‘आह! आपने इतनी लड़ाइयाँ लड़ीं, लेकिन कोरोना से हार गए!’;
ख़ुद से पूछें, क्यों वोट दे रहे थे : प्रशासन के लिये या नफ़रत फैलाने के लिये?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 26 Apr, 2021

सत्ता से सवाल करना, उसकी आलोचना करना, उसे जनता के प्रति जवाबदेह बनाना मानवीय होने का हिस्सा है। दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है। लेकिन उसके पहले सवाल करें खुद से कि आप किसी राजनीतिक दल को चुन क्यों रहे थे सत्ता देने के लिए! क्या कुशल प्रशासन के लिए या आपकी नफ़रत को खुला खेल खेलने के लिए आपको छूट देने के लिए? जब-जब समाजों ने इस वजह को तरजीह दी है, उन्हें खुद भी यातना झेलनी पड़ी है।
‘यह सब उस ऊपरवाले की मर्जी है!’;
‘मौत से लड़ने की बात हिमाकत है!’
पिछले एक महीने में ये वाक्य अलग-अलग भाषाओँ में अलग-अलग तरीके से लिखे गए हैं। व्याकरण की दृष्टि से सही होने के बावजूद ये वाक्य ग़लत हैं। क्योंकि जंग कोरोना से नहीं थी; लोग मारे गए इसलिए कि उन्हें अस्पताल में दाखिला नहीं मिला, क्योंकि उन्हें दवा नहीं मिली, क्योंकि अस्पतालों के पास ऑक्सीजन ख़त्म हो गई। लोग कोरोना संक्रमण के शिकार अगर हुए तो इसलिए कि एक नालायक और निकम्मी सरकार ने उन्हें अपना शिकार बनाया।
जिस सरकार को भारत की आज तक की सबसे ताक़तवर सरकार, जिस नेता को अब तक के इतिहास का सबसे ताक़तवर नेता कहा जा रहा था, वे दोनों ही खोखले निकले। यह कहावत कि जो गरजते हैं, वे बरसते नहीं, एक दूसरे तरीके से चरितार्थ हुई।