तमिलनाडु की सरकार एक समिति गठित करने पर विचार कर रही है जो तय करेगी कि राज्य के सरकारी स्कूलों में किस तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं। वह संभवतः यह भी बताए कि कार्यक्रमों में किस प्रकार के लोग, अतिथि, वक्ता बुलाए जा सकते हैं। सरकार ने यह ऐलान एक विवाद के बाद किया जो चेन्नई के अशोक नगर गर्ल्स सेकेंडरी स्कूल और सईदापेट मॉडल हायर सेकेंडरी स्कूल में एक ‘मोटिवेशनल’ वक्ता महाविष्णु के भाषण के बाद पैदा हुआ।
'परंपोरूल फाउंडेशन' के महाविष्णु ने दोनों जगहों पर छात्रों को अपने पिछले जन्मों में किए गए कर्मों के फल के बारे में भाषण दिया।
महाविष्णु ने छात्रों को बतलाया कि लोग गरीब या विकलांग इसलिए पैदा होते हैं कि उन्होंने पिछले जन्मों में बुरे कर्म किए होते हैं। वह आज जिस हाल में हैं, वह पिछले जन्मों के कर्म का फल है। महाविष्णु ने अंग्रेजों पर आरोप लगाया कि उन्होंने भारत की गुरुकुल व्यवस्था नष्ट कर दी। महाविष्णु ने यह भी दावा किया कि हमारे पास ऐसे श्लोक थे जिनसे बारिश हो सकती थी या जो रोगों को दूर कर सकते थे। यहाँ तक कि मनुष्यों को उड़ने में भी मदद कर सकते थे। लेकिन अंग्रेजों ने ऐसे सारे श्लोक नष्ट कर दिए। जब एक विकलांग शिक्षक ने महाविष्णु के इन दावों को चुनौती दी तो उसने शिक्षक का मज़ाक़ उड़ाया और अपमानित किया।
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सोशल मीडिया के इस जमाने में इन भाषणों का उन स्कूलों तक सीमित रहना संभव न था, यह बात महाविष्णु को मालूम होनी चाहिए थी। दूसरे, उसे यह भी ध्यान नहीं रहा कि आज का वक्त शायद महाविष्णु जैसे लोगों के पिछले जन्म वाला समय नहीं रहा कि औरत, विकलांग या दलित का मज़ाक़ उड़ा कर आप ख़ुद सम्मानित बने रहें। एक स्तर पर ऐसा करना असभ्य माना जाता है और एक दूसरे स्तर पर वह अपराध भी है। महाविष्णु यह भी भूल गया कि वह तमिलनाडु में बोल रहा था,किसी उत्तर भारतीय राज्य में नहीं। इन भाषणों के प्रकाश में आते ही इनके ख़िलाफ़ व्यापक प्रतिक्रिया हुई। उसका नतीजा हुआ कि महाविष्णु के ख़िलाफ़ ग़लत सूचना प्रसारित करने, समाज में विभेद और घृणा फैलाने जैसी धाराओं के तहत मुक़दमा दायर किया गया और उसे गिरफ़्तार कर लिया गया।
तमिलनाडु सरकार की आलोचना हो रही है कि उसकी निगरानी में इस तरह के तर्कहीनता को बढ़ावा देनेवाले कार्यक्रम स्कूलों में हो रहे हैं। इसी की प्रतिक्रिया में सरकार ने एक केंद्रीय समिति के गठन का ऐलान कर दिया जो नीति निर्धारित करेगी कि स्कूलों में कैसे कार्यक्रम हों और क्सी प्रकार के वक्ता बुलाए जाएँ।
क्या तमिलनाडु सरकार का यह निर्णय जनतांत्रिक है? क्या वह स्कूलों की स्वतंत्रता को बाधित नहीं करता? ये सवाल स्वाभाविक तौर पर उठेंगे। दूसरी तरफ़ यह तर्क दिया जाएगा कि स्कूलों में जिस उम्र के बच्चे आते हैं उनपर ऐसी बातों की छाप और उनका आघात उम्र भर रह सकता है जो उनके आगे के विकास को प्रभावित कर सकता है। विकलांग, अल्पसंख्यक या जिसे असामान्य माना जाता है ऐसे यौन रुझानवाले विद्यार्थी पर ऐसी बातों का गहरा और दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक असर हो सकता है। यही नहीं, किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा जिसे स्कूल ने ख़ुद सम्मानित मानकर बुलाया है, इस तरह की बात के बाद दूसरे छात्र और अध्यापक, जो ख़ुद ऐसे पूर्वग्रह से पीड़ित हैं, उसका सहारा लेकर ऐसे बच्चों को अपमानित कर सकते हैं। इसलिए उन्हें ऐसे प्रभाव से सुरक्षित करना आवश्यक है।
सरकार का कहना है कि तमिलनाडु जैसे राज्य में जातिवाद, अतार्किकता या अवैज्ञानिकता का कोई स्थान नहीं। इसलिए महाविष्णु जैसे वक्ताओं की भी कोई जगह नहीं। लेकिन महाविष्णु आख़िर स्कूल के प्रशासन के न्योते पर ही तो वहाँ गया होगा! जिसने बुलाया वह अवश्य महाविष्णु के विचारों से प्रभावित होगा और मानता होगा कि विद्यार्थियों को भी उससे लाभान्वित होना चाहिए। तभी तो शिक्षक दिवस जैसे महत्त्वपूर्ण दिन उसे छात्रों और अध्यापकों को प्रबोधन देने आमंत्रित किया गया। महाविष्णु के भाषण सुनने और उसे माननेवालों में इन स्कूलों के बच्चों के अभिभावक भी होंगे ही। क्या उनसे भी बच्चों को बचाने का कोई उपाय सरकार के पास है?
स्कूल अक्सर ‘प्रेरणादायक’ व्यक्तियों को बुलाते हैं कि वे बच्चों को दिशाबोध दें।सफल खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े सैन्य या प्रशासनिक अधिकारी, लेखक, कलाकार इनमें शामिल होते हैं। जिसे सामाजिक कार्य कहा जाता है उस क्षेत्र में सक्रिय लोगों को भी इस सूची में जगह मिलती है। यानी जैविक खेती, वृक्षारोपण, स्वच्छता आदि कार्य में लगे लोग। जो विवादास्पद नहीं। प्रायः ऐसे लोगों से बचा जाता है जो राज्य की प्रचलित विचारधारा के आलोचक हैं।
ऐसे लोगों को बुलाते हुए स्कूल अपने विद्यार्थियों को यह कहते हैं कि इन जैसे बनो, इनके विचारों पर चलो। वे यह नहीं कहते कि इनके विचारों पर विचार करो। इनकी परीक्षा करो। बहुत कम ऐसा होता है कि छात्र ऐसे अतिथियों से सवाल जवाब कर पाएँ। वक्ता प्रायः उपदेशक होते हैं। लेकिन ऐसे भाषणों के बाद अगर छात्रों की प्रतिक्रिया का सर्वेक्षण किया जाए तो उपदेशकों को शायद दुबारा ऐसा न्योता क़बूल करने की हिम्मत न हो। छात्र अपने अध्यापकों के सामने भले न बोलें, वे प्रायः मन ही मन ऐसे उपदेशकों को धज्जी उड़ा चुके होते हैं।
हम जानते हैं कि स्कूल समाज के आग्रह, पूर्वग्रह को दुहराने और उन पर मुहर लगाने की जगह नहीं। आदर्श रूप में स्कूलों का काम विद्यार्थियों में आलोचनात्मक समझ विकसित करने में उनकी मदद करने का है। वे सही ग़लत का भेद कर पाएँ, भले बुरे का विवेक उनमें आ पाए इसके लिए स्कूल तरह तरह से उन्हें बौद्धिक औज़ार मुहैया कराता है ताकि वे हर विचार की परीक्षा कर पाएँ, अपने परिवार, समुदाय और दुनिया में जो कुछ भी सोचा जा रहा है और किया जा रहा है उसके प्रति अपना स्वतंत्र नज़रिया विकसित कर सकें। शिक्षा शास्त्र के नए शोध बतलाते हैं कि छात्रों को निष्क्रिय पात्र मानना ग़लत है जिसमें आप अपना ज्ञान उड़ेल देते हैं।
लेकिन हम यह भी जानते हैं कि दुनिया भर में राज्य स्कूलों को राजकीय और आधिकारिक ज्ञान प्रदान करने का माध्यम मानते हैं। इसलिए प्रायः स्कूलों के पाठ्यक्रम राजकीय स्तर पर बनाए जाते हैं। अध्यापकों को इसकी छूट नहीं होती कि वे अपनी तरफ़ से किताबें या कुछ पाठ्य सामग्री छात्रों को दे सकें। राज्य इसे लेकर बहुत सावधान रहता है कि आधिकारिक रूप से स्वीकृत सामग्री स्कूल में इस्तेमाल की जाए। ऐसा वह कई बार इसलिए करता है कि अध्यापक के माध्यम से समाज के पूर्वग्रह न प्रवेश कर जाएँ। और इसलिए भी कर सकता है कि अध्यापक विध्वंसक विचारों से छात्रों को दूषित न करे।
अध्यापक हर हाल में संदेह का पात्र है और बच्चे भी। इसलिए उनके ‘कोमल मन-मस्तिष्क’ की सुरक्षा का पूरा सरंजाम राज्य और स्कूल करता है।पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक से लेकर स्कूल में होने वाले ‘एक्स्ट्रा करिक्यूलर’ गतिविधियों तक में ख़याल रखा जाता है कि बच्चे भटक न जाएँ। आदमी कैसे बना, धरती कैसे अस्तित्व में आई जैसे सवालों से लेकर धर्म, परंपरा और इतिहास, सारे मामलों में राज्य एहतियात बरतता है कि उससे भिन्न विचार में विद्यार्थी दीक्षित न हो जाएँ।
लेकिन आधिकारिक विचारों और ज्ञान से भिन्न विचार समाज में मौजूद हैं। अकसर बच्चों और उनके परिवार में टकराहट हो जाती है। माँ बाप को यह कहकर बच्चों को फटकारते सुना है कि क्या पढ़ लिख कर यही सीखा! जब एक लड़की शादी से इनकार करे उसे यह सुनना पड़ता है। या और मामलों में भी। लेकिन हम जानते हैं कि शिक्षा में स्वतंत्र करने की यह जो क्षमता है, उससे उलट उसमें दिमाग़ों का अनुकूलन करने की ताकत भी है। इसलिए सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़े ज़्यादातर छात्र जातिवादी और मुसलमान विरोधी होते हैं।
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स्कूल राष्ट्रीय चेतना का विकास करें या वैज्ञानिक चेतना का? वे उन्हें परंपरा का सम्मान करना सिखलाएँ कि उनकी परीक्षा करने का साहस और तरीका सिखलाएँ? वे समाज से आज़ाद हों या उनके अधीन रहें? ये प्रश्न 2004-05 में भारत में स्कूली पाठ्यचर्या के निर्माण के दौरान उठे थे। 20 साल बाद हम आलोचनात्मकता से उलट अनुकरण की दिशा में मुड़ गए हैं।
तमिलनाडु के महाविष्णु प्रसंग के बहाने यह बहस फिर से शुरू की जा सकती है। इसमें ख़ुद तमिलनाडु सरकार पहल कर सकती है। बजाय इसके कि वह सरकारी फ़रमान से स्कूल को नियंत्रित करने के सिद्धांत पर अपनी मुहर लगा दे।
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