हम जैसे लोगों पर आरोप लगता है कि हम प्रायः नकारात्मक बातें ही करते हैं। हमें कुछ भी अच्छा नहीं दीखता। सकारात्मक रवैए की हमारे भीतर कमी है। सकारात्मकता की मांग प्रायः शक्तिशाली के वर्चस्व की स्वीकृति में बदल जाती है। मसलन, प्रधानमंत्री के जन्मदिन के मौक़े पर ढाई करोड़ टीके लगने के रिकॉर्ड पर सकारात्मकता प्रदर्शित करते हुए ताली बजाएँ या उस उत्सव के क्षण में भी यह नकारात्मक सवाल पूछना जारी रखें कि क्यों भारत के टीके का रोज़ाना औसत 50 से 60 लाख ही क्यों रहा है। अगर यह हमारा औसत है तो फिर प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर 2.5 करोड़ टीके एक दिन में कहाँ से आ गए? क्या इस दिन के लिए टीके जमा किए जा रहे थे? या अगर टीकाकरण की हमारी क्षमता इतनी बढ़ गई कि हम एक दिन में 2.5 करोड़ टीके दे सकते हैं तो फिर जन्मदिन का सूरज डूबते ही अगले दिन क्यों यह संख्या घटकर 64 लाख रह गई?