रेखा जैन का हिंदी भाषी इलाके में बाल रंगमंच के क्षेत्र में एक बड़ा योगदान रहा। पिछले हफ्ते इंडिया इंटरनेशलन सेंटर में एक कार्यक्रम में कर्नाटक और महाराष्ट्र के दो बालरंगमंच विशेषज्ञों केजी कृष्णमूर्ति औऱ श्रीरंग गोडबोले अपने अपने काम के सिलसिले में रेखा जी के योगदान और बाल रंगमंच के कई पहलुओं को रेखांकित किया। रंगमंच अध्येता महेश आनंद ने अपने संस्मरण सुनाए और रंगकर्मी साजिदा शाजी ने अपने एक सहयोगी केयूर नंदानिया के साथ रेखा जी की पुस्तक `यादघर’ से कुछ अंशों के नाट्य-पाठ किए। इसी कड़ी में रजा फाउंडेशन अगले सात और आठ अक्तूबर को दिल्ली के श्रीराम सेंटर में दो दिनों का एक नाट्य समारोह भी आयोजित कर रहा है।
पहले दिन `उमंग’ नाट्य संस्था की तरफ से हरीश वर्मा के निर्देशन में रेखा जैन द्वारा लिखित बाल नाटक `खेल खिलोनों का संसार’ खेला जाएगा और दूसरे दिन भरत शर्मा में निर्देशन में एक आधुनिक नृत्य-प्रस्तुति होगी और उसके बाद दादी पदमजी के निर्देशन में पुतली- प्रस्तुति।
जैसा कि शुरू में संकेत किया गया रेखा जैन के योगदान को कम से कम दो नजरिए से समझा जाना चाहिए। एक तो ये कि उन्होंने अपनी सक्रियता से बाल-रंगमंच को विस्तारित किया। आज तो दिल्ली में स्कूलों से लेकर दूसरे स्वयंसेवी संगठनों की तरफ से लगातार बाल नाटक किए जा रहे हैं और ग्रीष्मकालीन शिविर भी हो रहे हैं। लेकिन बीसवीं सदी के आठवें- नवें दशक से लेकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक रेखा जैन ने अपनी रंगसंस्था `उमंग’ के जरिए बालरंमंच को दिल्ली में इतना उर्जस्वित बनाए रखा कि उसकी अनुगूंज आज भी बरकरार है। उन्होंने चालीस के करीब नाटक लिखे और सौ के करीब नाटकों- और नृत्य प्रस्तुतियों के निर्दशन किए। लेख भी लिखे। भारत के बालरंमंच के इतिहास में रेखा जैन की देन हमेशा याद रखी जाएगी।
पर उनके जीवन का कुल सार यही नहीं है। वो इससे भी बड़ा है और काफी बड़ा है। रेखा जी का जन्म आगरा के एक पारंपरिक परिवार में हुआ था और जैसा कि उन दिनों सामान्य चलन था उनकी शादी तब हो गई जब वो मात्र साढ़े बारह साल की थीं। और उसके पहले उनकी पढ़ाई छुड़ा दी गई थी क्योंकि तब पारंपरिक भारतीय परिवारों में ये सामान्य धारणा थी कि लड़की चिट्ठी-पत्री बांच ले या लिख ले- इतनी पढाई ही पर्याप्त है। फिर रेखा जैन रंगमंच के क्षेत्र में इतनी दूर तक कैसे चलीं?
इसकी एक बड़ी वजह तो उनके पति नेमिचंद्र जैन थे ( हिंदी के रंग आलोचक और उपन्यास-समीक्षक) जिनकी पढाई लिखाई में तो रूचि थी साथ ही वे मार्क्सवादी भी थे और आगे चलकर हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध से जिनकी गहरी मित्रता हुई। नेंमिचंद्र जैन कम्यूनिस्ट पार्टी और इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) से भी जुड़े थे। तब अविभाजित कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव पीसी जोशी थे जिनकी वजह से कम्यूनिस्ट पार्टी सांस्कृतिक मसलों में काफी सक्रिय थी। हालांकि आगे चलकर पीसी जोशी कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव नहीं रहे और उनकी सांस्कृतिक सक्रियता वाली सोच भी पार्टी के अंदर अवरुद्ध हो गई और अजय मुखर्जी- बीटी रणदिवे वाली धारा सांस्कृतिक मोर्चे पर अन्यमनस्क और निष्क्रिय हो गई।
रेखा जैन
पर वो एक अलग आख्यान है और फिलहाल रेखा जैन तक ही बात को सीमित रखें तो संक्षेप में यहीं कहना पर्याप्त होगा कि उस दौर में जब भारत की आजादी का लड़ाई लड़ी जा रही थी और बंगाल में भयावह अकाल पड़ा था तब रेखा जैन कोलकाता में नाटक और रंगमंच से जुड़ी। बंगाल और कोलकाता में तब रंगमंच के संसार में बिजन भट्टाचार्य और शंभुमित्र जैसे दिग्गज भी सक्रिय थे। रेखा जैन ने उसी दौर में रंगमंच पर अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा था। वैसे तो मूल नाटक बांग्ला `जबानबंदी’ नाम से था पर नेमिचंद्र जैन ने उसका अनुवाद `अंतिम अभिलाषा’ नाम से किया था। इसको हिंदी मे भी शंभु मित्र ने निर्देशित किया था। इसमें नेमिचंद्र जैन और रेखा जैन – दोनों ने पति-पत्नी का किरदार निभाया था। बाद मे ये नाटक बंबई (आज के मुंबई ) में खेला गया। इसके एक प्रसंग को रेखा जैन ने अपनी पुस्तक `यादघर’ में इस तरह लिखा है-
`इसी नाटक का एक औऱ दिलचस्प प्रसंग याद आता है। मुझे, यानी बहू को किसी मनचले की सीटी सुनकर भागना था। रात का समय है। सब सोए हुए हैं। बूढ़े मुखिया बने शंभुदा मंच के पीछे की ओर सो रहे हैं। रात के सन्नाटे में उस मनचले की सीटी सुनकर मैं उसे इधर उधर देखती हूं। दैखती हूं कि वह मुझे इशारे से बुला रहा है। मुझे उसके बुलावे पर उठकर जाना है। मैं धीरे धीरे उठी और चारों ओर देखते हुए कि कहीं कोई मुझे देख न ले. चुपके चुपके आगे बढ़ रही थी। जहां तक मेरा खयाल है अभिनय अवसर के अनुकूल हो रहा था कि तभी शभुंदा दी दबी - दबी आवाज सुनाई पड़ी- छी छी रेखा, ए तुमी की कोरछो! पालिए जाच्छो, ओरेर संगे! जैन की भाब बें। अर्थात्. छि रेखा. यह तुम क्या कर रही हो। उसके साथ भागी जा रही हो! जैन (यानी नेमिजी) क्या सोचेगा! छि, छि।‘ कहां मेरा चेहरा उस वक्त डरा- सहमा हुआ था और उसी समय शंभुदा की बात सुनकर बड़ी मुश्किल से हंसी रोक पा रही थी। एकबारगी लगा कि हंस ही दूंगी, पर किसी तरह अपने पर काबू किया और आगे बढ़ती गई। नाटक पूरा होने के बाद जब मैंने शंभुदा से कहा कि यह आप क्या कह रहे थे। यदि मैं हंस पड़ती तो। इस पर उन्होंने जवाब दिया, `फिर भी नहीं हंसी न! इसी को कहते हैं एक्टिंग! अपने पर कंट्रोल किया न!’
इस पुस्तक में कई ऐसे प्रसंग हैं जो अभिनय के बारें, नाटक के बारे में, रंगकर्मियों के बारे कई अंतर्दृष्टिपूर्ण बाते बताते हैं। रेखा जैन ने इसी दौरान नृत्य भी सीखा जो भी एक मध्यवर्गीय परिवार की लड़की के लिए देहरी लांघने जैसा था। आज भी हिंदी भाषी समाज के एक बड़े वर्ग के लिए नाचना देहरी लांघने जैसा है। इसी समाज में जन्मी रेखा जैन ने कई देहरियां लांघी और फिर बालरंगमंच में नाटक निर्देशित करते हए कई बच्चों को रगमंच पर प्रवेस कराया। रंगमंच पर स्त्रियों की उपस्थिति का इतिहास कई तरह की जटिलताएं लिए हुए है। रेखा जैन उनमें से कुछ जटिलताओं को सरल बनाया। उनकी जन्मशती पर इसे जानने और याद करने की जरूरत है।
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