पश्चिम बंगाल के श्यामपुकुर विधान सभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार संदीपन बिस्वास चुनाव प्रचार करते हुए वाम दलों के नेताओं के घर गए और उनसे अपने पक्ष में मतदान की प्रार्थना की। न तो नेताओं की ओर से उनका विरोध हुआ और न उनके पार्टी समर्थकों की ओर से। यह बंगाल के लिए इतनी अनहोनी घटना है कि ख़बर बन गई। लेकिन क्या यह सिर्फ़ बंगाल के लिए ही घटना है? क्या अन्य राज्यों में आप विरोधी दलों के बीच ऐसे सौहार्द की कल्पना कर सकते हैं?
संदीपन बिस्वास ने कोलकाता कॉरपोरेशन के वार्ड नम्बर 10 के वाम मोर्चे की पार्षद करुणा सेनगुप्ता और पूर्व पार्षद सलिल चटर्जी से मुलाक़ात की। उन्होंने कहा कि जनतंत्र के लिए यह बेहद महत्त्वपूर्ण है। वे दोनों ही इस विधान सभा क्षेत्र के मतदाता हैं और दोनों ने ही सार्वजनिक सेवा की है। वे भले ही दूसरे राजनीतिक दल के हैं लेकिन मुझे उनसे अपने लिए मत का अनुरोध करना ही चाहिए। वाम नेताओं ने कहा कि वे दो भिन्न राजनीतिक विचारधाराओं में विश्वास करते हैं। लेकिन संदीपन बिस्वास को पूरा अधिकार है कि वे उनके घर आकर अपनी बात कहें। आख़िर जनतंत्र का मतलब और क्या है? इस क्षेत्र से हमारे दल के उम्मीदवार हैं इसलिए मैं अपने कार्यकर्ताओं को उनके पक्ष में मत देने को नहीं कह सकता लेकिन वे हमसे अपनी बात तो कह ही सकते हैं!
बंगाल में यह संवाद हो सकता है, सहसा विश्वसनीय नहीं लगता। आख़िर यह वही राज्य है जहाँ दूसरे दल का झंडा लेकर जुलूस में जाने पर गाँव के लोग ही आपकी हत्या कर सकते थे और अभी भी कर सकते हैं। ख़ासकर इस समय जब चुनाव के कारण वह रणक्षेत्र में तब्दील हो गया है और सारे मानवीय संबंध पार्टी के आधार पर विभाजित हो गए हैं, यह ख़बर पर्दे के पीछे किसी दूसरी साज़िश का सबूत मालूम होती है। कुछ लोगों की व्याख्या यह हो सकती है कि वाम दल अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दे रहे हैं क्योंकि ममता बनर्जी को किसी भी क़ीमत पर सत्ताच्युत करना चाहते हैं। भले ही भारतीय जनता पार्टी ही क्यों न सरकार बना ले। क्या आपने ‘ए बार राम पोरे बाम’ का नारा नहीं सुना, वे आपसे पूछते हैं।
यह हो सकता है लेकिन इससे परे इस घटना में स्वस्थ जनतंत्र के लिए एक संदेश है। वह यह कि जनता के समर्थन के लिए प्रतिद्वंद्विता का अर्थ एक दूसरे से शत्रुता नहीं है। अपने विरोधी के संहार की कामना और तैयारी नहीं है। संसदीय जनतंत्र में संसदीय आचरण की आवश्यकता भी होती है। असंसदीय भाषा से परहेज़ और अपने प्रतिद्वंद्वी को अस्पृश्य न मानना।
पश्चिम बंगाल ने वाम मोर्चे के प्रभुत्व के लंबे काल में समाज पर पूरी तरह क़ब्ज़ा करने की नीति अपनाई जिसका अर्थ यह था कि कोई भिन्न स्वर नहीं जीवित रह सकता।
समाज की हर संस्था, वह सामुदायिक हो या प्रशासनिक, पार्टी के अधीन होनी चाहिए और किसी प्रतिद्वंद्वी को पाँव टिकाने की भी इजाज़त नहीं, यह राजनीति और समाज का नियम बन गया था। अन्य स्वर को जीवित या सक्रिय नहीं रहने देने का नुक़सान वाम मोर्चे को और ख़ासकर सी पी एम को हुआ क्योंकि वह जनता के प्रतिवादी स्वर को समय पर सुन नहीं पाई। उसे वह शत्रु का आक्रमण लगा, शत्रु जिसका उच्छेद ही किया जा सकता है, उससे संवाद की जगह कहाँ है! नंदीग्राम आंदोलन के समय सी पी एम की एक राष्ट्रीय नेत्री विरोधियों की ‘दम दम दवाई’ करने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं को उकसाया।
वही तरीक़ा तृणमूल ने अपनाया। पंचायती चुनाव और या अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव में, विपक्षी दलों के उम्मीदवार पर्चा ही न भर सकें, यह वाम मोर्चे ने अगर परंपरा डाली थी तो तृणमूल ने भी उसे जारी रखा। जगह जगह सी पी एम के दफ़्तर जलाए गए और उसके लिए काम करना मुश्किल कर दिया गया।
वह समय भी भारत में ही हुआ करता था जिसमें चुनाव प्रचार के दौरान गाड़ी ख़राब हो जाने पर दूसरे दल के प्रत्याशी गाड़ी दे दिया करते थे। ऐसे क़िस्से बिहार के आरंभिक चुनावों के प्रचार के सुनने को मिलते हैं। प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी साथ चाय भी पिया करते थे। अब तो विपक्ष मुक्त राज्य या राष्ट्र का नारा बुलंद किया जाने लगा है।
संसदीय जनतंत्र का लाभ यही है कि सरकार को संसद और संसद की विभिन्न समितियों में विविध प्रकार के सुझाव और विचार सुनने को मिलते हैं।
उससे उसे क़ानूनों का परिष्कार करने में सहायता मिलती है और योजनाओं में भी जो छेद रह गए हैं, उन्हें पहचानने और भरने में भी सहायता मिलती है। इस तरह विपक्ष एक प्रकार से सरकार को मदद ही पहुँचा रहा होता है।
फ़र्ज़ कीजिए सरकार ने पिछले साल फ़रवरी में विपक्ष के नेता राहुल गाँधी की कोरोना वायरस के संक्रमण के ख़तरे को लेकर दी गई चेतावनी और सावधानी बरतने की सलाह को सुनकर उनसे और शेष विपक्ष से चर्चा कर ली होती तो एक महीने का क़ीमती वक़्त ज़ाया न होता और विदेशी यात्रियों की जाँच करके संक्रमण को सीमित किया जा सकता था। लेकिन ऐसा करने की जगह सरकार ने उनका मज़ाक़ उड़ाया। उसी तरह लॉक डाउन के पहले केंद्र सरकार ने विपक्ष से और राज्य सरकारों से कोई मशविरा नहीं किया। इसका नुक़सान देश को हुआ।
यह एक तरह का प्राकृतिक नियम भी है कि आप ख़ुद से अलग, विषम जीवन के संसर्ग में और स्वास्थ्य लाभ करते हैं। अपने से अलग व्यक्तियों के साथ, वे स्वभाव में आपसे भिन्न हों या विचार में, रहने और काम करने से आपको ख़ुद को संशोधित करते रहने की प्रेरणा और संसाधन, दोनों ही मिलते रहते हैं। मात्र अनुशंसा सुनते रहने या अनुकूल स्थितियों से धोखा हो सकता है।
जनतंत्र इस लिहाज़ से भी अन्य सभी शासन और जीवन प्रणालियों से बेहतर है। वह एकरूपता के विरुद्ध है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अज्ञेय से एक प्रश्नोत्तर शुरू किया था। उस प्रश्नावली में एक प्रश्न यह था कि अज्ञेय ने बहुधा रुचि, विचार और प्रवृत्तियों की दृष्टि से बिल्कुल भिन्न या विपरीत लोगों के साथ कैसे और क्योंकर काम किया। अज्ञेय का उत्तर आज भी, हमेशा ही सुनने और याद रखने ही नहीं अमल में लाए जाने के लिहाज़ से भी दुहराया जाना चाहिए:
“निस्संदेह मैंने बहुत से काम ऐसे लोगों के साथ, या ऐसे लोगों को लेकर किए हैं जो मुझसे भिन्न रहे। क्यों नहीं करूँ? मैं मानता हूँ कि सभी परस्पर भिन्न होते हैं, और मैं यह भी मानता हूँ कि सबको एक-सा बनाना चाहना ग़लत है— चाहे अत्याचार होकर ग़लत, चाहे मूर्खता होकर ग़लत। अगर अपने से भिन्न लोगों के साथ सहयोग करना अवसरवादिता है, तो फिर लोकतंत्र क्या है? और अगर केवल अपने मत के लोगों के साथ ही सहयोग करना सिद्धांतवाद है, तो यह मत-स्वातंत्र्य साथ कैसे मेल खाता है?”
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