“अन्ना हजारे से मेरा पहला आमना सामना तब हुआ जब 1998 में मशहूर ट्रेड यूनियन नेता बाबा आढव के कहने पर मैं उपवास पर बैठे अन्ना हजारे को उपवास के 13वें दिन देखने गया। उस समय उनके एक क़रीबी कार्यकर्ता और रिश्तेदार ने मुझे ग्लूकोज़ और इलेक्ट्रोलाईट पाउडर की पुड़िया दिखाईं और बताया कि वह रोज़ अन्ना को ये दोनों दे रहा है और पूछा कि क्या मात्रा काफ़ी थी। यह सुनकर मैं हैरान हो गया। मैं सत्याग्रह और उपवास के गाँधीवादी तरीक़े से परिचित था क्योंकि मेरे पिता और दो मामा स्वाधीनता सेनानी थे।”
‘अन्ना आंदोलन’ के जनतंत्र विरोधी नुस्खे से ही आज बन रहे क़ानून!
- वक़्त-बेवक़्त
- |
- |
- 12 Apr, 2021

मुझे करण थापर की अरविन्द केजरीवाल और प्रशांत भूषण के साथ एक चर्चा याद है। इस चर्चा में दोनों ही काफ़ी यक़ीन के साथ और उसमें अहंकार कम न था, कह रहे थे कि संसद सिर्फ़ 5 मिनट में उनके प्रस्ताव को क़ानून का दर्जा दे सकती है, बहस-मुबाहसे में वक़्त क्यों जाया करना! उनका ख्याल था कि अगर कांग्रेस पार्टी निर्देश दे दे तो उसके सारे सांसद उनके मसविदे के पक्ष में मत दे देंगे और वह क़ानून बन जाएगा।
आरोग्य सेना के डॉक्टर अभिजित वैद्य ने रीडिफ़.कॉम पर यह लिखने की जुर्रत तब की थी जब अन्ना हजारे को सारा मीडिया और अनेक बौद्धिक दूसरा गाँधी कह रहे थे। यह अंश उनके उस लेख का आरंभिक अंश है जो 2011 में तथाकथित अन्ना आंदोलन के उरूज के वक़्त लिखा गया था। उपवास के अन्ना के चतुर तरीक़े की तरफ़ इशारा उनके समर्थकों को सख़्त नागवार गुज़रा था। अलग से बिना कुछ कहे डॉक्टर वैद्य संकेत कर रहे थे कि अन्ना हजारे का उपवास अगर पूरी तरह नकली नहीं तो अवसरवादी ज़रूर था क्योंकि वह अपने जीवन को बचाए रखने के लिए ज़रूरी ऊर्जा का इंतज़ाम करते जा रहे थे। उसे धोखा तो कहा ही जा सकता था। लेकिन इस लेख पर जो प्रतिक्रिया हुई उससे अन्ना हजारे के समर्थकों की नैतिकता की अवधारणा का भी पता चलता है। उन्होंने पूछा कि क्या अन्ना को जान ही दे देनी चाहिए! अगर वह थोड़ी बेईमानी कर रहे हैं तो इसमें बुरा क्या है क्योंकि वे ज़िंदा रहेंगे तभी तो उपवास हो पाएगा! क्या यह खुचड़ निकालना ज़रूरी है जब यह उपवास एक रणनीति है एक महान उद्देश्य को हासिल करने की?