हिंदी की कुछेक विडंबनाओं में एक ये भी है कि जिनका साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में एक जमाने में बड़ा योगदान रहा, उनको या तो विस्मृत कर दिया जाता है या उनको विस्मृति की ओर अग्रसारित कर दिया जाता है। `स्मृति’ की भी अपनी एक राजनीति होती है। वीरेंद्र नारायण (जन्म 14 नवंबर 1924) के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही हुआ। आज जब उनकी जन्मसदी मनाई जा रही हो तो कई सुधी लोग भी ये पूछते हैं कि वे कौन थे या उन्होंने क्या किया?
पर इस विस्मृति के बाद भी ये तथ्य नहीं बदलता कि आधुनिक हिंदी और भारतीय रंगमंच के क्षेत्र में उनका एक बड़ा योगदान था। उन्होंने नाटक लिखे, अभिनय किया, हिंदी और अंग्रेजी में नाटकों की व्यावहारिक और सैद्धांतिक समीक्षा लिखी, हिंदी जगत को पश्चिमी रंगमंच के कुछ पहलुओं से परिचित कराया, उपन्यास लिखे, प्रकाश और ध्वनि के कई कार्यक्रमों के निर्देशन किए, सितार वादन किया, संगीतकारों पर लेख लिखे। वे आज़ादी की लड़ाई के दौरान जेल भी गए, समाजवादी विचारधारा से प्रेरित रहे, पत्रकारिता की और रेडियो जैसे माध्यमों में भी उनकी सक्रियता रही।
इन सबका आकलन करें तो पता चलता है कि उनका रचनात्मक अवदान कितना विपुल रहा। भरत मुनि ने `नाट्य शास्त्र’ में लिखा है नाटक में कई कलाओं का मेल होता है। श्लोक इस तरह है-
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सी विद्या व सा कला
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येSस्मिन् यन्न दृश्यते
जब नाटक में इतनी कलाएँ समाहित होती हैं तो स्वाभाविक रूप से अच्छे रंगकर्मी में भी कई कलाओं का मेल होना चाहिए। रंगकर्मी को विविध कलाओं में दीक्षित होना चाहिए और ऐसा होता भी रहा है। विदेशों की बात छोड़ दीजिए तो आधुनिक भारत में भी हबीब तनवीर, इब्राहीम अल्काजी, शंभु मित्र, बवकारंत जैसे रंगकर्मी बहुगुणी थे। वीरन्द्र नारायण भी इसी कड़ी में थे।
समाजवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी जब `जनता’ के संपादक थे तो वीरेन्द्र नाराय़ण उसके सहायक संपादक थे। जब बिहार और हिंदी के अत्यंत प्रतिष्ठित लेखक राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह ने `नई धारा’ पत्रिका निकाली तो इसके संपादक भी बेनीपुरी ही बने और सहायक संपादक वीरेंद्र नारायण।
`नई धारा’ पत्रिका आजादी के बाद 1950 में निकली और इससे शिवपूजन सहाय भी जुड़े थे। आगे चलकर बेनीपुरी के सुझाव और सलाह से शिवपूजन सहाय की पुत्री से वीरेंद्र नारायण की शादी भी हुई। इसका उल्लेख मात्र इसलिए किया जा रहा है कि तब के बिहार में जो हिंदी नवजागरण आ रहा था उससे वीरेंद्र नारायण किस तरह जुड़े थे ये पता चल सके। जब फणीश्वर नाथ रेणु अपने उपन्यास `मैला आंचल’ के लिए पटना मे प्रकाशक ढूंढ रहे थे तो उनको साईकिल पर बिठाकर प्रकाशकों के यहां ले जानेवाले वीरेंद्र नारायण ही थे। साहित्य अकादमी के लिए राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह का मोनोग्राफ भी वीरेंद्र नारायण का ही लिखा हुआ है।
पर वीरेंद्र नारायण सिर्फ हिंदी साहित्य में नहीं रमे रहे। उनका जन्म बिहार के भागलपुर शहर में हुआ था जहां अपने बचपन में उन्होंने पारसी शैली के कई नाटक देखे थे। यानी रंगमंच के प्रति लगाव का बीज बचपन में ही पड़ गया था। युवावस्था में ये लगाव और जोर मारने लगा। शायद इसके पीछे रामवृक्ष बेनीपुरी का सानिध्य भी था जो एक नाटककार भी थे। उनका लिखा नाटक `आम्रपाली’ हिंदी में काफी चर्चित रहा है। इस तरह अपनी साहित्यिक सक्रियता के दौर में भी वे नाटक और रंगमंच से अलग नहीं थे। इस लगाव के कारण ही रंगमंच में गहन अध्ययन के लिए वे लंदन गए और वहां `लंदन एकेडमी ऑफ़ ड्रामिक आर्ट्स’ में प्रवेश लिया।
तब लंदन के रंगमंच का माहौल विचारोत्तक था और अंग्रेजी रंगमंच पर रूसी नाटककार एंटन चेखव भी काफी लोकप्रिय हो गए थे। रूसी अभिनय सिद्धांतकार कोंस्तातिन स्तानिस्लावस्की के मेथक एक्टिंग की लोकप्रियता भी बढ़ रही थी। वीरेंद्र नारायण ने आगे चलकर, इंग्लैंड से आने के बाद, एक लंबा लेख भी लिखा जिसमें स्तानिस्लावस्की और चेखव के संबंधों का पता चलता है। चेखव का एक प्रसिद्ध नाटक है `चेरी का बागीचा’। ये हिंदी नाम है। रूसी में इसका नाम है `विश्नेवी शेड’। अपने लेख में वीरेंद्र नारायण ने लिखा है जब चेखव स्तानिस्लावस्की के सामने इस नाटक के नाम का उच्चारण करते थे तो इसे `विश्नियेवी शेड’ कहते थे जिसमें एक अतिरिक्त दुलार आ जाता था। संगीतात्मकता भी। स्तानिस्तावस्की ने इस नाटक का निर्देशन करते हुए ये बात याद रखी थी। ये दीगर बात है, ये वीरेन्द्र नारायण ने नहीं लिखा है, कि चेखव ने इसे कॉमेडी के रूप में लिखा था पर स्तानिस्लावस्की ने अपने निर्देशन में इसे ट्रेजडी बना दिया।
वीरेन्द्र नारायण को याद करना और उनको याद रखना इसलिए भी जरूरी है कि वह आधुनिक हिंदी रंगमंच के निर्माताओं में रहे हैं।
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