कुछ रोज़ पहले समाजशास्त्री सतीश देशपांडे का फ़ोन आया:“एक आश्चर्य की बात बतानी है। मुझे ‘दैनिक भास्कर’ ने जाति-जनगणना पर लेख लिखने को कहा है।” जाति के विषय पर अपने अध्ययन और शोध के लिए ख्यातिलब्ध समाजशास्त्री से कोई अख़बार लिखने को कहे, इसमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए? लेकिन सतीश को लिखने का न्योता पाकर ताज्जुब हुआ! मैं उन्हें आश्वस्त किया कि आज के वक्त भी कभी कभी ऐसा होता है कि अख़बार निष्पक्ष दिखना चाहते हैं। इसलिए वे ऐसे लेखकों से भी लिखने को कहते हैं जो आज की सरकार के आलोचक माने जाते हैं। दो रोज़ बाद सतीश से दुबारा बात हुई। “‘दैनिक भास्कर’ ने लेख छापने से मना कर दिया”, उन्होंने बतलाया। यह सुनकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। सतीश को लिखने के लिए कहना ही अपवाद था, उनका लेख छापने से मना कर देना आज की हिंदी पत्रकारिता के लिहाज़ से स्वाभाविक ही था।
हिंदी वाले हीनताबोध और हिंसा से क्यों भरे हैं?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 29 Mar, 2025

हिन्दी दिवस नजदीक है। 14 सितंबर को है। हिन्दी की दुर्दशा पर लंबी-लंबी बातें होना शुरू हो चुकी हैं। स्तंभकार और चिन्तक अपूर्वानंद का कहना है कि हिन्दी अभी तक ज्ञान की भाषा नहीं बन पाई है। हमारी युवा पीढ़ी हिन्दी अखबारों पर ज्ञान के लिए निर्भर नहीं है। हिन्दी अखबारों से मौलिक चिन्तन और विशेषज्ञों के लेख गायब हैं। ऐसे में हिन्दी की दुर्दशा स्वाभाविक है। टीवी चैनलों ने हिन्दी को सक्रिय घृणा और हिंसा के प्रचार की भाषा बना दी है।