अक्सर ऐसी कहानियाँ सुनने-पढ़ने और देखने को मिलती हैं कि किसी का लिखा किसी और नाम से छपा। इसके पीछे कई बार लेखक की मजबूरी होती है और गरीबी या किसी और कारणवश वो अपना लिखा हुआ अपने नाम से नहीं छपता पाता। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के आरंभिक चरण के प्रसिद्ध हिंदी फिल्मकार गुरुदत्त ने जब `प्यासा’ फिल्म बनाई थी तो उसका विषय कुछ ऐसा ही था। पूरी तरह से तो नहीं लेकिन कुछ कुछ उसी तरह का विषय देखने को मिला श्रीराम सेंटर में खेले गए नाटक `चौथी सिगरेट’ में जिसके लेखक योगेश त्रिपाठी हैं और जिसका निर्देशन दानिश इकबाल ने किया।
`चौथी सिगरेट’ में भी एक लेखक की कहानी है जिसका नाम है वीरेश्वर सेनगुप्ता। वीरेश्वर एक लिक्खाड़ उपन्यासकार है लेकिन मुश्किल ये कि उसकी रचनाएं छप नहीं पा रही हैं और वो मुफलिसी का जीवन जी रहा है। घर की माली हालत ख़राब है। बेटा इंजीनिरिंग की पढ़ाई कर चुका है, लेकिन बेरोजगार है और कमाई धमाई के लिए किराने की दुकान खोल ली है। दो बेटियां हैं जो अक्सर इसी बात की शिकायत करती रहती हैं कि उनके पास ढंग के कपड़े नहीं हैं। पत्नी शारदा अच्छी है लेकिन वो भी बहुत खुश नहीं है।
ऐसे में एक दिन सूटबूट में समरेंद्रु सान्याल नाम का एक शख्स उसके घर आता है जिसे वीरेश्वर पहले तो पहचान नहीं पाता लेकिन फिर याद आता है कि ये तो उसका स्कूली दोस्त है। समरेंद्र अब काफी दौलतमंद हो गया है और वीरेश्वर के सामने प्रस्ताव रखता है कि वो अपनी लिखी रचनाएं उसे दे दे, समेरेंद्र अनुवाद करवा कर अंग्रेजी में उनको अपने नाम से छपवाएगा और बदले में वीरेश्वर को मुंहमांगी कीमत देगा। थोड़ी आनाकानी के बाद वीरेश्वर मान भी जाता है और फिर वीरेश्वर के घर पैसे की बारिस होने लगती है। आगे चलकर वो भी सूटबूट वाला बन जाता है।
पर कहानी में पेच है और वही इसे सामान्य कहानी से अलग करता है। पेच ये है कि जब वीरेश्वर की लिखी किताबें समरेंद्रु के नाम से छप जाती हैं तो उसे लेकर हो रहे जश्न में, जहां कई नामी गिरामी लोग हैं, वीरेश्वर भी पहुंच जाता है। लेकिन समरेंद्रु उसे वहां से भगा देता है। वीरेश्वर इस बात से नाराज होता है लेकिन आगे भी समरेंद्रु को अपनी लिखी किताबें बेचता रहता है। एक दिन जब समरेंद्रु उसके सामने नया प्रस्ताव ऱखता है कि वो एक प्रेस कांफ्रेंस करके ये घोषणा करेगा कि जो किताबें उसके नाम से छपी हैं वो उसकी नहीं है और वीरेश्वर की हैं तो वीरेश्वर इसके लिए मना कर देता है। वीरेश्वर का तर्क है कि दोनों इस काम में बराबर के गुनाहगार हैं।
आदमी एक आदर्श के साथ अपनी जिंदगी शुरू करता है लेकिन धीरे धीरे वास्तविक परिस्थितियां उसको कमजोर करने लगती हैं और वो अपने आदर्श को बेच देता है। आज के जीवन में ये चहुंओर हो रहा है।
एक और बड़ी बात है इसमें। कई बरसों के बाद सुंदर लाल छाबड़ा को अभिनय करते देखा। वैसे, सुंदर लाल छाबड़ा का नाम एक वरिष्ठ रंगकर्मी के रूप मे लिया जाता है लेकिन बतौर अभिनेता वे एक दशक से मंच पर नहीं आए। पर वीरेश्वर की भूमिका को जिस जबर्दस्त तराके से उन्होंने निभाया है वो याद रखने लायक है। समरेंद्रु की भूमिका में विपिन भारद्वाज ने भी अपने चरित्र को जिस प्रकार से पेश किया है उसमें भी कई बारीकियाँ हैं। समरेंद्रु एक व्यापारी है और किसी और के लेखन को खरीद लेता है। यहां तक वो खलनायक की तरह होता है। पर जब नाटक अंत की ओर बढ़ता है तो उसका एक दूसरा व्यक्तित्व उभरता है जिसमें वो अपने किए से अंसतुष्ट दिखता है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसका व्यक्तित्वांतरण होता है और विपिन भारद्वाज ने इस पहलू को बड़ी सहजता पर कुशलता से प्रस्तुत किया है।
नाटक की मंचसज्जा न्यूनतम है और सिर्फ वेशभूषा परिवर्तन से समय और स्थितियों के बदलाव को रेखांकित किया गया है। संगीत भी न्यूनतम है और मन:स्थितियों को बतानेवाला है।
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