भारत और हिंदी भाषी समाज में रंगमंच के इतिहास के बारे में जब बात की जाती है तो अमूमन ये पढ़ने और सुनने में आता है कि हमारे समाज में रंगमंच की कोई अबाधित परंपरा नहीं रही है और संस्कृत नाटकों को छोड़ दें तो देसी भाषाओं में वैसा रंगमंच विकसित नहीं हुआ जैसा कि कुछ और देशों में हुआ। मुद्दा काफी बड़ा है और इसकी संक्षेप में चर्चा भी एक पुस्तक का रूप ले लेगी। इसलिए यहां इस बारे में सिर्फ एक बिंदु पर बात की जा रही है और वो ये कि रामलीला को हम नाटक मानते हैं या नहीं? वैसे ये भी अपने में एक बड़ा मसला है क्योंकि अगर हमारे विश्वविद्यालयों और दूसरे अकादमिक संस्थानों की रामलीला को अलग माना जाता है और नाटक को अलग। यानी रामलीला के अस्तित्व को तो स्वीकार किया जाता है लेकिन विद्वान, सिद्धांतकार और अकादमिक अध्येता उसे नाटक की श्रेणी में नहीं रखते हैं।