आज जो चीन के सम्पूर्ण बहिष्कार का नारा दे रहे हैं, वे कल तक अफ़सोस कर रहे थे कि चीन ने विकास की जो ऊँचाइयाँ हासिल कर ली हैं, हम उनके क़रीब भी क्यों नहीं पहुँच पाए हैं। कल तक ही क्यों वे आज भी चीन न बन पाने के दुःख से भरे हुए हैं। भारत सरकार की आलोचना करनेवाले हमवतन लोगों को ही वे धमकी देते हैं कि काश कि यह देश चीन होता तो फिर इन आलोचकों को आटे-दाल का भाव मालूम हो जाता। इन लोगों में चीन न हो पाने की कलक पिछले कुछ वर्षों में व्यक्त होती रही है।
दोनों ही स्थितियों में वीरता नामक भाव की कोई जगह नहीं है। या वह कभी थी ही नहीं। यानी पाकिस्तान के साथ पिछले दिनों जो हुआ उसमें भी मान लिया गया कि भारत ने वीरता दिखला दी है। पूरी दुनिया ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के भारत सरकार के दावों पर शक करती रही लेकिन सरकार अपना वीराख्यान सुनाती रही। जनता को राष्ट्रवाद के नाम पर उस गल्प को मान लेने पर मजबूर किया गया। लेकिन उस पूरे प्रकरण में जो रणनीतिक चूक हुई, उसे भी इस राष्ट्रवाद ने नज़रअंदाज़ कर दिया। पाकिस्तान ने भारत की वायु सीमा में घुसकर भारत के लड़ाकू विमानों पर हमला किया और एक को मार गिराया, एक पायलट को पकड़ लिया, इस तथ्य को इस राष्ट्रवाद ने विचारणीय ही नहीं माना। इसलिए इसे रणनीतिक या अवसरवादी राष्ट्रवाद कहा जा सकता है जिसका मूल तत्त्व चतुराई और कायरता है। यह वही चतुर कायरता है जो यह क़बूल नहीं कर रही कि चीन उस इलाक़े में घुसकर बैठ गया है जिसे कल तक भारत अपना मानता रहा था। इस राष्ट्रवाद के मुख्य प्रवक्ता के मुँह से इस पूरे प्रकरण में एक बार चीन शब्द न सुनकर भी इसके अनुयायी अपने नेता पर न्योछावर हैं कि वह कितना चतुर सुजान है।
चतुर सुजान वह है जो पीठ पर लगी धूल दीखने नहीं देता, वह नहीं जो पीठ को ज़मीन से लगने नहीं देता। लेकिन जो ऐसे को अपना नेता माने, उसका ख़ुद पाने बारे में क्या ख़याल है?
राष्ट्रवाद एक बुरी लत है, यह सारे सयाने कह गए हैं। लेकिन कुछ लोग ईमानदारी से इसमें गिरफ़्तार होते हैं, एक दूसरे क़िस्म के प्राणी वे हैं जो इस राष्ट्रवाद की क़ीमत देने के वक़्त दाएँ-बाएँ देखने लगते हैं।
इस अवसरवादी और कायर राष्ट्रवाद की चर्चा की प्रासंगिकता इतनी ही है कि इसे मालूम है कि चीन के मामले में वह पराक्रम का जोखिम नहीं ले सकता। लेकिन उसे ख़ुद को साबित करना है, सो प्रतीकात्मक विरोध से काम चलाने को वह बुरा नहीं मानता।
भारत का राष्ट्रवाद और चीन
भारत का यह राष्ट्रवाद चीन से काफ़ी कुछ सीखता रहा है। चीन ने तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर लिया और वह उसका चीनीकरण करने पर तुला है, यह सब जानते हैं। तिब्बत की स्वतंत्रता के प्रति उस भारतीय राष्ट्रवाद का क्या रुख़ है जिसकी चर्चा हम पहले कर आए हैं? दलाई लामा के शांतिवाद के प्रति उसके मन में कितना आदर है? वह मन ही मन चीन से ईर्ष्या करता है कि किस तरह उसने ग़ैर हान आबादियों पर हान प्रभुत्व स्थापित कर दिया है। चीन में ग़ैर हान समुदायों के साथ क्या व्यवहार किया जाता है, इसपर भारतीय मीडिया में बात नहीं होती। लेकिन वह बर्ताव वैसा ही है, जैसा भारत का बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद इस देश के अल्पसंख्यकों के साथ करता है। उसकी दबी इच्छा है कि भारत मुसलमानों के साथ वही कर सके जो चीन ने वीगर मुसलमानों के साथ किया है। वीगर मुसलमानों को लाखों की संख्या में चीनी तौर तरीक़ों में प्रशिक्षित करने के लिए ‘डिटेंशन कैम्पों’ में उन्हें क़ैद कर लेने से सीखकर वैसा ही कुछ यहाँ भी कर पाने की इच्छा बारंबार व्यक्त की गई है। भारतीय मुसलमानों को शुक्र मनाने को कहा गया है कि अभी तक उनके साथ ऐसा नहीं किया जा रहा।
अपने से भिन्न समुदायों को अपने रंग में ढालने, उनकी ज़ुबान और चाल ढाल बदल देने की हिंसक कामना दुनिया में हर जगह रही है। भारत उसका अपवाद नहीं है। चीन जिस क्रूरता से उसे कर ले जा रहा है, हम क्यों नहीं कर पा रहे, यह बेबसी और अधिक हिंसा को जन्म देती है। यह हिंसा भारत में ईसाई और मुसलमान समुदायों को निशाना बनाती रही है।
इसपर बात करने की ज़रूरत है कि बिना इस आंतरिक विस्तारवाद के चीन वह नहीं कर सकता जो वह अपने पड़ोसियों के साथ कर रहा है। यह आंतरिक विस्तारवाद अल्पसंखयक समुदायों को बहुसंख्यकों के उपनिवेश में शेष कर देना चाहता है। वह उनका अभिभावक, स्वामी और शिक्षक बनकर उन्हें सभ्य और अनुशासित बनाना चाहता है। किसी भी पार्टी या व्यक्ति की तानाशाही तभी चल सकती है जब वह बहुसंख्यक समुदाय को यक़ीन दिला दे कि वह उसकी तरफ़ से काम कर रहा है और उनके प्रभुत्व का रक्षक है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने ख़ुद को हान हितों का प्रतिनिधि बना दिया है। वैसे ही जैसे सोवियत संघ में रूसीकरण स्तालिन की नीति का अनिवार्य अंग था।
विस्तारवाद के बिना राष्ट्रवाद का जीवित रहना सम्भव नहीं। चीन भारत, भूटान, पाकिस्तान, नेपाल आदि की सीमाओं को बेमानी बना देना चाहता है। इस मनोवृत्ति का मुक़ाबला उस मन से नहीं किया जा सकता जो वृहत्तर भारत की कल्पना में विश्वास करता है।
पिछले कुछ वर्षों में भारतीय विश्वविद्यालयों को जिस तरह नियंत्रित करने का अभियान चलाया गया है, उसपर भी चीनी छाप है।
स्वतंत्र व्यक्ति की जगह सही क़िस्म की राष्ट्रवादी इकाइयों का निर्माण, यही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। चीन में स्वतंत्र मन की जगह जेल है। भारत में भी स्वतंत्र चेता व्यक्तियों से बहुसंख्यकों की घृणा बढ़ती जा रही है और वे चाहते हैं कि अगर उनकी हत्या नहीं की जा सकती तो उन्हें जेल में तो रखा ही जा सकता है। शिक्षा का मक़सद सिर्फ़ कार्यकुशल हुनरमंद उत्पादक इकाइयों का निर्माण है। यह भी बिना राष्ट्रवादी वफ़ादारी के नहीं हो सकता।
चीन ने अभी कुछ रोज़ पहले हॉंगकॉंग को पूरी तरह अपने क़ब्ज़े में लेने के लिए जो क़ानून बनाया, उसने हमें पिछले साल की 5 अगस्त की याद दिला दी। उस दिन भारत की संसद ने भी कश्मीर को पूरी तरह अपने में मिला लेने का क़ानूनी क़दम उठाया था। इसका मतलब कश्मीरियों के लिए उनकी सत्ता का सम्पूर्ण विलोप था। भारत के बहुसंख्यक समुदाय को एक नया इलाक़ा फ़तह करने का आनंद दिया गया था। चीन हॉंगकॉंग के साथ ठीक वही कर रहा है।
चीन को लेकर राष्ट्रवादी मन में एक हिरिस है। उसका इलाज किए बिना चीन का मुक़ाबला करने में हमेशा ही चीन की शक्ल में खुद ढल जाने का ख़तरा है। यह और बात है कि शायद इस मुक़ाबले में इच्छा वही हो।
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