रक्षा कुमार की 'हिंदू' अख़बार में छपी रिपोर्ट किसी भी कहानी से बढ़कर है। वह एक यथार्थ ग्राम की कथा है। बिहार के पूर्वी चम्पारण के चकिया प्रखंड के एक छोटे से गाँव की कृष्णा देवी की कहानी। रिपोर्टर न तो गाँव का नाम बता पाती हैं और न कृष्णा देवी का ही असल नाम। ऐसा करना उनके लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है। लेकिन आगे जो कुछ रक्षा लिखती हैं, वह मुक्तिबोध के शब्दों में ‘कथा नहीं है, सब सच है।’
दलित महिलाओं की ऐसी हालत कि ज़िंदा होकर भी काग़ज़ों पर मरना पड़े?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 4 Nov, 2019

रक्षा कुमार की रिपोर्ट बताती है कि दलित औरतों के लिए गाँव में रहना कितनी बड़ी जद्दोजहद है। बहुत सारी दलित औरतों ने पाया कि ज़मीन के काग़ज़ पर से उनके नाम हट गए हैं और उनके मालिक अब गाँव के दबंग जातियों के लोग हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ ही भारत में 60% दलितों के पास अपनी ज़मीन नहीं है। फिर वे रहे कहाँ?
इस गल्पनुमा यथार्थ में यह सच है कि कृष्णा देवी आधिकारिक दस्तावेज़ों में ज़िंदा नहीं हैं, वह मर चुकी हैं। फिर रक्षा क्या उनके प्रेत से बात कर रही थीं? क्या उनका भूत खेत में काम कर रहा था? नहीं! 50 साल की कृष्णा के पति की मौत के बाद सवाल उनकी ज़मीन के उत्तराधिकार का उठा। क़ायदे से पत्नी को वह मिल जानी चाहिए थी। लेकिन वह होना कृष्णा के मामले में मुमकिन न था। वह इसलिए कि उनका नाम उस असलियत को छिपा लेता है जो भारत को परिभाषित करती है। जैसे आपको अंदाज़ करने को कहा जाए कि कृष्णा की जाति बताइए तो नाम आपकी मदद नहीं करता। और वही इस सवाल के ताले की चाभी है।