हिंदी की कुछेक विडंबनाओं में एक ये भी है कि जिनका साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में एक जमाने में बड़ा योगदान रहा, उनको या तो विस्मृत कर दिया जाता है या उनको विस्मृति की ओर अग्रसारित कर दिया जाता है। `स्मृति’ की भी अपनी एक राजनीति होती है। वीरेंद्र नारायण (जन्म 14 नवंबर 1924) के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही हुआ। आज जब उनकी जन्मसदी मनाई जा रही हो तो कई सुधी लोग भी ये पूछते हैं कि वे कौन थे या उन्होंने क्या किया?