रक्षा कुमार की 'हिंदू' अख़बार में छपी रिपोर्ट किसी भी कहानी से बढ़कर है। वह एक यथार्थ ग्राम की कथा है। बिहार के पूर्वी चम्पारण के चकिया प्रखंड के एक छोटे से गाँव की कृष्णा देवी की कहानी। रिपोर्टर न तो गाँव का नाम बता पाती हैं और न कृष्णा देवी का ही असल नाम। ऐसा करना उनके लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है। लेकिन आगे जो कुछ रक्षा लिखती हैं, वह मुक्तिबोध के शब्दों में ‘कथा नहीं है, सब सच है।’
इस गल्पनुमा यथार्थ में यह सच है कि कृष्णा देवी आधिकारिक दस्तावेज़ों में ज़िंदा नहीं हैं, वह मर चुकी हैं। फिर रक्षा क्या उनके प्रेत से बात कर रही थीं? क्या उनका भूत खेत में काम कर रहा था? नहीं! 50 साल की कृष्णा के पति की मौत के बाद सवाल उनकी ज़मीन के उत्तराधिकार का उठा। क़ायदे से पत्नी को वह मिल जानी चाहिए थी। लेकिन वह होना कृष्णा के मामले में मुमकिन न था। वह इसलिए कि उनका नाम उस असलियत को छिपा लेता है जो भारत को परिभाषित करती है। जैसे आपको अंदाज़ करने को कहा जाए कि कृष्णा की जाति बताइए तो नाम आपकी मदद नहीं करता। और वही इस सवाल के ताले की चाभी है।
कृष्णा मुसहर हैं। जातियों की पायदान पर सबसे नीचे। गाँव के सीमांत पर जिनकी बस्ती होती है। लेकिन क्या वे सचमुच वहाँ बसते हैं? कृष्णा का परिवार उनके गाँव के पाँच मुहसर परिवारों में अकेला भाग्यशाली है जिसके पास पाँच एकड़ ज़मीन है। लेकिन गृहपति के मर जाने के बाद उस ज़मीन की मिल्कियत किसकी होगी? पिछले कुछ साल से भारत के हिंदू ज़ोर शोर से मुसलमान औरतों को उनके मर्दों से आज़ाद करने और उन्हें उनका संवैधानिक अधिकार दिलाने के महाभियान में लगे हैं। तीन तलाक़ को आपराधिक कृत्य बनाकर उन्होंने मुसलमान औरतों को उनके मर्दों के ख़िलाफ़ खड़े होने की ताक़त दे दी है। लेकिन कृष्णा देवी की आज़ादी उनके लिए कोई मुद्दा नहीं।
कृष्णा देवी को ‘प्रगतिशील’ हिंदू समाज के नियम से पति के नाम की ज़मीन मिलनी चाहिए थी। लेकिन बिरादरी के सयानों ने तजुर्बे के आधार पर सलाह दी, ‘अगर ज़मीन बचानी है तो बेटों के नाम कर दो।’ लेकिन वह कैसे हो जब तक कृष्णा देवी ज़िंदा हैं। क्योंकि प्रगतिशील हिंदू समाज औरत को पति का उत्तराधिकारी मानता है। वह है क़ानून। लेकिन गाँव का यथार्थ अधिक चिलचिलाता हुआ है। वहाँ ऊँची जाति के लोग ज़मीन पर अपना स्वाभाविक अधिकार मानते हैं। इसलिए ऐसा कोई मौक़ा वे हाथ से नहीं जाने देते। जैसे कंपनी बहादुर नवाबों के मरते ही उनकी हथिया लेती थी, वैसा ही कुछ चलन भारतीय समाज में उच्च जातियों का है। भय यह था कि अगर ज़मीन कृष्णा देवी के नाम आएगी तो किसी न किसी तरह गाँव के ‘भैया लोग’ उसे हथिया लेंगे।
तो ज़मीन परिवार के पास ही रहे, इसके लिए क़ानूनन कृष्णा देवी को मरना ज़रूरी था। वह कठिन लगता है लेकिन उत्कोच प्रेरित सहानुभूति बाबुओं ने साथ दिया। कृष्णा देवी काग़ज़ पर मर गईं।
रक्षा कुमार को लेकिन खेत में काम करती हुई मिलीं। कृष्णा देवी के लिए क़ानूनन ज़िंदा रहने से कहीं ज़रूरी है उनकी ज़मीन का परिवार में बने रहना। उनके ‘मरते’ ही ज़मीन के अगले उत्तराधिकारी उनके बेटे हुए।
क्या बेटे उनके साथ वही बर्ताव करते हैं जो ‘बूढ़ी काकी’ के साथ किया गया था? रक्षा की रिपोर्ट में ऐसी कोई बात नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि दलित औरतों के लिए गाँव में रहना कितनी बड़ी जद्दोजहद है। बहुत सारी दलित औरतों ने पाया कि ज़मीन के काग़ज़ पर से उनके नाम हट गए हैं और उनके मालिक अब गाँव के दबंग जातियों के लोग हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ ही भारत में 60% दलितों के पास अपनी ज़मीन नहीं है। फिर वे रहें कहाँ? और शौचालय कहाँ बनवाएँ? 2011 की जनगणना के अनुसार 70% दलित किसान मज़दूरों की श्रेणी में हैं। यानी करते तो वे किसानी हैं लेकिन सरकारी काग़ज़ में दर्ज़ हैं मज़दूरों के तौर पर।
हमारे हिसाब से जाति एक गुज़री हुई बात है। बीता हुआ क़िस्सा है ‘ठाकुर का कुँआ’। वे आत्मकथाएँ जो भारत में दलित के रूप में बड़े होने की यातना बताती हैं, बासी पड़ गई हैं! थके-ऊबे हुए लोगों को अब दलितों से जुड़े नए क़िस्से चाहिए।
रक्षा कुमार लेकिन वही पुराना रोना लेकर बैठ गईं!
पटना में सुधा वर्गीज़ का नाम याद आया इस रिपोर्ट को पढ़कर। जो मुसहर बच्चों के लिए हॉस्टल चलाती थीं। उनके पढ़ने का इंतज़ाम जुटाती थीं। कृशकाय सुधा सिस्टर हैं इसलिए उनके इस काम को शक की निगाह से ही देखा जाएगा। जमुई में डॉक्टर मेरे मामा शंकरनाथ झा को यही कामयाबी लगती है अपने जीवन की जब उनके इलाक़े के मुसहर बच्चे स्कूल पार कर जाएँ।
रक्षा बिहार में लंबे वक़्त तक उदार, जनतांत्रिक कांग्रेस के शासन में उच्च जातियों के वर्चस्व के कारण बरक़रार ग़ैरबराबरी का ज़िक्र करती हैं। दबी जातियों को ज़ुबान दिलानेवाले लालू यादव के शासन काल में ज़मीन का पट्टा तो मिला लेकिन क़ब्ज़ा ऊँची जातियों का ही रहा। नीतीश ने नई राजनीतिक श्रेणी महादलित की बनाई लेकिन हालात पुराने रहे।
कृष्णा देवी 2019 के भारत में ज़िंदा हैं और मर गई हैं! मर चुकी हैं और ज़िंदा बनी हुई हैं!
इस क़िस्से को पढ़ते हुए पिछले महीने बनारस की एक यात्रा की याद हो आई। जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के उत्तर प्रदेश के राज्य सम्मलेन में शामिल होने गया था। बनारस के किनारे पर एक छोटी-सी संस्था में आयोजन था। छोटी बच्चियाँ उछल-कूद कर रही थीं। मालूम हुआ इस संस्था के फादर उनके लिए हॉस्टल चलाते हैं। वे यहाँ रहती हैं और अलग-अलग स्कूलों में पढ़ने जाती हैं।
कार्यक्रम शुरू हुआ। सुनहरे रंग की झालरदार वेशभूषा में बालिकाओं की पाँत उतरी। संगीत शुरू हुआ, असतो मा सद्गमय... बालिकाओं का नृत्य आरम्भ हुआ। अलग-अलग सामूहिक संयोजन, भिन्न-भिन्न शारीरिक मुद्राएँ और भंगिमाएँ! नृत्य देखते हुए रोमांच हो आया। सोचने लगा, क्या इनकी माएँ यह नृत्य देख रही हैं। अभी उनकी भी उम्र क्या होगी! तीस से नीचे। इन बच्चियों की माएँ, नानियाँ अगर इस वक़्त इन्हें देखें तो क्या उनके अपने शरीरों में सोई वे मुद्राएँ कसमसा नहीं उठेंगी जिन्हें किसी संगीत ने जगाया नहीं। जो उनकी देह में ही मुरझा गईं!
मेरी दिमाग़ी आँखों के आगे पीढ़ियों की पीढ़ियाँ कतार बाँध कर खड़ी हो गईं, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय…’
कितना गाढ़ा तमस, ज्योति की कैसी अदम्य लालसा! यह तमस क्या ऐसे कटेगा?
पता चला, संस्था के साधन से इन्हें सिर्फ़ 8वीं तक ही पढ़ाया जा सकता है। तो क्या ये सब फिर ज्योति से उसी तमस में लौट जाएँगी?
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