भारत और हिंदी भाषी समाज में रंगमंच के इतिहास के बारे में जब बात की जाती है तो अमूमन ये पढ़ने और सुनने में आता है कि हमारे समाज में रंगमंच की कोई अबाधित परंपरा नहीं रही है और संस्कृत नाटकों को छोड़ दें तो देसी भाषाओं में वैसा रंगमंच विकसित नहीं हुआ जैसा कि कुछ और देशों में हुआ। मुद्दा काफी बड़ा है और इसकी संक्षेप में चर्चा भी एक पुस्तक का रूप ले लेगी। इसलिए यहां इस बारे में सिर्फ एक बिंदु पर बात की जा रही है और वो ये कि रामलीला को हम नाटक मानते हैं या नहीं? वैसे ये भी अपने में एक बड़ा मसला है क्योंकि अगर हमारे विश्वविद्यालयों और दूसरे अकादमिक संस्थानों की रामलीला को अलग माना जाता है और नाटक को अलग। यानी रामलीला के अस्तित्व को तो स्वीकार किया जाता है लेकिन विद्वान, सिद्धांतकार और अकादमिक अध्येता उसे नाटक की श्रेणी में नहीं रखते हैं।
रामलीला भी नाटक है!
- विविध
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- 20 Oct, 2024

रामलीला की जो कम से कम पांच सौ साल से अधिक की जो परंपरा है वो भी यही दिखाती है कि हिंदी नाटकों का इतिहास भी इतना ही पुराना है।
अब जब दशहरा का त्योहार ख़त्म हो गया है और देश भर में रामलीलाओं के मंचन का दौर भी थम गया है तो इस बारे में सोचा जा सकता है। यहां मेरी मूल प्रस्तावना ये है कि रामलीला सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं है, जैसा कि आम तौर पर प्रचारित है। लेकिन जिस तरीके़े से इसका विकास हुआ और जो आज भी लगातार हो रहा है, उस लिहाज से रामलीला पर विमर्श इस नज़रिए से भी होना चाहिए कि वह एक नाटक भी है और नाट्यकला के कई तत्व और बारीकियां उसमें मौजूद हैं। आज के जो रंगमंचीय और अभिनय संबंधी सिद्धांत हैं इसके मूल में स्तानिस्लावस्की या उनके बाद के सिद्धांतकारों, माईकेल चेखव आदि की धारणाएं हैं। बेशक वे भी महत्वपूर्ण हैं और आज के वैश्विक रंगमंच को निर्मित करने में उनकी बड़ी भूमिका है। लेकिन इन सिद्धांतों के आने के पहले और बाद में भी रामलीलाओं में अभिनय के कई पक्ष विद्यमान रहे जो इसे एक विशिष्ट नाट्य् और अभिनय शैली बनाते रहे हैं।