धर्म का राष्ट्रीय पहचान से क्या लेना-देना है? क्या किसी देश की पहचान किसी ख़ास धर्म के आधार पर हो सकती है? ख़ासकर जब वह धर्म-निरपेक्ष देश हो तब? खैर, इस्लामिक, क्रिश्चियन जैसे धर्म आधारित देश के बारे में तो अलग स्थिति हो सकती है। लेकिन सवाल है कि इन देशों के लोग राष्ट्रीय पहचान के लिए धर्म को लेकर क्या सोचते हैं?
प्यू रिसर्च सेंटर की नई रिपोर्ट में इन सवालों के जवाब मिलते हैं। रिपोर्ट के अनुसार कुल 64 प्रतिशत भारतीयों का मानना है कि धर्म राष्ट्रीय पहचान के लिए अहम है। खासकर हिंदू धर्म के मामले में, 73 प्रतिशत हिंदुओं का कहना है कि हिंदू होना वास्तव में भारतीय होने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसके विपरीत सिर्फ़ 12 प्रतिशत मुसलमान इस बात से सहमत हैं कि धर्म राष्ट्रीय पहचान में भूमिका निभाता है। हालाँकि, देश में ओवरऑल 24 प्रतिशत लोग ही खुद को 'धार्मिक राष्ट्रवादी' मानते हैं।
कई मध्यम आय वाले देशों में- इंडोनेशिया, फिलीपींस और ट्यूनीशिया के लगभग तीन-चौथाई या उससे ज़्यादा लोग शामिल हैं, जो देश के ऐतिहासिक रूप से प्रमुख धर्म से जुड़े होने को राष्ट्रीय पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं। सर्वेक्षण किए गए हर मध्यम आय वाले देश में, कम से कम एक चौथाई उत्तरदाताओं ने ऐसा ही महसूस किया।
इसके विपरीत, उच्च आय वाले देशों में कम लोग धर्म को राष्ट्रीय पहचान का एक महत्वपूर्ण पहलू मानते हैं। इसराइल एक अपवाद है, जहाँ कम से कम एक तिहाई आबादी प्रमुख धर्म, यहूदी धर्म का पालन करना राष्ट्रीय पहचान का एक महत्वपूर्ण फ़ैक्टर मानती है।
अध्ययन में जवाब देने वालों को 'धार्मिक राष्ट्रवादी' के रूप में बताने के लिए एक पैमाना तय किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार यदि वे देश के प्रमुख धर्म से दृढ़ता से जुड़े हैं और चार प्रमुख सवालों पर दृढ़ रुख अपनाते हैं तो उन्हें धार्मिक राष्ट्रवादी के रूप में बताया जा सकता है-
- राष्ट्रीय पहचान के लिए प्रमुख धर्म से जुड़ा होना कितना महत्वपूर्ण है?
- राष्ट्रीय नेताओं के लिए अपनी धार्मिक मान्यताओं को साझा करना कितना महत्वपूर्ण है?
- प्रमुख धर्म के पवित्र ग्रंथों या शिक्षाओं को राष्ट्रीय कानूनों को किस हद तक प्रभावित करना चाहिए?
- यदि पवित्र ग्रंथ जनता की राय से टकराता है तो कानून बनाने में किसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए?
इसमें पाया गया कि भारत जैसे मध्यम आय वाले देशों में बहुसंख्यक लोगों का मानना है कि धर्म समाज के लिए नुक़सान से ज़्यादा अच्छा करता है, सहिष्णुता को बढ़ावा देता है और अंधविश्वासी सोच को बढ़ावा नहीं देता है। बांग्लादेश में जहाँ लगभग दस में से नौ वयस्क मुस्लिम हैं, 94 प्रतिशत लोगों का कहना है कि धर्म अधिकांशतः समाज की मदद करता है। इसके विपरीत स्वीडन में केवल 42 प्रतिशत लोग इस भावना को साझा करते हैं। स्वीडन एक ऐसा देश है जहाँ आधी से भी कम आबादी धार्मिक है।
भारत में सर्वेक्षण में शामिल 24 प्रतिशत लोग खुद को 'धार्मिक राष्ट्रवादी' मानते हैं और 57 प्रतिशत हिंदू उत्तरदाताओं ने धार्मिक शिक्षाओं के आधार पर भारतीय कानून बनाने के विचार का समर्थन किया, जबकि भारतीय मुसलमानों में यह संख्या केवल 26 प्रतिशत थी।
27 प्रतिशत भारतीय उत्तरदाताओं ने कहा कि वे दिन में कम से कम एक बार प्रार्थना करते हैं, वे 'धार्मिक राष्ट्रवादी' हैं, जबकि 17 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जो कम बार प्रार्थना करते हैं। कुल 79 प्रतिशत भारतीयों का मानना है कि धर्म समाज की मदद करता है, जबकि 68 प्रतिशत सहमत हैं कि यह सहिष्णुता को बढ़ावा देता है, और 53 प्रतिशत का मानना है कि धर्म अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं देता है।
इसके विपरीत, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी और यूके जैसे उच्च आय वाले देशों में अधिकांश उत्तरदाता इस तरह के प्रभाव के सख्त विरोध में हैं।
कुल मिलाकर सर्वेक्षण से पता चला कि 36 देशों में अधिकांश लोग धर्म को सकारात्मक रूप से देखते हैं, 77 प्रतिशत लोग इस बात से सहमत हैं कि धर्म समाज की मदद करता है। हालाँकि, मध्यम आय वाले देशों (87 प्रतिशत) में धर्म के प्रभाव को धनी देशों (56 प्रतिशत) की तुलना में अधिक अनुकूल रूप से देखा गया।
अध्ययन से यह भी पता चला कि कम शिक्षा और आय वाले व्यक्तियों के ‘धार्मिक राष्ट्रवादी’ के रूप में पहचाने जाने की संभावना अधिक थी। इसके अतिरिक्त, वैचारिक रूप से दक्षिणपंथी लोग वामपंथी या मध्यमार्गी लोगों की तुलना में ‘धार्मिक राष्ट्रवादी’ विचारों को रखने के लिए अधिक इच्छुक थे।
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