असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा अपने पद पर बने रहने का अधिकार खो चुके हैं। इस पद पर उनका हरेक दिन असम के मुसलमानों को, विशेषकर मियाँ मुसलमानों को पहले से अधिक ख़तरे में डाल रहा है। वे रोज़ इस प्रकार के फ़ैसले कर रहे हैं और बयान दे रहे हैं जो मुसलमान विरोधी हैं। इन बयानों और उनके फ़ैसलों में मुसलमानों के प्रति उनकी घृणा और हिंसा टपकती रहती है। भारतीय जनता पार्टी के दूसरे कई नेता सभ्य दीखने के लिए इस घृणा और हिंसा को अप्रत्यक्ष रूप ज़ाहिर करते हैं। लेकिन पिछले 10 वर्षों में भाजपा में ऐसे नेताओं की संख्या बढ़ती गई है जो अपनी नफ़रत पर पर्दा नहीं डालते। वे लोक लाज की परवाह नहीं करते।
इस साल तो भाजपा के सबसे बड़े नेता नरेंद्र मोदी दो महीने तक निर्लज्ज तरीक़े से मुसलमान विरोधी भाषण देते रहे। हर अख़बार उसे छापता रहा, हर टीवी चैनल उसे प्रसारित करता रहा। लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि यह नाक़ाबिले बर्दाश्त है, यह न सिर्फ़ असभ्य है बल्कि ख़तरनाक है क्योंकि उनका हर बयान मुसलमानों के प्रति हिंदुओं के मन में शंका, घृणा को और गहरा करता जाता है। पिछले 10 वर्षों में ऐसे हिंदुओं की संख्या बढ़ती गई है, जो आरएसएस से जुड़े नहीं हैं, जो बिलकुल युवा हैं, लेकिन मुसलमानों को अपमानित करने और उनके ख़िलाफ़ हिंसा करने में मज़ा लेने लगे हैं। इसके लिए वह घृणा प्रचार ज़िम्मेदार है जिसमें मोदी, उनके मंत्री और भाजपा और आरएसएस के नेता रात दिन लगे रहते हैं। यह किसी संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति नहीं कर सकता। यह अपराध है।
सरमा नरेंद्र मोदी से और भाजपा के दूसरे नेताओं से मुसलमान विरोध के मामले में प्रतियोगिता कर रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि वे चूँकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में दीक्षित नहीं हैं और लंबे वक्त तक कॉंग्रेस पार्टी में रहकर भाजपा में आए हैं, वे यह साबित करने में जुटे हुए हैं कि वे आरएसएस और भाजपा के पुराने से पुराने सदस्य के मुक़ाबले अधिक घिनौने और ख़तरनाक तरीक़े से मुसलमानों पर हमला कर सकते हैं। यह भाजपा में ऊपर जाने का सबसे सरल और आज़माया हुआ उपाय है। नरेंद्र मोदी और आदित्यनाथ की तरक्की इसका सबूत है। जो भी हो, सरमा के ‘करियर’ की क़ीमत असम के मुसलमान नहीं चुका सकते।
आज जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी भी, जो भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी राजनीतिक दल और संघीय सरकार के घटक हैं, मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा की आलोचना कर रहे हैं। यह आलोचना सरमा की सरकार के उस फ़ैसले के बाद की जा रही है जिसके अनुसार विधानसभा में जुमा की नमाज़ के लिए 2 घंटे की छुट्टी को रद्द कर दिया गया है। सरमा का कहना है कि यह प्रथा औपनिवेशिक थी इसलिए इसे ख़त्म किया गया। इसके बाद घंटे बचेंगे और ज़्यादा काम किया जा सकेगा। लेकिन फ़ैसले के पीछे की मंशा सभी जानते हैं। इसीलिए भाजपा के समर्थक दलों ने भी बिना वक्त गँवाए इसकी निंदा की और कहा कि यह भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वभाव और संविधान की भावना के ख़िलाफ़ है। उनकी आलोचना का कारण यह बतलाया जाएगा कि उन्हें अपने मुसलमान मतदाताओं की भावनाओं की फ़िक्र है। यह कोई बुरी बात नहीं। हर राजनीतिक दल को समाज के प्रत्येक तबके की भावना का ख़याल करना चाहिए। सरमा को इसकी फ़िक्र नहीं, यह कोई शान की बात नहीं है। उनके इस बयान की याद असम में सबको है कि मुझे मियाँ मुसलमानों का वोट नहीं चाहिए।
सरमा के घृणित और घृणात्मक बयानों में रोज़ाना ढिठाई बढ़ती जाती है। कुछ रोज़ पहले उन्होंने असम की सीमा पर लेकिन मेघालय में एक पहाड़ी पर बनी यूनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी मेघालय पर हमला किया।
उन्होंने हमला यह कहते हुए किया कि उसकी वजह से असम में बाढ़ आ गई है क्योंकि उसके कारण पहाड़ी काटी गई है। कुछ लोग कहेंगे कि यह मुख्यमंत्री की वाजिब चिंता हो सकती है। लेकिन असम में हर कोई जानता है कि सरमा ने यह हमला इसलिए किया है कि इस यूनिवर्सिटी के संचालक एक बांग्लाभाषी असमिया महबूबुल हक़ हैं। किसी को भ्रम न रहे इसलिए सरमा ने कहा कि यूनिवर्सिटी के प्रवेश द्वार पर मस्जिदों जैसे गुंबद हैं। फिर यह कहा कि वे यह निश्चित करेंगे कि इस यूनिवर्सिटी से पढ़नेवाले असम में आराम से नौकरी न पा लें। यह सब कुछ हास्यास्पद है लेकिन सरमा के लिए यह स्वाभाविक है और तार्किक है। एक मुसलमान की यूनिवर्सिटी के चलते बाढ़ आती है और मुसलमान सब्ज़ीवालों के चलते सब्ज़ी महँगी मिलती है! यह एक प्रदेश का मुख्यमंत्री कह रहा है!
असम में नियमित रूप से मुसलमानों के घर उजाड़े जा रहे हैं। सरमा ने इसे उचित ठहराया है। कहा कि वे उनकी ज़मीन लेकर स्थानीय लोगों को देंगे। कोई 3 साल पहले दारांग में मुसलमानों की बस्ती उजाड़ते वक्त पुलिस ने ज़बरदस्त हिंसा की। उसके फोटोग्राफर ने पुलिस की गोली से घायल मोइनुल हक़ की छाती पर कूद कूद कर उसकी जान ली। मुख्यमंत्री ने इस घटना की निंदा करने से इंकार कर दिया और इसे पहले स्थानीय असमिया लोगों पर हुए जुल्म का प्रतिशोध कहकर उचित ठहराया। बाद में एक अदालत ने पुलिस को सरमा के ख़िलाफ़ एफ़आईआर कराने का आदेश दिया। उसका क्या हुआ हमें मालूम नहीं।
3 साल बाद विपक्ष एक दूसरी एफ़आईआर की कोशिश कर रहा है। इसकी वजह यह है कि सरमा ने अपने पद की मर्यादा का नहीं, उस संवैधानिक शपथ का उल्लंघन किया है जिसके तहत वे किसी के साथ और किसी के ख़िलाफ़ पक्षपात नहीं कर सकते।
आख़िर सरमा को बल कहाँ से मिल रहा है? यह तो है ही कि वे जो भी कर रहे हैं, वह भाजपा का हर नेता कर रहा है। लेकिन सरमा की ढिठाई की वजह असम के हिंदू समाज के मुखर तबके द्वारा उनका समर्थन है। असम का मीडिया पूरी तरह मुसलमान विरोधी है जिसे वह बहरागत विरोध के नाम पर उचित ठहराता है। असम का शिक्षित समाज भी सरमा का समर्थन करता है। यह कहा जा सकता है कि हिंदी मीडिया में तो फिर भी आप आदित्यनाथ या नरेंद्र मोदी की आलोचना शायद देख लें लेकिन असमिया मीडिया में सरमा की कोई आलोचना नहीं है।
असम में इस तरह मुख्यमंत्री ही हिंसा भड़का रहा है। अगर अदालतें इसकी गंभीरता को नहीं समझतीं और असम के मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं करतीं तो मान लेना चाहिए कि भारत में संविधान अब सिर्फ़ मजाक के लिए बचा है।
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