“अन्ना हजारे से मेरा पहला आमना सामना तब हुआ जब 1998 में मशहूर ट्रेड यूनियन नेता बाबा आढव के कहने पर मैं उपवास पर बैठे अन्ना हजारे को उपवास के 13वें दिन देखने गया। उस समय उनके एक क़रीबी कार्यकर्ता और रिश्तेदार ने मुझे ग्लूकोज़ और इलेक्ट्रोलाईट पाउडर की पुड़िया दिखाईं और बताया कि वह रोज़ अन्ना को ये दोनों दे रहा है और पूछा कि क्या मात्रा काफ़ी थी। यह सुनकर मैं हैरान हो गया। मैं सत्याग्रह और उपवास के गाँधीवादी तरीक़े से परिचित था क्योंकि मेरे पिता और दो मामा स्वाधीनता सेनानी थे।”
डॉक्टर वैद्य ने लिखा था कि बरसों पहले जिस तरह का सुरक्षित उपवास अन्ना करते थे उसमें कोई बदलाव उन्होंने किया है या नहीं, यह उन्हें नहीं मालूम। लेकिन इस लेख के कारण उनपर जो क्रुद्ध आक्रमण हुआ उससे उस अवसरवादी नैतिकता का अंदाज़ मिलता है जिसका प्रतिनिधित्व वह भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन कर रहा था। यह जितनी अवसरवादी थी, उतनी ही हिंसक और उन्मादी भी। क्योंकि खुद उसे अपने धोखे का पता था। डॉक्टर वैद्य को कहा जा रहा था कि असल चीज़ है सरकार को लज्जित करना, उसे पीछे धकेलना और अगर वह इस अर्द्ध उपवास या अर्द्ध सत्य के ज़रिए किया जा सकता है तो हर्ज ही क्या है।
असल में इस आंदोलन को अन्ना आंदोलन कहना भी एक तरह का धोखा था क्योंकि यह हर व्यक्ति जानता था कि न तो इसकी योजना बनाने और न इसकी रणनीति तय करने में अन्ना हजारे की कोई भूमिका थी। वह इस अरविन्द केजरीवाल द्वारा लिखित और निर्देशित इस नाटक में पात्र भी नहीं थे, मंच सामग्री भर थे जिसे रंगकर्मी प्रॉपर्टी कहते हैं। अन्ना तकरीबन उसी तरह विचार-निष्क्रिय थे।
डॉक्टर वैद्य ने उम्मीद की थी कि अन्ना के सहयोगी उपवास पर बैठेंगे क्योंकि इस उम्र में अर्द्ध उपवास भी ठीक नहीं। लेकिन यह दिलचस्प था कि अरविन्द केजरीवाल और उनके सारे सहयोगी इस उपवास उत्सव के आयोजक थे और वे नहीं चाहते थे कि यह उत्सव ख़त्म हो। राम लीला मैदान में इस उपवास के चारों तरफ़ मेला सा लग गया था। लोग खा पी रहे थे और एक बूढ़े आदमी के उपवास का जश्न मना रहे थे। उपवास के साथ जिस गंभीरता की अपेक्षा वातावरण में की जा रही थी, वह कहीं न थी।
दस साल पहले हुए उस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भारतीय जनतंत्र पर क्या असर पड़ा, इस पर ज़रूर सोचने की ज़रूरत है। क्योंकि उस ‘नैतिकता’ के आन्दोलन के जनतंत्र विरोधी चरित्र को क्यों नहीं समझा जा सका, यह आज की हमारी सामूहिक वैचारिक अक्षमता को समझने के लिए बहुत ज़रूरी है।
इस आन्दोलन के आरम्भिक क्षण में ही इसके प्रतिक्रियावादी होने के सारे लक्षण मौजूद थे। इसकी शुरुआत रामदेव और श्री श्री रवि शंकर के साथ मिलकर की गई थी। सूत्रधार अरविन्द केजरीवाल थे। कालांतर में प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर जैसे अनेक व्यक्ति इसमें शामिल हुए। कहना ग़लत होगा कि उन्हें भ्रमित किया गया। लेकिन ‘नैतिकता’ के प्रलोभन और परिवर्तन की हड़बड़ी ने उनकी विचार शक्ति को शिथिल अवश्य कर दिया। शायद जनता का जो आकर्षण इस तरफ़ दीखा, उसने उन्हें प्रलुब्ध किया। मुझे इस आन्दोलन से जुड़े एक समझदार व्यक्ति की टिप्पणी याद है: हम दो दशकों से जनता का ही तो इंतज़ार कर रहे थे। अब वह सामने है तो उसकी उपेक्षा कैसे की जाए?
शायद यही लालच वामपंथी दलों को भी जंतर मंतर और राम लीला मैदान तक ले गया। यह अलग बात है कि वहाँ उन्हें अपमानित किया गया। फिर भी वे इसमें पाँव टिकाने की जुगत लगाते रहे। इस आंदोलन में लोकपाल जैसी एक संस्था के निर्माण की माँग थी लेकिन यह ऐसी संस्था होनी थी जो सारी जनतांत्रिक सांस्थानिक प्रक्रियाओं से ऊपर होनी थी। इसके लिए क़ानून का वह मसविदा संसद को बिना हीला हवाला किए स्वीकार कर लेना चाहिए जो अरविन्द केजरीवाल और उनके साथी प्रस्तावित कर रहे थे। मुझे करण थापर की अरविन्द केजरीवाल और प्रशांत भूषण के साथ एक चर्चा याद है। इस चर्चा में दोनों ही काफ़ी यक़ीन के साथ और उसमें अहंकार कम न था, कह रहे थे कि संसद सिर्फ़ 5 मिनट में उनके प्रस्ताव को क़ानून का दर्जा दे सकती है, बहस-मुबाहसे में वक़्त क्यों जाया करना! उनका ख्याल था कि अगर कांग्रेस पार्टी निर्देश दे दे तो उसके सारे सांसद उनके मसविदे के पक्ष में मत दे देंगे और वह क़ानून बन जाएगा। जब वे जनमत संग्रह करा ही चुके हैं तो संसद को सर खपाने की क्या ज़रूरत है!
करण थापर हैरान थे कि संसदीय विचार विमर्श की सारी प्रक्रियाओं को दरकिनार करके क़ानून बनाना जनतांत्रिक कैसे हो सकता है! विडंबना ही है कि 10 वर्ष बाद उन्हीं के सुझाए रास्ते से आज की सरकार एक के बाद एक क़ानून बनाती जा रही है। उसके पास बहुमत है। शासक दल निर्देश देता है और बहुमत से क़ानून बन जाता है। विचार-विमर्श की क्या ज़रूरत? उसी तरीक़े से दिल्ली सरकार का अवमूल्यन करनेवाला क़ानून आया और उसके पहले जम्मू कश्मीर को तोड़ने और उसका राज्य का दर्जा छीनने का क़ानून। खेती किसानी से जुड़े क़ानून भी उसी रास्ते आए जो करण थापर को केजरीवाल और प्रशांत भूषण बता रहे थे। आख़िर बहुमत इस सरकार के पास है और वह जानती है कि देश के लिए अच्छा क्या है। फिर असहमति का प्रश्न कहाँ? दूसरे स्वरों से संवाद की क्या आवश्यकता? उस समय ये भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा कह रहे थे कि अरुणा राय जैसों को अगर कोई असहमति है तो वे उन्हें समझाएँ, उनके पास उनसे चर्चा के लिए वक़्त नहीं। याद कर लें कि अरुणा राय और बहुत सारे लोग इस आंदोलन के द्वारा प्रस्तावित मसविदे की कमियाँ बता रहे थे। एक ही उदाहरण ले लें। लोकपाल में दो प्रतिनिधियों के रूप में मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित व्यक्तियों को होना था। यह किस प्रकार की अर्हता थी, समझ के बाहर था।
‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ में जनतंत्र को लेकर जो अधैर्य था उसके अलावा उसमें राष्ट्रवादी अहंकार और संकुचन भी था। भारत माता की तस्वीर की पृष्ठभूमि और विराट तिरंगों के साए में वंदे मातरम की धुन पर भ्रष्टाचार विरोधी युद्ध को द्वितीय स्वाधीनता संग्राम बतानेवालों की कमी न थी।
बहुत सारे लोग देख न पाए कि इसमें एक बहुसंख्यकवादी रुझान है। अब जाकर यह बात समझ में आई जब इस आंदोलन से उपजे राजनीतिक दल ने सरकार में आने के बाद देशभक्ति को शिक्षा का उद्देश्य ठहराया और उसके नेताओं ने सवाल किया कि अगर भारत में जय श्रीराम का घोष न होगा तो क्या पाकिस्तान में होगा। कुछ लोग हैरान हैं लेकिन ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का व्याकरण समझनेवालों के लिए यह सब उस आंदोलन की स्वाभाविक परिणति है।
चालाकी, नैतिक भीरुता, नैतिक अवसरवाद और हिंसा इस आंदोलन के मूल में थी। 24 घंटे जिस मीडिया ने इसे प्रसारित किया, उसी मीडिया के लोगों पर हमला किया गया जब आन्दोलन के नेताओं को लगा कि उन्हें कम समय दिया जा रहा है।
नैतिक शुचिता का आग्रह दूसरों को हीन मानता है और ख़ुद को प्रश्नातीत समझता है। मजेदार बात याद है कि इसमें नैतिकता का लेश भी नहीं होता। यह सिर्फ़ उसका स्वांग हुआ करती है। ख़तरा आने पर यह हर तरह का समझौता कर लेता है और तर्क देता है कि उसका बचा रहना आगे शुचिता के संघर्ष के लिए ज़रूरी है। इसलिए उसके किसी समझौते के लिए उसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए। वह सबकी आलोचना का अधिकार रखता है लेकिन अपनी आलोचना को अनैतिक मानता है।
बहुत सारे लोग इस आन्दोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा खड़ा किया हुआ बताते हैं। यह बिना प्रमाण के कहना कठिन है। लेकिन जैसा सब जानते हैं, आम तौर पर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन दक्षिणपंथी राजनीति के लिए रास्ता बनाते हैं।
1974 के आन्दोलन के बाद राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और जनसंघ का विस्तार हुआ और उनकी सम्माननीयता भी बढ़ी। यह ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के बाद भी हुआ तो आश्चर्य की बात नहीं। क्यों इस आन्दोलन के नेताओं को अल्पसंख्यकों के अधिकार की प्राथमिकता का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं लगता? यह सवाल भी अप्रासंगिक है। आम आदमी पार्टी ने, जो इस आन्दोलन की उपज थी, तुरत ही भ्रष्टाचार के सवाल को भी परे कर दिया और कहा कि उनके मुद्दे सिर्फ़ सड़क, पानी, बिजली, शिक्षा और सेहत हैं।
जो आंदोलन नैतिकता के आग्रह से शुरू हुआ उसने राजनीति के लिए विचारधारा को ही अप्रासंगिक ठहरा दिया। दावा किया गया कि अब विचारधारा के आगे की राजनीति का समय आ गया है। अब वह सफ़र विचार तक को ठुकराने तक पहुँच गया है। व्यावहारिकता के नाम पर कुछ भी किया जा सकता है। असल चीज़ है किसी तरह सत्ता को बनाए रखना।
10 साल इतने तो होते ही हैं कि किसी परिघटना की समीक्षा की जा सके। वह हमें निर्मम भाव से करना चाहिए ताकि हम आगे और विभ्रम के शिकार न हों।
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