठाया बल्कि उससे ज़्यादा इसलिए कि उसने उसके बाद के 1984 के लोक सभा चुनाव में एक ख़तरनाक बहुसंख्यकवादी प्रचार किया।
इत्तफ़ाक़ था कि 1984 की सिख विरोधी हिंसा की 20वीं बरसी वाले साल एक सिख प्रधानमंत्री बन रहा था।यह विडंबना ही थी कि मनमोहन सिंह को एक सिख के रूप में पहचाना जा रहा था।इसके पहले उनकी यह पहचान न थी। वे अर्थशास्त्री ही थे जो मज़हब इत्तफ़ाक़न सिख थे।फिर भी इस संयोग ने कॉंग्रेस पार्टी को मौक़ा दिया कि वह सिख विरोधी हिंसा में अपनी भूमिका का प्रायश्चित आरंभ करे। क्या वह प्रायश्चित पूरे और सच्चे मन से किया गया या इसका इंतज़ार किया गया कि उस पर वक्त की धूल मिट्टी जम जाए?
डॉक्टर सिंह को इस सामाजिक और राजनीतिक क्षुद्रता के बीच संसदीय सभ्यता और शालीनता को फिर से स्थापित करना था।अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली सरकार में अटल का ही नाम था। उसके बाद फिर से कैबिनेट की महत्ता को स्थापित करना एक दुष्कर कार्य था जो डॉक्टर सिंह ने किया। अटल के बाद उन्होंने बतलाया कि वास्तव में प्रधानमंत्री का काम होता क्या है। वह है देश और जन के हित के लिए नीतियाँ बनाते वक्त विविध प्रकार के विचारों को एक मेज़ पर लाएँ। विचारों से समाजवादी माने जाने वाले नेहरू ने भारत के विकास के लिए योजना बनाते वक्त सोवियत और अमरीकी, विभिन्न प्रकार के अर्थशास्त्रियों को साथ बिठलाया।
उनकी समझ थी कि अलग-लग विचार के होने के बावजूद अगर वे ईमानदार अर्थशास्त्री हैं तो वे भारत की जनता के हित में जो सर्वोत्तम होगा, वही राय देंगे। उसी तरह आर्थिक रूप से दक्षिणपंथी माने जाने वाले डॉक्टर सिंह ने वामपंथियों के साथ काम किया। उन्होंने व्यापकतम सहमति बनाने की कोशिश की जो जनतंत्रीय तरीक़ा है। यह लोग भूल गए हैं कि डॉ सिंह के वक्त भाजपा ने संसदीय इतिहास में सबसे अधिक बार संसद को बाधित किया, उसे चलने नहीं दिया।इसके बावजूद डॉक्टर सिंह ने साधारण जन को अधिकारसम्पन्न करने के राज्य के दायित्व को पूरा करने की हर संभव कोशिश की।
2009 में शुरू हुई डॉक्टर सिंह की सरकार दूसरी पाली तुरत संकटों में घिर गई। 2010 में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन के ज़रिए किस तरह समाज में घटियापन, पाखंड, झूठ, उग्रता को किस तरह वापस लाया गया, अभी तक हमने इस दृष्टि से इस आंदोलन पर विचार नहीं किया है। विडंबना यह है कि इस आंदोलन में शिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग ने भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया जिसे सबसे अधिक ज़रूरत धीमेपन, स्थिरता की है। समाजवादियों और वामपंथियों से मनमोहन सिंह के उदारवादी अर्थशास्त्र के विरोध के लिए एक स्पष्ट रूप से दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी आंदोलन ने जाना ग़लत नहीं समझा। इसे जिस तरह भारत के कारपोरेट जगत, कारपोरेट मीडिया का उत्साहपूर्ण समर्थन मिला क्या उसका कारण यह था कि आर्थिक उदारीकरण के बाद अबाधित मुनाफ़ा कमाने के रास्ते में अब डॉक्टर सिंह रुकावट जान पड़ने लगे थे?

पूँजी की भूख अब इतनी विकराल हो गई थी कि उसे जल, जंगल, ज़मीन: सब कुछ चाहिए था और डॉक्टर सिंह की सरकार के क़ानून उसके आड़े आ रहे थे? पूँजी अब डॉक्टर सिंह की इस नीतिगत सभ्यता और शालीनता से ऊब चुकी थी। उस एक ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो क्रूरतापूर्वक जनता और देश को पूँजी के हवाले कर दे। वह खोज पहले से चल रही थी। पूँजी की निगाह गुजरात की तरफ़ थी।


एक ऐसा व्यक्ति जो जनता की सबसे घटिया मनोवृत्ति को जगाकर उसके भीतर की हिंसा का प्रतिनिधित्व करे, उसकी घृणा और हिंसा को उकसाकर जनता के ही एक हिस्से के ख़िलाफ़ करे और उसे इस प्रकार व्यस्त रखकर पूँजी सब कुछ हड़प कर जाए। यह काम एक ही आदमी कर सकता था। पूँजी ने और भारत के अभिजन ने उस व्यक्ति को विकास पुरुष का भेस दिया। 
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जनता के गुजरात के विकास पुरुष को चुना उसके पहले उसे पूँजी और भारत का अभिजन अपना चुका था।क्या हमने इस पर विचार किया है कि भारत के अभिजन किस तरह डॉक्टर सिंह की सरकार की ‘व्यर्थ’ शालीनता से अधीर हो उठे और उनकी जगह उन्होंने जान बूझ कर क्षुद्रता, उग्रता, हिंसा और क्रूरता को अपनाया? आज डॉक्टर सिंह की मौत के बाद हमें उस अतीत की याद आ रही है जब समाज में शुभ भावों का प्रभुत्व था। आज उनका पुनर्वास कितना कठिन जान पड़ रहा है?  डॉक्टर सिंह के समय जनता शक्तिशाली थी, आज वह कितनी निःशक्त और लाचार नज़र आती है?
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अपूर्वानंद
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