पहले की तरह इस बार के `इंडिया हैबिटेट सेंटर नाट्य समारोह’ में कई भाषाओं के नाटक हो रहे हैं। यहां पर सिर्फ उन दो हिंदी नाटकों की चर्चा होगी जो इसमें खेले गए। पहला है मानव कौल द्वारा निर्देशित, अभिनीत और लिखित `त्रासदी’ और दूसरा है सपन सरन द्वारा लिखित और श्रीनिवास बिसेट्टी द्वारा निर्देशित `वेटिंग फॉर नसीर’।
`त्रासदी’ मां से जुड़ी भावना पर आधारित है। यानी मां के प्रति बेटे के लगाव की कहानी। हिंदी सिनेमा में भी मां का चरित्र काफी चर्चित रहा है। `दीवार’ फिल्म का संवाद- `मेरे पास मां है’ एक लोकप्रिय मुहावरा बन गया और गागे बगाहे लोग इसका आम बोलचाल में भी इस्तेमाल करते हैं। ये नाटक भी पूरी तरह एक बेटे की निगाह में उसकी मां की चरितगाथा है। और गौरवगाथा भी। मानव कौल ने इसमें एक ऐसे बेटे का चरित्र निभाया है जो बरसों से मुंबई शहर में रह रहा है। उसकी मां गांव में रहती है। जिंदगी में कई तरह के मोड़ आते हैं और मां के प्रति बेटे की भावना में भी कई तरह के पेचोखम भी आते रहते हैं। लेकिन मां के निधन के बाद बेटे के मन के भीतर उमड़ने-घुमड़ने वाले जज्बात कई तरह के उथल पुथल मचाने लगते हैं।
`त्रासदी’ में सिर्फ एक अभिनेता है। मानव कौल खुद। नाटक शुरू होने के पहले ही, यानी तीसरी घंटी बजने के पहले ही वे मंच पर आ विराजते हैं और सभागार में तनाव से युक्त माहौल बनाते हैं। और तीसरी घंटी के बाद दर्शकों से पूछते हैं कि आप में से कौन कौन मां हें? चूंकि दर्शकों मे अच्छी संख्या में महिलाएं भी हैं इसलिए कई हाथ उठते हैं और साफ हो जाता है कि उनका एकल अभिनय वाला ये नाटक मां को लेकर है।
धीरे धीरे ये बात खुलती जाती है कि अभिनेता जिस किरदार को निभा रहा है वो अपनी मां की बात कर रहा है। वो मैक्सिम गोर्की के उपन्यास `मां’ का उल्लेख करते हुए कहता है कि पहले तो उसे लगा था कि उसकी मां गोर्की के उपन्यास की मां की तरह नहीं है लेकिन आखिर में वो इसी निष्कर्ष पर पहुंचता है उसकी मां भी एक उदात्त महिला थी जिसने अपने पति के निधन के बाद अपने बच्चे को (यानी उसे) संभाला और उसे पढ़ा लिखाकर योग्य बनाया। पर धीरे धीरे ये बात भी खुलती है कि मां के रिश्ते एक अन्य पुरुष से भी थे जिसके कारण बेटे पर मनोवैज्ञानिक असर पड़ा और वो अपनी मां से नाराज रहने लगा और मानसिक तौर पर दूर भी होने लगा। इस रिश्ते की बात जानकर उसके भीतर इतनी खलबली मची कि उसने गुस्से में अपनी लिखी किताब भी जला डाली। लेकिन मां के निधन के बाद वही बेटा जब फिर गांव लौटता है तो पाता है कि उसके भीतर का गुस्सा खत्म हो रहा है। उसके तमाम गिले शिकवे खत्म हो जाते हैं।
दूसरा हिदी नाटक `वेटिंग पर नसीर’ था। इसका नाम सेमुअल बेकेट के नाटक `वेंटिग फॉर गोदो’ से प्रेरित है। भारत में भी इस नाटक को खेला गया है। एक प्रस्तुति में नसीरुद्दीन खान भी अभिनेता रह चुके हैं। ज्यादातर भारतीय नाट्य दर्शक नसीर को ही इस नाटक से जोड़ते हैं। `वेटिंग फॉर नसीर’ नाम के इस नाटक में नसीर के नाम का इस्तेमाल भी शायद इसी कारण हुआ है।
इसमें दो अभिनेता हैं। दोनों जीवित नहीं बल्कि मृत व्यक्तियों की भूमिका निभाते हैं। दोनों मुंबई के पृथ्वी थिएटर के सामने एक नाटक देखने पहुंचे हैं। दोनों के पास टिकट नहीं है। उनको बताया गया है कि नसीरुद्दीन शाह उनके लिए टिकट भेजनेवाले हैं। टिकट आता भी है। लेकिन सिर्फ एक। अब क्या हो? फिर क्या? दोनों में झगड़े और मारपीट भी शुरू हो जाती है। लेकिन चूंकि दोनों मृत हैं इसलिए इस लड़ाई के दौरान दोनों के शरीर आपस में नहीं टकराते। शरीर है नहीं तो टकराएंगे कैसे? बस वाकयुद्ध चल रहा है। इसी समय बेयरा आता है और कहता है कि नसीर ने अपने भेजे टिकट पर उसे नाटक देखने को कहा है। फिर वो एक कविता भी सुनाता है। दोनों मृत अभिनेता नाटक नहीं देख पाते।
चूँकि ये नाटक, एक सीमा तक ही सही, सेमुअल बेकेट के नाटक से प्रेरित है इसलिए इसमें अस्तित्व, निरर्थकता, अवास्तिकता, मृत्यु जैसी कई धारणाएं अन्वेषित और व्यक्त हुई हैं। लेकिन बेकेट तो एक महान लेखक थे इसलिए उनके यहां विस्मृति, निरर्थकता, भविष्य, इंतजार जैसी धारणाएं और संकल्पनाएं सूक्ष्मता के साथ पेश की गई हैं और इसी कारण `वेटिंग पर गोदो’ अस्तित्ववादी चिंतन से जुड़ा एक क्लासिक बन गया है।
पर `वेटिंग फॉर नसीर’ बेकेट के नाटक के करीब नहीं पहुंच पाता। मगर इसका आशय ये नहीं कि ये कमजोर था। जीवन और मृत्यु के बीच मनुष्य के कुछ सवाल इसमें आते हैं। साथ ही रंगमंच क्या है, अभिनय क्या चीज है और नाटक कैसे लिखा जाए– जैसे मुद्दे इसमें ठीक ठीक और व्यंग्यात्मक तरीके से उभरते हैं। इसके तीनों अभिनेता– मौलिक पांडेय, माहिर मोहुद्दीन, और नमन राय ने अपनी अपनी भूमिकाएँ शिद्दत के साथ निभाई है। भारत मे अस्तित्ववादी प्रश्न और संकट पर नाटक कम ही लिखे गए हैं और इस कारण कम ही खेले गए हैं। उस लिहाज से इस नाटक की एक उपयोगिता है। निर्देशक की मंशा इसे दार्शनिक क़ॉमेडी के रूप में प्रस्तुत करने की है, जैसा कि इसके बारे में प्रकाशित प्रचार-सामग्री में कहा गया है। पर ये भी सच है कि इसमें दार्शनिकता कम और क़ॉमेडी ज्यादा है। इसलिए ये हंसाती तो है पर इसका दार्शनिक पहलू दर्शक की पकड़ में नहीं आता है। यूरोप की तरह भारत में अस्तित्ववाद अपनी जड़ नहीं जमा सका। कारण ऐतिहासिक हैं। उसमें जाने का वक्त नहीं है। फिलहाल तो इतना ही पर्याप्त है कि `वेटिंग फॉर नसीर’ देखते हुए दर्शक पर बड़ी हंसी के तो नहीं लेकिन छोटी हंसी के दौरे जरूर पड़ते हैं।
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