“हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है हालाँकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं क्योंकि उन्हें ख़ूब लिखा जा रहा है। लेकिन हिंदी में अब सिर्फ़ 'जय श्रीराम' और 'वन्दे मातरम्' और 'मुसलमान का एक ही स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान' जैसी चीज़ें जीवित हैं। इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है। काश, मैं इस भाषा में न जन्मा होता।” मंगलेश डबराल की इस टिप्पणी के बाद उनपर चारों ओर से हमला हो रहा है। उन्हें बताया जा रहा है कि उनकी यह हताशा उनकी अपनी समस्या है। उन्हें हिंदी पर ऐसी नकारात्मक टिप्पणी लिखने के पहले प्रेमचंद, निराला, उग्र, महादेवी, आदि के साहित्य की याद दिलाई जा रही है। उनकी निराशा के लिए उन्हें दुत्कारा जाता रहा है। हिंदी में प्रतिरोध की परंपरा और विद्रोह या क्रांति की धारा का उल्लेख कर कहा जा रहा है कि ऐसी हिंदी में लिखने पर ग्लानि कैसे हो सकती है और क्योंकर!
हिंदी में परायापन क्यों महसूस कर रहे हैं मंगलेश डबराल?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 29 Jul, 2019

हिंदी का संचार माध्यम किसी दबाव में नहीं स्वेच्छापूर्वक बहुसंख्यकवादी है। हिंदी की स्कूली कक्षाओं में शुद्ध हिंदी के जो कीटाणु डाले जाते हैं वे शुद्ध रक्त और बाहरी दूषण से मुक्त राष्ट्र के विचार के वाहक हैं। हिंदी में शब्दों को तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज की जिन श्रेणियों में विभाजित किया जाता रहा है, वह क्या सिर्फ़ शब्दों का विभाजन है?