औरत की अस्मिता क्या है? क्या उसके नाम का अस्मिता से कोई रिश्ता है? अगर हां, तो फिर इस अस्मिता का निर्माण कैसे होता है? भारतीय समाज में किसी महिला का नाम शादी के बाद क्यों बदलता है? शादी के पहले किसी लड़की के नाम से साथ पिता का उपनाम जुड़ता है। फिर शादी के बाद बदल जाता है और पति का उपनाम जुड़ जाता है। आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या इससे किसी महिला या औरत की अस्मिता बदल जाती है? और इस अस्मिता का का रिश्ता राष्ट्र, जाति, देश आदि से भी होता है?
ये सारे सवाल टेढ़े मेढ़े
हैं और इनका कोई सटीक जवाब नहीं सकता है। लेकिन अहमियत जवाब की नहीं है। सवालों की
है और जिस तरह दुनिया में नारीवाद, दलित चेतना, राष्ट्रवादी विमर्श, फासीवाद आदि
के कारण वैचारिक परिप्रेक्ष्य बदल रहा है उसके चलते रंगमंच और नाटकों की दुनिया
में भी कई प्रश्न उठ रहे हैं और अभिनय से लेकर प्रस्तुतियों पर उनका असर बढ़ रहा
है। नाट्यालेख भी बदल रहे हैं और नए परिप्रेक्ष्य में लिखे जा रहा है।
पिछले दिनों किरण नाडार म्यजियम ऑफ आर्ट्स की तरफ से आयोजित नाट्य महोत्सव में रंगकर्मी मे सविता रानी ने अपना ``नोशन (स) इन बिटवीन यू एंड मी’ ये और इनसे संबंधित कई प्रश्न उठे। लेकिन जैसा कि नाटकों या दूसरी प्रदर्शनकारी कलाओं में होता है, अहमियत इस बात की नहीं होती है कि उन सवालों की वैचारिक पृष्ठभूमि क्या है, वो इस बात की ज्यादा होती है वे किसी तरह अभिनय और नाट्य प्रस्तुति में दर्शको के लिए ठोस अनुभव बने।
दिल्ली के सुंदर नर्सरी के ऑडिटोरियम में हुए इस नाटक में सविता रानी ने अपने एकल अभिनय से इसे जिस तरह इन मुद्दों को पेश किया वह अत्यंत सघन अनुभव था। इस प्रस्तुति में विचार का पक्ष तो प्रबल था ही साथ ही हास्य, व्यंग्य. चुप्पियां, शारीरिक भाषा जैसी प्रविधियों के माध्यम से जीवन के कई ऐसे पहलू उद्घाटित हुए जो आम तौर पर हमारी नजरों से ओझल रहते हैं।
ये
अक्सर पढ़ने और सुननें में आता है कि
हमारे जीवन में कोई चीज या कोई वाकया निजी या व्यक्तिगत नहीं होता है, उसका एक
राजनैतिक पक्ष भी होता है। हम जो कपड़े पहनते हैं, खासकर स्त्रियां जो पहनती है,
इस पर समाज की निगाह होती है। और ये
सामान्य निगाह नहीं होती, बल्कि सेंसर बोर्ड बाली निगाह होती है। समाज में, स्कूलों में, कॉलेजो
में इसका नियमन होता है कि औरतें क्या पहने और कैसे पहनें। आजकल तो भारतीय समाज
में भोजन पर भी निगाह रखी जा रही है और शाकाहारी भोजन करें या मांसाहासी भोजन न
करें , इस पर कई तरह के फतवे दिए जा रहे हैं।
इस सबके पीछे एक राजनीति होती है। और वो राजनीति सर्वसत्तावादी होती है
यानी हमारे जीवन के हर पहलू पर नियंत्रण चाहती है।
सविता रानी का ये नाटक इस सर्वसत्तावाद पर सवालिय़ा निशान लगाता है। और ये सर्वसत्तावाद सिर्फ राजनैतिक दलों या विचारधाराओं का नहीं होता। ये हमारे परिवार या परिवार की परंपराओं में भी होता है। किसी पति- पत्नी को लड़का चाहिए या लड़की – ये बहस तो सदियों पुरानी है। आम तौर पर परिवार लड़का चाहता है, लड़की नहीं। और जिस परिवार में लगातार लड़कियां होती है उनमें माओं पर कई तरह के लांछन भी लगते हैं। और हां, उस परिवार के पुरुष उस लांछन से मुक्त रहते हैं। ये भी एक सर्वसत्तावाद है। मर्दवाद का सर्वसत्तावाद।
सविता ऐसे कई प्रसंगों को सामने लाती है।
लेकिन रोचक तरीके से। बीच बीच में अपनी वेशभूषा में हल्का सा बदलाव करती हैं और
न्यूनतम ध्वनि व प्रकाश योजना के साथ वो राष्ट्र की धारणा और दूसरी अवधारणाओं की
ओर भी यात्रा करती/ कराती हैं और दर्शक इन
सबको देखते हुए अपने भीतर निहित वैचारिक आग्रहों का भी परीक्षण करता चलता है। कई
बार आम आदमी या दर्शक उन वैचारिक आग्रहों के प्रति सचेत नहीं होता जो उसको घेर
रहती है और सामान्य बोध बोध बने रहते है।
कला का, चाहे वो रंगमंच हो या साहित्य, उन सामान्य बोधो से टकराता भी है जो हम
अपने भीतर सदियों से संजोए और पाले रहते हैं। ये सामान्य बोध हमारी आदत बन जाते
हैं और हम उनको `सच’ मानने लगता है। दरअसल ये `सच’ एक निर्मिति होता है और हम अक्सर उस निर्मिति को ही सच समझने लगते हैं।
इतिहास के लंबे दौर में औरतों और दलितों के साथ अन्य ऐसी ही निर्मितियों के आधार पर अन्याय होता रहा और अब उन निर्मितियों को चुनौती दी जा रही है। राष्ट्रवाद सदियों से तो नहीं लेकिन कई दशकों से हमारे भीतर कुछ धारणएं निर्मित कर रहा है जिसे आज के भारत में भी कुछ राजैनैतिक दल सच के रूप में पेश करते हैं। फासीवाद जैसी धारणाएं इसी की उपज हैं। सविता रानी इस नाटक में उन्हीं निर्मितियों को नश्तर चुभोती हैं और समाज में व्याप्त कई धारणाओं को विखंडित करती हैं।
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