‘आह! आपने इतनी लड़ाइयाँ लड़ीं, लेकिन कोरोना से हार गए!’;
‘यह सब उस ऊपरवाले की मर्जी है!’;
‘मौत से लड़ने की बात हिमाकत है!’
पिछले एक महीने में ये वाक्य अलग-अलग भाषाओँ में अलग-अलग तरीके से लिखे गए हैं। व्याकरण की दृष्टि से सही होने के बावजूद ये वाक्य ग़लत हैं। क्योंकि जंग कोरोना से नहीं थी; लोग मारे गए इसलिए कि उन्हें अस्पताल में दाखिला नहीं मिला, क्योंकि उन्हें दवा नहीं मिली, क्योंकि अस्पतालों के पास ऑक्सीजन ख़त्म हो गई। लोग कोरोना संक्रमण के शिकार अगर हुए तो इसलिए कि एक नालायक और निकम्मी सरकार ने उन्हें अपना शिकार बनाया।
जिस सरकार को भारत की आज तक की सबसे ताक़तवर सरकार, जिस नेता को अब तक के इतिहास का सबसे ताक़तवर नेता कहा जा रहा था, वे दोनों ही खोखले निकले। यह कहावत कि जो गरजते हैं, वे बरसते नहीं, एक दूसरे तरीके से चरितार्थ हुई।
एक चालाक मजमाबाज और लफ्फाज कुशल प्रशासक नहीं हो सकता, यह दुनिया के इतिहास से प्रमाणित था। लेकिन खुद को विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता के वारिसों ने इस मामूली सबक को याद नहीं रखा और अब उसकी कीमत चुका रहे हैं।
जो मुट्ठियाँ हवा में उछालता है वह हाथ पकड़कर किसी को रास्ता पार नहीं करा सकता। जो आपको चकाचौंध करता है, वह दृष्टि भी दे, यह आशा करना हमारी भूल है। न तो यह उसकी प्रवृत्ति है, न उसके पास इसका कौशल और अभ्यास है।
ज़िम्मेदारी सरकार की
यह लेकिन उनपर हँसने का वक्त नहीं है। जिनसे यह भूल हुई है उनपर ताने कसने, उनकी खिल्ली उड़ाने का समय नहीं है। यह बताने का ज़रूर है कि अभी भी वे यह न कहें कि यह वक्त सरकार की आलोचना का नहीं, उससे जवाब तलब का नहीं बल्कि इस समय हम सबको अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।
सरकार की ज़रूरत!
इस सकारात्मक सुझाव में फिर एक छल है। हम सारे लोग न ऑक्सीजन का उत्पादन कर सकते हैं, न उसका वितरण करने के साधन हमारे पास हैं। न हम दवा बना सकते हैं, न हासिल कर सकते हैं। टीका बनाने और लगवाने का पूरा अधिकार सरकार के पास है। जिम्मेवारी भी उसी की है।
क्यों न हो? हम सब जो सीधे और परोक्ष रूप से कर देते रहते हैं और वह हमारे जाने बिना बढ़ता ही चला जाता है। आखिर वह इसी मौके के लिए तो है! सरकार इस वक़्त अगर हमसे फिर कहे कि आप अपनी मंडलियाँ बनाकर अपना ख्याल रखिए तो वह फिर है ही क्यों! इसलिए सरकार को उसका काम याद दिलाते रहने की ज़रूरत है, बिना थके।
कौन कर रहा है ज़रूरतमदों की मदद?
यह भी देखने और ध्यान देने की ज़रूरत है कि कि सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए जो लगातार बोल रहे हैं, वे ही बिना राजनीति पूछे ज़रूरतमंदों के लिए दवा और ऑक्सीजन का इंतजाम कर रहे हैं। जैसे वे पिछले साल सडकों पर झुग्गियों में सरकार के द्वारा बेसहारा छोड़ दिए गए लोगों के लिए खाने, राशन, दवादारू का इंतजाम कर रहे थे, वैसे ही इस साल भी सड़क पर हैं।
हाँ, उनमें से कई को जेल में डाल दिया गया है और जो बाहर हैं, आज भी उनमें से अनेक के पास पुलिस के फोन आते रहते हैं। क्योंकि पुलिस और सरकार जानना चाहती है कि आखिर मदद करने के पीछे मक़सद क्या था! क्या सरकार को बदनाम करने के लिए वे लोगों को राहत पहुँचा रहे थे? अभी भी जब ये पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं, ख़बर आ रही है कि उन लोगों के पास दिल्ली पुलिस की तरफ से धमकी भरे फोन आ रहे हैं जिन्होंने मदद या राहत के लिए अपने फोन नंबर सार्वजनिक किए हैं।
शायद पुलिस यह सोचती है कि इस तरह मदद की सर्वत्र सार्वजनिक गुहार और राज्यबाह्य लोगों द्वारा उसके जवाब से यही मालूम होता है कि सरकार कठिनाई के समय जनता के लिए अप्रासंगिक है। जनता की ज़िंदगी में किसी भी क्षण सरकार से ज़़्यादा और कोई महत्त्वपूर्ण हो, यह उसके बर्दाश्त के बाहर है।
सामाजिक संगठन
इसी समय सरकारी इदारे यह कह रहे हैं कि सामाजिक संगठनों की मदद से इस आपदा का सामना किया जाना चाहिए। उन्हीं संगठनों से सहायता माँगी जा रही है, पिछले सात साल से जिनके खिलाफ इस सरकार ने युद्ध छेड़ रखा है। जिनके सारे आर्थिक स्रोत एक-एक कर वह बंद कर रही है और उनका गला घोंट देने में कोई कसर उसने नहीं उठा रखी है। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार का फरमान है कि किसी निजी व्यक्ति के जरिए ऑक्सीजन का इंतजाम अपराध होगा! मदद करनेवाले के हाथ हथकड़ी लग जाए तो फिर आप कैसे मदद करेंगे किसी की?
यह पूछना इसीलिए ज़रूरी है कि बदहवासी की इस हालत में हमारा पहुँच जाना क्या ज़रूरी था! क्या इस अफरातफरी से बचा नहीं जा सकता था?
अगर पिछले मार्च में ही मालूम था कि इस वायरस के संक्रमण में सबसे अधिक ज़रूरत टीके और ऑक्सीजन की होगी तो सरकार आजतक सो क्यों रही थी? टीके बन गए तो पहले अपने लोगों का इंतजाम न करके दुनिया में सुर्खरू बनने के लिए बाहर क्यों टीके की खेपें भेजी जाने लगीं?
क्यों टीके के लिए ज़रूरी तत्वों के अमेरिका से आयात के लिए विदेश मंत्रालय ने उनसे वार्ता नहीं की?
भारत का डंका बज रहा है?
दावा तो यह किया जा रहा था कि इस वक्त पूरी दुनिया में भारत का लोहा हर कोई मान रहा है। फिर हम अभी मित्रविहीन क्यों नज़र आ रहे हैं? क्या अमेरिकी चुनाव में डोनल्ड ट्रम्प के लिए चुनाव प्रचार करने की प्रधानमंत्री की ग]लती की कीमत भारत की जनता चुका रही है? फिर भी ध्यान दीजिए कि जिस डेमोक्रेट पार्टी को हराकर डोनल्ड ट्रम्प की सरकार लाने के लिए भारत के प्रधानमंत्री प्रचार कर रहे थे, उसी डेमोक्रैट पार्टी के सदस्य भारत को मदद की अपील अपनी सरकार से कर रहे हैं। इंसानियत बदले की भावना से परास्त नहीं होती।
पिछले साल जब संक्रमण की मारकता कम थी, संसदीय समिति ने सरकार से मेडिकल ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाने को कहा था। सरकार ने उस पर कान नहीं दिया। क्यों? आज वह तर्क दे रही है कि यह राज्य सरकारों का काम था। लेकिन राष्ट्रीय आपदा क़ानून को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि एक बार किसी आपदा को राष्ट्रीय घोषित कर देने के बाद केंद्र सरकार उसके हर पहलू के लिए उत्तरदायी होती है।
राष्ट्रीय योजना क्यों नहीं?
फिर क्यों इस केंद्र सरकार के पास इस संक्रमण की आपदा से निपटने के लिए राष्ट्रीय योजना नहीं है? ऐसा नहीं कि इसकी ज़रूरत की याद नहीं दिलाई गई थी। 2020 में ही सर्वोच्च न्यायालय के सामने दरख्वास्त की गई थी कि वह इस क़ानून के प्रावधानों के तहत सरकार को निर्देश दे कि वह कोविड-19 के संक्रमण की असाधारणता को ध्यान में रखते हुए इससे निबटने के लिए एक राष्ट्रीय योजना बनाए और घोषित करे। लेकिन केंद्र सरकार ने इसका जमकर विरोध किया और कहा कि 2019 में उसने जो कदम सोचे थे, वे पर्याप्त हैं।
2019 और 2020 में भारी फर्क था। क़ानून में भी हर साल राष्ट्रीय योजना की समीक्षा कर परिवर्तन की बात लिखी है। लेकिन सरकार ने ऐसा करने से मना किया। अदालत ने भी सरकार की बात मान कर अर्जी खारिज कर दी। अब एक साल बाद जब लाशों का अंबार लग गया है, आज सर्वोच्च न्यायालय नींद से जागा है। केंद्र सरकार को राष्ट्रीय योजना तैयार करने को कह रहा है।
लेकिन उच्च न्यायालयों में केंद्र सरकार का जो रवैया है, उससे साफ़ है कि वह राज्यों के साथ सहकार नहीं करना चाहती, उन्हें घुटनों पर ला देना चाहती है। उसके वकील अदालत में राज्य सरकार पर फब्ती कस रहे हैं, कि वह धोखा खाई प्रेमिका की तरह शिकायत कर रही है,कि वह रोंदू बच्चा है!
न तो संसदीय समिति की बात सुनी गई और न ही स्वास्थ्य विशेषज्ञों को तवज्जो दी गई। यह भ्रम जनता में फैलने दिया गया कि भारत में कुछ ख़ास बात है कि जिस तरह इस संक्रमण ने यूरोप और अमरीका को प्रभावित किया वैसे भारत को नहीं।
सबकी खिल्ली उड़ाई
विशेषज्ञ लगातार सावधान कर रहे थे। चेतावनी दी जा रही कि कोरोना रूप बदल रहा है और नया रूप अधिक संक्रामक और घातक होगा। सावधानी और इंतजाम की ज़रूरत होगी।
लेकिन सरकार ने फिर सबकी खिल्ली उड़ाई। प्रधानमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री ने अपनी पीठ ठोंकी कि भारत जीत गया है। प्रधानमंत्री ने अन्तराष्ट्रीय मंच पर उन सबकी आलोचना की जो आगामी आपदा की चेतावनी दे रहे थे। विपक्ष के नेताओं ने जब कहा कि टीके की रफ़्तार और मात्रा भारत की जनसंख्या को देखते हुए नाकाफी है और दूसरे टीकों को भी इजाजत देनी चाहिए तो उनपर पूरी सरकार टूट पड़ी और उनपर आरोप लगाया कि वे दूसरी टीका कंपनियों की दलाली कर रहे हैं।
इसके हफ्ते भर बाद ही दूसरी टीका कंपनियों के लिए दरवाज़ा खोल दिया गया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। इन कंपनियों के पास पहले से ही दूसरे देशों की माँग इतनी जाम हो गई थी कि भारत उनकी प्राथमिकता में पीछे चला गया है!
कुंभ
जिस वक्त संक्रमण से बचने की सबसे अधिक ज़रूरत थी, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्रद्धालुओं को कुंभ का न्योता दे रहे थे। प्रधानमंत्री उनका कुम्भ में स्वागत कर रहे थे। बिना मास्क के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री पूरे भारत में चुनाव सभाएँ कर रहे थे।
कुम्भ और चुनाव सभाओं में भीड़ देखकर विशेषज्ञ माथा ठोंक रहे थे, लेकिन प्रधानमंत्री गदगद थे और जनता को धन्यवाद दे रहे थे! फिर संक्रमण का ज्वार आया तो क्या ताज्जुब! और क्या इसमें जनता की लापरवाही भर है?
उसे झूठा इत्मीमान दिलाने के लिए प्रधानमन्त्री, गृह मंत्री समेत पूरी सरकार नहीं?
सबको मुफ़्त टीका क्यों नहीं?
जो पार्टी बिहार के चुनाव में कह रही थी और अब बंगाल में कह रही है कि उसे जिताने पर सबको मुफ़्त टीका लगेगा, उसी की सरकार केंद्र में है। केंद्र में वह कह रही है कि कोवीशील्ड टीका उसे तो 150 रुपए में मिलेगा, लेकिन राज्यों को 400 रुपए में और निजी हस्पतालों को 600 रुपए में। यह दुनिया में किसी भी टीके की सबसे अधिक कीमत है।
अमेरिका, इंगलैंड, यूरोप के देशों में टीका मुफ्त है। भारत में क्यों सबको मुफ्त नहीं? कई लोग इस माँग का भी मज़ाक उड़ा रहे हैं, कहकर कि एक पिज़्ज़ा में इतना खर्च कर देते हैं, टीके में देने में जान जाती है!
यह कहने के पहले उन्हें सोचना चाहिए कि क्यों वे देश जिनकी प्रति व्यक्ति आय भारत के मुक़ाबले कई गुना अधिक है, अपने लोगों को टीका मुफ़्त दे रहे हैं! क्योंकि टीके का चक्र पूर्ण होना चाहिए, उसमें कहीं कोई रह न जाए। वरना उसकी प्रभावकारिता घट जाएगी।
वैसे भी टीके को लेकर संदेह हर समाज में होता है फिर उस हिचक को और क्यों बढ़ाना? टीका अगर खुले बाज़ार में बेचा जाएगा तो उसका उत्पादन करनेवाले अदार पूनावाला उससे 'महा मुनाफ़ा' क्यों नहीं कमाएँगे जिसकी इच्छा उन्होंने खुलकर कर व्यक्त की है?
सत्ता से सवाल करना, उसकी आलोचना करना, उसे जनता के प्रति जवाबदेह बनाना मानवीय होने का हिस्सा है। दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है। लेकिन उसके पहले सवाल करें खुद से कि आप किसी राजनीतिक दल को चुन क्यों रहे थे सत्ता देने के लिए! क्या कुशल प्रशासन के लिए या आपकी नफ़रत को खुला खेल खेलने के लिए आपको छूट देने के लिए? जब-जब समाजों ने इस वजह को तरजीह दी है, उन्हें खुद भी यातना झेलनी पड़ी है।
अपनी राय बतायें