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एक विलक्षण रंगगुरु पंचानन पाठक की याद में होनेवाला एक समारोह

दिल्ली में एक नाट्य समारोह चल रहा है- `पंचानन पाठक स्मृति सप्ताहांत हास्य नाटक समारोह’। ये सन् 2003 से लगातार हो रहा है। हालांकि शुरुआती बरसों में इसमें सिर्फ हास्य नाटक नहीं होते थे। कई तरह के नाटक होते थे। लेकिन पिछले कई बरसों से ये सिर्फ हास्य नाटकों का समारोह हो गया है। इस बार ये एक सितंबर से एलटीजी सभागार में शुरू हुआ और दो अक्टूबर तक चलेगा। कुछ नाटक श्रीराम सेंटर में भी होंगे। चूंकि ये पिछले कई बरसों से लगातार हो रहा है इसलिए नाटक प्रेमियों के दिल में इस समारोह की स्थायी जगह बन गई है। दिल्ली वासी इंतजार करते हैं कि कब ये समारोह होगा। दिल्ली में हास्य नाटकों और निर्देशकों के लिए एक बड़ा मंच भी तैयार कर दिया है।

पर सबसे पहले तो उन सवालों के जवाब जो लोगों के मन में स्वाभाविक रूप से उठेंगे। एक तो ये कि पंचानन पाठक कौन थे और दूसरा ये कि इस समारोह को किसने शुरू किया?

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आज के दिल्ली और देश के युवा रंगकर्मी और रंगप्रेमी शायद पंचानन पाठक (1929- 2002) को नहीं जानते होंगे। लेकिन वरिष्ठों के दिमाग में अभी भी वे मौजूद हैं। पंचानन पाठक उन लोगों में हैं जिन्होंने आधुनिक रंगकर्म को, खासकर इलाहाबाद (आज के प्रयागराज) और दिल्ली में, प्रगतिशील चेतना से लैस किया। वे इलाहाबाद के थे औऱ इप्टा से जुड़े। उनके पिता स्वाधीनता सेनानी थे और कांग्रेस से जुड़े थे। पंचानन पाठक कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़े थे। उनके बारे में एक प्रचलित क़िस्सा ये है कि इलाहाबाद में ही पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनसे एक बार कहा - तुम कांग्रेस पार्टी में आ जाओ। इस पर पंचानन पाठक का जवाब था  - मैंने कभी आपको कहा कि आप कम्यूनिस्ट पार्टी में आ जाओ!

बाद में पंचानन पाठक दिल्ली आ गए और शुरुआती दिनों में उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अध्यापन भी किया। फिर वे भारत सरकार के गीत और नाट्य प्रभाग से जुड़े और इसके सह निर्देशक पद से सेवानिवृत्त हुए। 

इस बीच वे दिल्ली के श्रीराम सेंटर में भी पढ़ाते और प्रशिक्षण देते रहे। इसी दौरान उनके एक शिष्य बने दिनेश अहलावत जो आज दिल्ली के प्रसिद्ध रंगकर्मी, अभिनेता और नाट्य निर्देशक हैं। दिनेश अहलावत ने ही अपने गुरु पंचानन पाठक की याद में  इक्कीस साल पहले ये समारोह शुरू किया और आज तक किए जा रहे हैं। इस  बार के समारोह में 26 नाटक हो रहे हैं। समारोह के अंत में कई उत्कृष्ट रंगकर्मियों को पुरस्कृत भी किया जाता है और अलग से किसी वरिष्ठ लेखक, समीक्षक को `लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ भी दिया जाता है।
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पूछा जा सकता है कि आखिर इतने बड़े समारोह के लिए धन कहां से आता है। इसके जवाब में ये कि दिनेश अहलावत के पास एक प्रखर व्यापारिक दिमाग भी है। वे उस हर रंगमंडली से पंद्रह- पंद्रह  हजार रुपए लेते हैं ताकि ऑडिटोरिम के किराए का खर्चा निकल सके। फिर वे इसके टिकट भी बेचते हैं। साथ ही दस हजार के टिकट हर उस रंगमंडली को देते हैं जिनके नाटक इसमें चयनित होते हैं। यानी अपने टिकट बेचकर भी कुछ खर्चा निकालो।
फिर दिनेश अहलावत खुद जो टिकट बेचते हैं उसका हिसाब अलग है। अगर किसी नाटक में अच्छी खासी संख्या में दर्शक आ गए तो अनुपात के आधार पर बाकी पैसे में कुछ रंग मंडलियों को देते हैं।

यानी जिसके नाटक में ज़्यादा दर्शक आए उसे अधिक और कम आए तो कम। ये बिजनेस मॉडल निर्देशकों को अच्छी कॉमेडी करने के लिए भी प्रेरित करता है ताकि दर्शक जुड़ें।

इस बार के सत्र की शुरुआत के पहले दिन तीन नाटक हुए- संदीप रावत के निर्देशन में `फूल्स’, आलोक शुक्ला के निर्देशन में `बन्ने की दुल्हनिया’ और सुनील चौहान के निर्देशन में `स्वांग मल्टीनेशलन’। स्वांग मंटीनेशनल तो ज्यादा सफल नहीं रहा लेकिन बाकी के दोनों- `फूल्स’ और `बन्ने की दुल्हनिया’ को अच्छे दर्शक मिले।

`फूल्स’ की चर्चा यहां एक खास वजह से ज़रूरी है। ये विश्व प्रसिद्ध अमेरिकी नाटककार और पटकथा-लेखक नील साइमन के इसी नाम के नाटक का हिंदी रूपांतर है। हालांकि नाम अंग्रेजीवाला ही है लेकिन नाटक हिंदी में है। नील साइमन के नाटक हिंदी में अब लगातार लोकप्रिय हो रहे हैं। बरसों पहले रंजीत कपूर ने उनका नाटक `चेखव की दुनिया’ किया था जो रूसी कहानीकार चेखव की कहानियों पर आधारित थी। फिर उनका नाटक `सनसाइन बॉयज’ भी हिंदी में हो चुका है। और अब संदीप रावत ने अपनी मंडली के साथ `फूल्स’ किया। 

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ये नाटक एक गांव को लेकर है जहां के निवासी चालाक और धूर्त नहीं हैं। लाचची नहीं हैं। आजकल ऐसे लोगों को बेवकूफ या अंग्रेजी में `फूल’ कहा जाता है। इसी गांव में एक अध्यापक पहुंचता है जिसे एक डॉक्टर ने अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए बुलाया है। हालाँकि बेटी की  पढ़ने में रूचि नहीं है। पर धीरे धीरे हालात ऐसे बनते हैं कि बेटी और अध्यापक के बीच प्यार हो जाता है और दोनों शादी भी कर लेते हैं। और जैसा कि कहानियों में होता आया है इस प्यार और शादी में अड़चनें भी आती हैं पर हंसी – खुशी और मस्ती में सब कुछ ठीक ठाक हो जाता है। नाटक जबर्दस्त तरीके से दर्शकों को हंसाता है। संदीप ने इसमें संगीत के तत्व भी पिरोए हैं।

पंचानन पाठक की याद में हर साल होनवाला ये समारोह एक अच्छे कॉमेडी लेखन को भी बढ़ावा देनेवाला है।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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