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‘मंदिर वहीं बनाएँगे’ से ‘मंदिर वहीं बनेगा’ तक!

‘मंदिर वहीं बनाएँगे’ से ‘मंदिर वही बनेगा’ तक की दूरी एक धर्मनिरपेक्ष राज्य से बहुसंख्यकवादी राज्य के बीच की दूरी है। यह यूं ही नहीं था कि 2019 के चुनाव प्रचार में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द दूर दूर तक सुनाई नहीं दिया था। प्रधानमंत्री ने नतीजों के बाद इसे अपनी बड़ी कामयाबी भी बताया था।
अपूर्वानंद
‘मंदिर वहीँ बनाएँगे’, पिछले तीस साल से यह नारा लगाते हुए जिनके गले छिल गए हैं, उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा गया है, ‘इतना हलकान क्यों होते हो? मंदिर वहीं  बनेगा।’ 

‘मंदिर वहीं बनाएँगे’ से ‘मंदिर वही बनेगा’ तक की दूरी एक धर्मनिरपेक्ष राज्य से बहुसंख्यकवादी राज्य के बीच की दूरी है। यह यूं ही नहीं था कि 2019 के चुनाव प्रचार में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द दूर दूर तक सुनाई नहीं दिया था। प्रधानमंत्री ने नतीजों के बाद इसे अपनी बड़ी कामयाबी भी बताया था।  

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6 दिसंबर,1992 के बाद 9 नवंबर, 2019 आज़ाद भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण तारीख मानी जाएगी। 6 दिसंबर को भारत की राजनीति की सीमा का तीखा अहसास हुआ था। 9 नवंबर को क़ानून की उस लाचारी का अहसास हुआ है जब उससे बहुसंख्यकवादी प्रभुत्व के तहत इन्साफ़ करने को कहा जाता है। उच्चतम न्यायालय के अयोध्या सम्बन्धी निर्णय की भाषा से साफ़ है कि न्यायालय खुद को एक नैतिक दुविधा से मुक्त करने की आख़िरी कोशिश कर रहा है। 
यह नैतिक दुविधा भारत की धर्मनिरपेक्षता के लिए एक आश्वासन भी थी। शायद इसमें कोई अपनी आत्मा तलाश ले। लेकिन सर्वसम्मति ने यह साफ़ कर दिया है कि अब कोई कहीं कोई नैतिक फाँक रह नहीं गई है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय तक यह दुविधा थी। उसे पंचायती फ़ैसला कहा गया था। लेकिन उसने सिर्फ़ एक दावे को आख़िरी अहमियत नहीं दी थी। सबसे बड़ी अदालत ने इस पर पड़े जाले को साफ़ कर दिया। 

अदालत का बार बार यह कहना कि वह एक धर्म और दूसरे धर्म में कोई भेद नहीं कर रही और आस्था नहीं, संविधान के आधार पर निर्णय दे रही है, उसके मन में चल रही उलझन की आख़िरी अभिव्यक्ति है। लेकिन जल्द ही वह उससे छुटकारा पा लेती है। 

आखिर भीमराव आंबेडकर ने यही कहा था कि संविधान आप कितना ही उम्दा बना लें वह उसे लागू करनेवालों की गुणवत्ता से ही परिभाषित और सीमित होगा।

तो जो यथार्थ था,वह आज के बाद से वैकल्पिक यथार्थ होगा। उसके लिए पहले उसे ख़त्म कर देना होगा। फिर उसे होने का विकल्प दिया जाएगा। वह हो या न हो?

मसजिद थी या नहीं? वह कितने सौ सालों से थी? या उससे अधिक आवश्यक है यह जानना कि वह कैसे बनी थी? अगर यह कोई एजेंसी कहे कि उसके नीचे हमें कुछ और मिला है तो उससे उसका वजूद खत्म हो जाता है या बना रहता है?
जब मसजिद थी तो कब्जा किसका था उसपर? वह ज़मीन किसकी थी? 

ज़मीन पक्ष नहीं है, लेकिन रामलला हैं। क्या वे मसजिद के पहले से वहाँ थे या मूर्तिरूप में 1949 में प्रकट हुए? कौन पहले, कौन बाद में?  केंद्र सरकार को न्यास बनाकर मंदिर बनाने का निर्देश भी ध्यान देने योग्य है। अदालत ने दृढ़ शब्दों में केंद्र सरकार को 3 महीने का वक्त दिया है कि वह न्यास बनाकर मंदिर बनाने का खाका पेश करे। अदालत की इस दृढ़ता को आप नज़रअंदाज नहीं कर सकते।

इस दृढ़ता के साथ आप उच्चतम न्यायालय की उस दयालुता पर भी ध्यान दें जो उसने मसजिद के लिए अलग से ज़मीन का प्रावधान करके दिखाई है। हालाँकि उसे ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला, जिससे ज़मीन की मिल्कियत का मसजिद वालों का दावा साबित हो। फिर भी मसजिद गिरने से जो उन्हें नुक़सान पहुँचा है, उसकी भरपाई करने को उच्चतम न्यायालय तत्पर है। इससे साबित होता है कि न्याय के साथ करुणा होनी चाहिए!
कुछ लोग सोच रहे होंगे ,आखिर यही तो लाल कृष्ण आडवाणी तीस साल पहले कह रहे थे। मसजिद हटा लो, हम दूसरी ज़मीन दे देंगे। यहाँ हमारी आस्था को रहने दो। उसी वक़्त मान लेते तो आज अदालत को यह तकलीफ़ न उठानी पड़ती। 

जो आडवाणी जी के नेतृत्व में तब कहा गया था, वह आज सबसे ऊँची अदालत ने अपने शब्दों में आज कह दिया। हम अध्यापक अक्सर छात्रों को यह काम देते हैं, ‘लेखक के भावों को अपने शब्दों में ऐसे व्यक्त करो कि भाव नष्ट न हों।’ इससे छात्र की समझ और भाषा क्षमता का पता चलता है।
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