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भारतीय रंगमंच के ये चार शिखर पुरुष...

भारतीय रंगमंच के लिए आधुनिक काल एक स्वर्ण काल की तरह रहा है। हालाँकि स्वर्णकाल एक धारणा भर है सच्चाई नहीं और इसके माध्यम से हम इतिहास के किसी कालखंड के महत्त्व को रेखांकित भर करते हैं। इसलिए यहां जिस कालखंड को स्वर्णकाल कहा जा रहा है वो भारतीय रंगमंच के आधुनिक दौर की विशिष्टता को बताने का उपक्रम भर है। इस सिलसिले में यहाँ आधुनिक भारतीय रंगमंच के चार व्यक्तित्वों की चर्चा होगी जिनकी आजकल जन्मशती चल रही है। ये चार व्यक्ति हैं- हबीब तनवीर, इब्राहीम अल्काजी, बादल सरकार और तापस सेन। इनमें पहले तीन मुख्य रूप से रंगमंच पर निर्देशक की भूमिका में सक्रिय रहे, हालाँकि बादल सरकार ने कई अच्छे नाटक भी लिखे और तापस सेन मुख्य रूप से प्रकाश परिकल्पक थे। इन चारों व्यक्तित्वों के शताब्दी स्मरण का आयोजन किया अंसदा (एसोसिएशन और एनसडी अलमुनाई) ने जो राष्ट्रीय नाटय विद्यालय के पुराने विद्यार्थियों की संस्था है। इसके अध्यक्ष हैं वरिष्ठ रंगकर्मी एमके रैना। साहित्य अकादेमी के सभागार में हुए दो दिनों के इस स्मरण आयोजन में अमाल अल्लाना, अनुराधा कपूर, महमूद फारूकी, डॉ. ब्रह्म प्रकाश, सत्यवत राउत, स्नेहांशु मुखर्जी सहित कुछ और रंगकर्मियों ने अपनी राय रखी।

वैसे, तो मोटे रूप से पारसी रंगमंच से आधुनिक भारतीय रंगमंच की शुरुआत होती है। लेकिन वह इस कड़ी में पहला पड़ाव था। कई वजहों से, जिसमें एक फिल्म का उदय था, पारसी रंगमंच अपनी चमक और धमक खोने लगा। इसके बाद शुरू हुआ भारतीय रगमंच का एक नया दौर जिसकी शुरुआत मुख्य रूप से आजादी के साथ शुरू हुई और एक नवस्वाधीन देश के रूप में भारत अपनी रंगमंचीय जड़ों को भी खोजने लगा और वो विश्व रंगमंच से भी जुड़ने लगा। जब भारत आजाद हुआ तो विश्वस्तर के रंगमंच में बड़े बदलाव आ रहे थे। भारतीय रंगकर्मियो को उनसे भी जुड़ना था। कहानी लंबी है पर मुख्तसर में फिलहाल इतना कहना पर्याप्त होगा कि हबीब तनवीर, बादल सरकार और इब्राहीम अल्काजी जैसे व्यक्तित्वों ने स्वाधीनता के बाद के भारतीय रंगमंच को कई विकल्प दिए।

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तब भारतीय रंगमंच के सामने कई सवाल थे। भारतीय परंपरा से उसका क्या रिश्ता हो, संस्कृत रंगमंच को किस तरह अपने में समाहित करे, नाट्यशास्त्र के बारे में उसकी क्या राय हो (हालाँकि तब नाट्यशास्त्र का मुकम्मल रूप हमारे सामने नहीं था और जो भी था वो खंडित रूप में था। ब्रेख्त, चेखव, स्तानिस्लावस्की जैसे लेखकों और सिद्धांतकारों से उसका संबंध कैसे परिभाषित हो- ये  प्रश्न भारतीय रंगकर्मियों के सामने थे। तब तक विदेशी नाटकों से ज्यादा संबंध शेक्सपीयर से था जिनके नाटक पारसी रंगमंच पर खेले जा रहे थे। लेकिन बाकी के विदेशी नाटकों से भारतीय रंगकर्मी और दर्शक अपना तादात्म्य नहीं बना सके थे। 

इसके अलावा सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर भी कई धारणाएं और विचारधाराएं बीसवीं सदी के आरंभ से सभी भारतीय रंगकर्मियों के समक्ष उपस्थित थीं जो 1947  के बाद ज्यादा तत्परता से रंगमंच पर भी उपस्थित हो रही थीं। भारतीय रंगकर्म को तय करना था कि वो सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों को लेकर क्या दृष्टिकोण रखती है। वैसे ये दृष्टिकोण `इप्टा’ (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोशिएशन) के माध्य़म से बहुत कुछ अभिव्यक्त हो रहा था। किंतु एक तो खुद `इप्टा’ आजादी के बाद कम्यूनिस्ट पार्टी के वैचारिक विभ्रम का शिकार हो गया और दूसरे उसकी प्रतिबद्धता वैचारिक के साथ दलीय भी थी। इसलिए सारे रंगकर्मी उससे नहीं जुड़ सकते थे। उनको अपनी अपनी कलात्मक राहें खोजनी थी। ऐसे में जिन लोगों ने भारतीय रंगमंच को दृष्टि संपन्न किया उनमें हबीब तनवीर, बादल सरकार और इब्राहीम अल्काजी बड़े नाम हुए। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में इन तीनों ने अपनी सक्रियता, नाट्यदृष्टि और प्रशिक्षण  प्रविधि से भारतीय रंगमंच को एक उर्वर प्रवेश बनाया। 

हबीब तनवीर ने आधुनिक रंगमंच को लोकचेतना, लोकअभिनय शैली, लोकसंगीत और लोककथाओं से जोड़ा। हबीब साहब का `आगरा बाजार’ किसी भी पारिभाषा के मुताबिक नाटक नहीं है पर साथ ही एक बड़ा नाटक भी है। उर्दू-हिंदी के शायर-कवि नजीर अकबराबादी के जीवन और साहित्य पर आधारित ये नाटक न सिर्फ आम दर्शकों के बीच सराहा गया बल्कि सुधी सहृदयों ने भी इसकी कलात्मकता को स्वीकार किया। हबीब तनवीर न सिर्फ एक बड़े निर्देशक बन गए वरन नाट्य कला की परिभाषा का भी विस्तार कर दिया। `आगरा बाजार’ ने हिंदी और भारतीय रंगमंच को विस्तारित कर दिया। `चरणदास चोर’ के माध्यम से उन्होंने छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़िया लोक-अभिनेताओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया। शूद्रक के संस्कृत नाटक `मृच्छकटिकम्‘ को `मिट्टी की गाड़ी’ नाम से करके लोक और शास्त्रीय में अभेद स्थापित कर दिया।
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इब्राहीम अल्काजी ने बतौर नाट्य-निर्देशक और बतौर राष्ट्रीय नाट्य- विद्यालय निदेशक रंगकर्मियों की कई पीढ़ियां तैयार की। मोहन महर्षि, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, एमके रैना, पंकज कपूर, भानु भारती, जैसे कई रंगकर्मी, जो आज भी भारतीय रंगकर्म और अभिनय की दिशाएं तय कर रहे हैं, उसके पीछे मुख्य रूप से अल्काजी की ही दृष्टि और मेहनत है। उन्होंने कई भारतीय और वैश्विक रंगदृष्टियों और सिद्धांतों से भारतीय रंगकर्म को जोड़ा। और बादल सरकार ने `थर्ड  थिएटर’ की संकल्पना से लोक और शहरी रंगमंच की परिधियों से रंगकर्म को बाहर निकालकर उस भूमि पर पहुंचा दिया जिसमें दर्शक और अभिनेता एक दूसरे से संपृक्त हो गए।
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यहां पर तापस सेन के योगदान को किस तरह समझा जाए? वे आजाद भारत के एक बहुत बड़े प्रकाश परिकल्पक थे। रंगमंच के बारे में आम धारणा ये है कि ये अभिनेताओं का माध्यम है। पर पिछले लगभग सौ बरसों से निर्देशक की भूमिका बढ़ती गई। फिर प्रकाश परिकल्पक भी धीरे-धीरे रंगपरिदृश्य में अपनी जगह बनाता चला गया। भारत में ऐसा जिन लोगों की वजह से हुआ उनमें तापस सेन अग्रणी रहे। उनको यो ही `लाइट विजार्ड’ नहीं कहा गया। उन पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म में बव कारंत ने कहा है कि तापस सेन ने रोशनी को दिखाकर रंगमंच को प्रकाशित नहीं किया बल्कि अंधेरे को निर्मित करके ऐसा किया। कहने का अर्थ है कि तापस सेन एक ऐसे रंगशिल्पी थे जिनके माध्यम से भारतीय रंगमंच नए आलोक के साथ उद्भासित हुआ। उन्होंने कहीं भी प्रशिक्षण नहीं लिया था। तबके दिल्ली नगरनिगम में बिजली विभाग में अभियंता के रूप में काम करते हुए रंगमंच में अपनी रूचि की वजह से उन्होंने प्रकाश परिकल्पना शुरू की और उसे उस बुलंदी पर ले गए जो पूरे भारत में एक प्रतिमान बन गया। अंसदा ने इन विभूतियों को एक साथ याद कर एक बड़ा काम किया है। वैसे, प्रथमत: ये काम संगीत नाटक अकादेमी को करना चाहिए था।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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