फिर छत्तीसगढ़ से सीआरपीएफ़ के जवानों के मारे जाने की ख़बर आ रही है। लिखते वक़्त 22 जवानों की मौत का पता चला है। संख्या बढ़ सकती है। ये सब माओवादी विरोधी अभियान में हिस्सा ले रहे थे। एक ही पखवाड़े में यह दूसरा बड़ा नुक़सान है जो भारतीय सुरक्षा कर्मियों को झेलना पड़ा है। पिछले महीने एक लैंड माइन विस्फोट के चलते जवानों से भरी बस पलट गई थी और 5 जवानों की मृत्यु हो गई थी।
ज़ाहिर है, ये मौतें माओवादियों के साथ गोलीबारी में हुई हैं। इस बार बीजापुर में कोई 3 घंटे तक यह गोलीबारी चली। यह भी ख़बर है कि माओवादी भी मारे गए हैं और उनमें एक महिला है। 7 जवानों की स्थिति गंभीर है। उधर माओवादियों में कितने घायल हैं, यह ख़बर नहीं है क्योंकि उनकी तरफ़ से कोई सूचना नहीं है।
इन जवानों की मौत को, या उसे हत्या क्यों न कहें, माओवादी हमेशा अपने भीतर उत्साह भरने के लिए ऑक्सिजन की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे कह सकते हैं कि हमने इस हमले से भी राज्य को बतलाया है कि हमारे पास उनसे बेहतर सूचना तंत्र है। अभी वे हम पर हमला करने इकट्ठा हो ही रहे थे कि हमने उनकी साज़िश नाकाम कर दी। पहला हमला हमने किया। सुरक्षा बल के प्रवक्ता ने कहा कि हमारे जवानों ने बहादुरी से मुक़ाबला किया और हमने भी शत्रु पक्ष को भारी नुक़सान पहुँचाया।
यह जो परस्पर बयानों का युद्ध है वह शारीरिक युद्ध का ही हिस्सा है। एक मनोवैज्ञानिक युद्ध चल रहा है और दोनों कोशिश कर रहे हैं कि दूसरा पक्ष पस्त हो जाए या हताश हो जाए।
यह हो नहीं रहा है। लेकिन माओवादियों को यह मालूम होना चाहिए कि वे एक ऐसे लक्ष्य का पीछा कर रहे हैं जिसे वे कभी हासिल नहीं कर पाएँगे। राज्य की मारक क्षमता से मुक़ाबला नामुमकिन है। आख़िर वे पिछले 50 साल से इस युद्ध में लगे हुए हैं और जीत की मंज़िल उस वक़्त जितनी क़रीब लगती थी, अब उससे कहीं दूर खिसक गई है। उनकी पाँत छोटी और कमजोर हुई है और उनकी अपील उस जनता के बीच भी काफ़ी घट गई है जिसकी मुक्ति के लिए वे यह युद्ध चलाने का दावा करते रहे हैं।
अभी भारत में हथियारबंद वर्ग संघर्ष के इतिहास की चर्चा और उसके विश्लेषण का अवसर नहीं है। लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि हर कुछ अंतराल के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा के भीतर सशस्त्र क्रांति के विचार की व्यर्थता को समझ कर जनतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होनेवाले समूहों की अच्छी ख़ासी संख्या है। आख़िरी महत्त्वपूर्ण समूह जिसने भूमिगत सशस्त्र संघर्ष के रास्ते को छोड़कर खुले में आना तय किया, वह सीपीआईएमएल (लिबरेशन) था।
जैसे पहले लिबरेशनवाले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को संसदीय भटकाव का शिकार बतलाते थे वैसे ही माओवादी उन्हें तिरस्कार की निगाह से देखते हैं। लिबरेशन भी आख़िर भटक ही गया! अब सिर्फ़ वे विशुद्ध क्रांतिकारी बचे हैं। और वे छत्तीसगढ़ के जंगलों में पाए जाते हैं।
माओवादी ख़ुद को आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के इलाक़े में नहीं बचा पाए। बिहार में, जहाँ इस रास्ते के प्रति एक बड़े तबक़े में खिंचाव था, अब माओवादियों के लिए आकर्षण नहीं बचा है। झारखंड में भी ख़ुद को असली क्रांतिकारी माओवादी बतलाने की प्रतियोगिता अनेक समूहों में चलती रहती है। वहाँ वसूली क्रांति का पर्याय बन गई है।
तो क्या माओवादी यह कल्पना कर रहे हैं कि छत्तीसगढ़ के जंगलों से वे फिर से पूरे भारत में अपना क्षेत्र विस्तार करेंगे? उन इलाक़ों में जहाँ से उन्हें हटते हटते अब इन जंगलों में पनाह लेनी पड़ी है? ईमानदारी से बता सकते हैं कि यह उनका चुनाव है या बाध्यता?
सशस्त्र क्रांति के विचार में सम्मोहन है। हिंसा मात्र मारांतक रूप से आकर्षक है। इसलिए हमेशा ही उस रास्ते पर चलने को तैयार लोग मिल जाएँगे। दूसरी बात वह है जो मेरे पलामू के मित्र शैलेंद्र कहते हैं। उनका कहना है कि अगर आपके पास एक बंदूक़ हो तो आप एक निहत्थे के सामने राज्य ही तो हो जाते हैं। यह जो राज्य की ताक़त हासिल करने का नशा है वह भी अपनी संभावित विजय के भुलावे में माओवादियों को रखता है। और उनकी क़तार में शामिल होने के लिए हमेशा ही सिपाही मुहैया कराता है।
इस बात को भी अच्छी तरह जानते हैं कि छत्तीसगढ़ या झारखंड या महाराष्ट्र के जंगल उनके लिए कार्यस्थल नहीं हैं। वे उनकी पनाहगाह है। आदिवासी भी उनके लिए साधन हैं, मित्र नहीं। यह आदिवासी नहीं तय कर सकता कि वह उनका साथ देगा या नहीं। उसके लिए वे ही फ़ैसला करते हैं। फिर वे एक अर्थ में भारतीय राज्य से बदतर हैं। वह कम से कम चुनावों में आदिवासियों को उनकी सत्ता का अहसास होने देता है। मत के लोभ में ही सही, राजनीतिक दल उनसे, सीमित ही सही, संवाद करते हैं।
धरना, जुलूस के ज़रिए वे उम्मीद कर सकते हैं कि शासन तक अपनी बात पहुँचा सकेंगे। लेकिन माओवादियों से ऐसी कोई आशा उन्हें नहीं है। वे वहाँ हुक्मउदूली की ग़लती नहीं कर सकते। माओवादियों का जनता से रिश्ता एक निरंकुश राज्य और जनता के रिश्ते जैसा है।
माओवादी तर्क दे सकते हैं कि वे एक लंबे युद्ध में हैं और युद्ध की अवस्था में सामान्य जीवन के नियम अप्रासंगिक हो जाते हैं। यही तर्क राज्य ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून के पक्ष में देता है। चिरंतन युद्ध दोनों के लिए लाभकारी है क्योंकि यह जनता पर अपना नियंत्रण बनाए रखने का तर्क है। माओवादियों ने अपनी जनताना सरकारों में न्याय देने का जो मॉडल पेश किया है वह न्याय के किसी भी विचार के ख़िलाफ़ है।
अलावा इसके कि माओवादी जिस व्यक्ति के नाम पर अपनी विचारधारा की श्रेष्ठता मनवाना चाहते हैं, वह निरंकुशता और तानाशाही का प्रतीक है। दुनिया का कोई भी आज़ादख़याल शख़्स माओवादी राज्य में नहीं बसना चाहेगा।
हिंसा और अहिंसा की सैद्धांतिक और आदर्शवादी बहस में न भी जाएँ तो व्यावहारिक रूप से भी माओवादी रास्ता कारगर न होने के लिए अभिशप्त है। अपनी ही जनता के बीच से लगातार मुखबिरों की आशंका में किसी एक धमाकेदार कार्रवाई की तैयारी में हफ़्तों हमले और मृत्यु की आशंका के बीच भटकते रहना माओवादियों की नियति बन गई है। यह जीवन किसी को भी थका दे सकता है। कोई जब इसे छोड़कर जाना चाहे तो माओवादियों के लिए ग़द्दार में बदल जाता है। एक रोज़ पहले तक के अपने कॉमरेड की हत्या के निर्णय में उन्हें एक पल नहीं लगता।
माओवादी दावा कर सकते हैं कि राज्य पैसे के बल पर अपनी सेना बनाता है। उनकी सेना में आने का प्रेरक तत्व क्रांति का आदर्श है। लेकिन यह अच्छी तरह जानते हैं कि आदिवासियों को अपना पक्ष चुनने की छूट नहीं दे सकते। उनकी परियोजना भी आदिवासी स्वतंत्र व्यक्ति या मस्तिष्क नहीं है।
यह सारी बात उन सारे समूहों पर लागू होती है जो गोपनीय, भूमिगत हिंसक क्रांति की राह पर रहे हैं। इस राह पर चलनेवाले धीरे-धीरे मनुष्यत्व खो बैठते हैं। हिंसा उनके लिए एक ग्रंथि बन जाती है, जैसा धर्मवीर भारती के अश्वत्थामा के लिए है।
हिंसा का वादा तो उदात्तता का होता है। वह साधारणता से मुक्ति का आश्वासन देती है। लेकिन आख़िरकार वह मनुष्य को हीन बना देती है। निरंतर सशंकित, हर दूसरा उसके लिए धोखा ही सकता है। वह कोई इंसानी रिश्ता नहीं बना सकता। वह स्वाधीन नहीं, एक सशस्त्र मशीन का पुर्ज़ा भर है।
भारतीय राज्य के बारे में इस टिप्पणी में कुछ नहीं कहा गया है। उसकी अमानुषिकता उसके क़ानूनों और क़ानून के राज के प्रति उसकी बेपरवाही में रोज़ाना ज़ाहिर हो रही है। जनतंत्र जनता को क़ब्ज़े में लेने की तरकीब भर बन कर रह गया है। लेकिन माओवादी सिर्फ़ यह नियंत्रण अपने हाथ में लेना चाहते हैं। उनकी पद्धति इस बात का प्रमाण है कि वे जिस मुक्ति का प्रलोभन जनता को दे रहे हैं वह उनके लिए कारागार सिद्ध होगी। साधन साध्य की प्रकृति तय करता ही है।
माओवादियों में अगर साहस है तो वे दिमाग़ों के युद्ध के मैदान में उतरें। हथियार के तर्क से ख़ुद को सही साबित करने में उनकी पराजय निश्चित है।
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