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पूजा के समय का हिन्दू और उसके बाद वाला हिन्दू

हिंदुओं के साथ क्या हो रहा है? वे अपने साथ क्या कर रहे हैं? या बेहतर यह पूछना होगा कि वे अपने साथ क्या होने दे रहे हैं? दुर्गा पूजा से बेहतर और कौन सा अवसर है जब यह सवाल किया  जाए? यह लिखते ही मन में प्रश्न उठा कि क्या देवी के समक्ष जाने पर किसी प्रकार का हिंदू भाव जाग्रत होता है।पूजा के समय हम क्या ख़ुद को अधिक हिंदू महसूस करते हैं? सवाल ज़रा अटपटा मालूम पड़ सकता है लेकिन किया ही जा सकता है कि देवी के समक्ष हम देवी के आराधक हैं या हिंदू हैं? 
किस क़िस्म के हिंदू? हमारे हिंदू भाव का मूल्य क्या है? क्या दशहरा में उसपर पड़ी धूल गर्द थोड़ी साफ़ हो पाती है? यह सारे सवाल तभी किए  जा सकते हैं जब हम ईमानदारी से, पूरी तरह सिर्फ़ अपने साथ हों।अपने  साथ होने का अर्थ क्या है? जब हम ख़ुद ही अपने गवाह हों। एक दूसरा ईश्वर अवश्य है जो हमें ख़ुद को देखते देखता है और इसका अहसास भी हमें रहता है। यह हमें संकुचित करता है या इत्मीनान देता है? भय या आश्वस्ति :कौन सा भाव इस क्षण प्रबल है? 
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ऐसे पवित्र अवसरों पर हम अपने चित्त को शुद्ध करना चाहते हैं, कुछ भीतर झाँककर देखना चाहते हैं, आत्मस्थ होना चाहते हैं। हम यह भी चाहते हैं कि इस संसार से, जो हमें चारों तरफ़ से जकड़े हुए है, हम कुछ अलग हो पाएँ। इसलिए धार्मिक अवसरों पर हम अपने लिए एक पवित्र एकांत की रचना करते हैं।ऐसा एकांत जिसमें ख़ुद और ईश्वर के अलावा और कोई न हो।ईश्वर के समक्ष हम आत्मस्वीकृति करते हैं, बेहतर बनने का संकल्प लेते हैं।हम अपनों की, अपने दुनिया के भले की प्रार्थना करते हैं। मैंने अपनी अम्मी को दशहरे में अपने पूजास्थल में बंद आँखों के साथ प्रार्थना बुदबुदाते देखा है।वह अपने बच्चों, बाद में उनके परिवारों  की हिफ़ाज़त की कामना करती थी, यह समझ पाता था। जानता था उन बंद पलकों के भीतर आँसू हैं। आशंका के और आशा या अपेक्षा के। क्या प्रार्थना सुनी जाएगी? 
उसके साथ यह भाव भी रहता ही होगा कि क्या मुझमें इस प्रार्थना और उसे सुने जाने की पात्रता भी है? क्या देवी मेरी अर्चना स्वीकार करेंगी या ठुकरा देंगी? इस आशंका से मन थरथराता रहता है।अपनी अपर्याप्तता का बोध इन एकांत क्षणों में जाग उठता है जिसे हम दूसरों के सामने कभी प्रकट नहीं होने देते। लेकिन क्या सर्वज्ञ से यह छिपा रह सकता है? तो क्या वह इतनी उदार नहीं कि इसके बावजूद आराधक को अपना प्रसाद दे? या वह इतनी कठोर होगी कि अंतिम क्षण तक उसकी परीक्षा ले ?
तो इस आध्यात्मिक माने जानेवाले क्षण में एक तरह की सांसारिकता तो होती ही है। हम जब ईश्वर, देवी से कुछ माँगते हैं तो वह सांसारिक इच्छा ही तो है।क्या हम निष्प्रयोजन आराधना कभी करते हैं या कर पाते हैं? ’राम की शक्तिपूजा’ का ध्यान हो आता है। क्यों राम दुर्गा की आराधना करते हैं? क्यों जाम्बवान राम को आराधन का दृढ़ आराधन से उत्तर देने की सलाह देते हैं? जितनी बड़ी तपस्याओं या आराधनाओं की कथाएँ हम पढ़ते हैं सबके पीछे किसी वरदान की अपेक्षा है। कला के मामले में हम कहते हैं कि हम जब कृति के समक्ष निष्प्रयोजन जाएँ तब हमें वास्तविक सौंदर्य की उपलब्धि होती है।लेकिन क्या ऐसी निष्प्रयोजनता वास्तविक अर्थ में ऐसे पवित्र या धार्मिक क्षणों में रहती है? या किसी न किसी तरह का लेन देन का भाव बना  रहता है? 
लेन देन और लेन देन में फ़र्क है।एक वह जिसमें माँगनेवाला अपने दायरे से निकल नहीं पाता। दूसरा जिसमें माँगना सिर्फ़ अपने लिए नहीं होता। या माँगना अपने भीतर न्याय और अन्य के प्रति सहानुभूति के लिए दृढ़ता और उदारता  की याचना है। किसी प्रलोभन के आगे कमजोर न पड़ने की भी । गाँधी के उपवास एक प्रकार की आराधना ही थे। ईश्वर से उनकी माँग भी सांसारिक ही थी। लेकिन वह माँग गाँधी को छोटा नहीं बड़ा बनाती थी। ऐसी माँग जिसके पूरा न होने पर ईश्वर को ही हीनता का अनुभव हो।
आराधना के इन क्षणों को देखते हुए, अपनी अम्मी  को या फिर नमाज़ पढ़ते हुए मुसलमानों को देखता हूँ तो हमेशा एक ख़याल आता है कि यह एक ऐसा क्षण है जिसमें मनुष्य पूरी तरह निष्कवच और वेध्य होता है।वह ख़ुद को पूरी तरह ईश्वर को सौंप देता है।जैसे गाँधी भी पूर्णतया निष्कवच और वेध्य थे।अपने आप को लेकर किसी प्रकार की सावधानी नहीं।ख़ुद को पूरी तरह ईश्वर के सुपुर्द कर देना। 
  • एकांत के साथ हम पवित्र सामूहिकता  की भी रचना करते हैं।पूजा के पंडाल का निर्माण, साथ मिलकर दुर्गा की प्रतिमा की स्थापना से लेकर 9 दिनों तक उनकी आराधना के दौरान एक सामुदायिकता का निर्माण किया जाता है। आप कह सकते हैं कि यह हिंदू सामुदायिकता है। आम तौर पर हिंदूओं में सामूहिक आराधना की परंपरा नहीं है। मुसलमानों या ईसाइयों में है। इनकी सामुदायिकता को इसीलिए हिंदू  संदेह की नज़र से देखते हैं क्योंकि हिंदुओं में धार्मिकता और सामूहिकता का संबंध नहीं है। कुंभ जैसे मेलों  में या तीर्थ यात्राओं में उसे देखा जा सकता है लेकिन वह हिंदुओं के लिए कुछ अजनबी सी है। 
पिछले कुछ समय से कोशिश की जा रही है कि एक स्थिर हिंदू सामुदायिकता का निर्माण किया जाए। वह एक प्रकार की ईर्ष्यालु और संदेहपूर्ण प्रतियोगिता की भावना से  संचालित है। हिंदू सामूहिकता को मुसलमान या ईसाई सामूहिकता के बरक्स निर्मित किया जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी शाखाओं में एक सामूहिकता का निर्माण करता है। लेकिन उसकी प्रेरणा धार्मिक या आध्यात्मिक नहीं, राजनीतिक या सामाजिक है। वह हिंदुओं का संख्या निर्माण है, उसका संगठन है।
  • आर एस एस जिस संगठन में शक्ति की बात करता है उसका लक्ष्य शांति नहीं है। 

अब यह संगठन या सामूहिकता शाखा से बाहर भी दीखती है। लेकिन हर जगह प्रतियोगी ही। अगर मुसलमान नमाज़ पढ़ रहे हैं तो वहाँ हिंदुओं की भीड़ इकट्ठा होकर हनुमान चालीसा पढ़ने लगती है।किसी मस्जिद को गिराने की माँग को लेकर हिंदू इकट्ठा हो जाते हैं। अगर मुसलमान होटल खोले तो उसे बंद कराने हिंदू इकट्ठा हो जाते हैं। क्या यह कहना ठीक न होगा कि  हिंदुओं की सामूहिकता लगभग हमेशा किसी के विरुद्ध निर्मित की जाने लगी  है? कहा जा सकता है कि यह हमेशा सच नहीं। हरेक स्थिति पर यह बात लागू नहीं होती। लेकिन क्या यह सच नहीं कि हिंदू पर्व त्योहार, जो हिंदू सामूहिकता के निर्माण के अवसर हैं, अब दूसरे धार्मिक समुदायों के लिए भय और आशंका के अवसर हो गए हैं? 
बिहार के एक पूजा पंडाल में भारतीय जनता पार्टी के एक नेता ने तलवारें बाँटीं। क्यों? तलवार किसके ख़िलाफ़? कुशीनगर के पास एक जगह, जहाँ मुसलमानों की घनी बस्ती है, जबरन दुर्गा की प्रतिमा बैठाई गई और वहाँ से धमकी भरे भड़काऊ भाषण दिए गए। दुर्गा पूजा पर एक जगह गरबा समिति को अपना कार्यक्रम इसलिए रद्द करना पड़ा कि उसका एक सदस्य मुसलमान है और आर एस एस के लोग उसे हटाने की माँग कर रहे थे।
  • ज़ाहिर है यह हिंदू सामुदायिकता सिर्फ़ मुसलमानों से अलगाव पर आधारित है। दिल्ली विश्वविद्यालय के मॉरिस नगर में मुझे किसी हिंदू सम्मिलन की सूचना मिली जब लाउडस्पीकर पर उत्तेजक नारे सुने और उतना ही उत्तेजनापूर्ण भाषण भी। अगर यह दुर्गा पूजा है तो यह नारेबाज़ी किस लिए?निश्चय ही यह दुर्गा की आराधना नहीं है। यह दुर्गा की आड़ लेकर नए शत्रुओं पर आक्रमण है। वैसे ही जैसे देवताओं ने दुर्गा की आड़ लेकर महिषासुर पर आक्रमण किया और उसकी हत्या की।
अभी कुंभ के बारे में खबर पढ़ी। कुंभ को हिंदुओं की सबसे बड़ी सामूहिकता का अवसर कह सकते हैं। जवाहरलाल नेहरू जैसे नास्तिक माने जाने व्यक्ति ने कुंभ की सामूहिकता का अत्यंत काव्यात्मक वर्णन किया है।लेकिन  अभी कुंभ की तैयारी के सिलसिले में हुई अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद की बैठक की चिंता का विषय था कुंभ से जुड़े शब्दों से उर्दूपन हटाना। शाही स्नान से शाही शब्द हटाना अभी उनकी सबसे बड़ी आध्यात्मिक चिंता है। इसके साथ ही ‘लव जिहाद’ जैसे ख़तरे पर भी परिषद ने विचार किया। उसने सरकार से सनातन धर्म की सेवा के पुरस्कार स्वरूप भारत रत्न देने की माँग की। ये सारे प्रसंग सांसारिक हैं। कुछ अलगाव और घृणा पैदा करनेवाले और कुछ अपने लिए सांसारिक सुख की प्राप्ति से जुड़े हुए। इनमें किसी पवित्रता का भाव कहाँ है? किसी आध्यात्मिकता की आकांक्षा कहाँ है? 
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विजया दशमी के जुलूस कुछ दिन बाद निकलेंगे। ये भी हिंदू सामूहिकता के नमूने हैं। पिछले 10 सालों में इस तरह के जुलूसों में धार्मिक संगीत नहीं होता, मुसलमानों को अपमानित करनेवाले गाने बजाए जाते हैं, धमकी भरे नारे लगाए जाते हैं। क्या यही वह आध्यात्मिकता है जो धार्मिक अवसरों से उत्पन्न होती है? हिंदुओं को इस पर विचार करना ही चाहिए कि उनकी सामूहिक आध्यात्मिकता का निर्माण किस प्रकार किया जाएगा।
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अपूर्वानंद
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