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गैसलाइट: कहाँ हैमिल्टन का नाटक और कहां चार्ल्स शोभराज?

चार्ल्स शोभराज एक ऐसा कुख्यात अपराधी रहा है जो मनोरंजन उद्योग में भी एक चरित्र के रूप में आ रहा है। उसे लेकर 2021 में `द सर्पेंट’ नाम से इंग्लैंड में एक वेबसीरिज भी बनी है। फिर हाल में आए वेबसीरिज `ब्लैक वारंट’ में भी वो एक चरित्र है और उसे लेकर मीडिया में काफी चर्चा भी हो रही है। और अब एक हिंदी नाटक में उसके जैसा एक चरित्र आ गया है। पिछले दिनों दिल्ली के एलटीजी ऑडिटोरियम में सौरभ श्रीवास्तव के निर्देशन में मंचित नाटक `गैसलाइट’ में भी शोभराज नाम का एक चरित्र है जो चार्ल्स शोभराज पर, ढीले-ढाले रूप में ही सही, आधारित है।

वैसे `गैसलाइट’ नाटक मूल रूप से तो अंग्रेजी नाटककर पैट्रिक हैमिल्टन का लिखा हुआ है। ये 1938 की रचना है और इस पर आधारित फ़िल्में भी बनी हैं। अंग्रेजी में भी और हिंदी में भी। अमेरिका में 1944 में ये फ़िल्म बनी और हिंदी में 2023 में पवन कृपलानी की इसी नाम से बनी फ़िल्म भी आई। हालाँकि हिंदी वाली फ़िल्म में नए तत्व भी जोड़े गए थे पर मूल विचार वही था।

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एलटीजी ऑडिटोरियम में जो नाटक मंचित हुआ वो हैमिल्टन के नाटक का हिंदी रूपांतर है। नाम वही है लेकिन रूपांतर बिल्कुल भारतीय परिवेश में किया गया। अब कोई पूछ सकता है कि कहाँ हैमिल्टन का नाटक और कहां चार्ल्स शोभराज? तार कहाँ जुड़ता है? 

तो चलिए जुड़नेवाले तार के बारे में बताते हैं। पहले नाम से शुरू करते हैं। अंग्रेजी के शब्द `गैसलाइट’ के दो अर्थ हैं। पहला तो यही कि रोशनी देने वाले प्रज्ज्वलित उपकरण को गैसलाइट कहते हैं। हिंदी में इसका एक रूप पंचलाइट भी है। धूम्रपान करनेवाले भी लाइटर इसीलिए इस्तेमाल करते हैं कि उससे सिगरेट -बीड़ी जल जाए। पर अंग्रेज़ी के शब्द गैसलाइटट का एक और मतलब है। जब कोई दूसरे को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करता है तो उसके लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेज़ी के शब्द ‘मैनिप्युलेट’ के पर्यायवाची के रूप में। 

हैमिल्टन के नाटक में जो मुख्य किरदार है वो भी अपने लाभ के लिए अपनी पत्नी का इस्तेमाल करता है। एक परपीड़क की तरह। सौरभ श्रीवास्तव ने अपने हिंदी रूपांतर में उस चरित्र को शोभराज नाम दिया है जो चार्ल्स शोभराज की याद दिलाता है। चार्ल्स शोभराज  भी एक बड़ा मैनिप्यूलेटर रहा है। वो बेहद निर्दयी हत्यारा भी रहा है। निर्देशक और रूपांतरकार सौरभ श्रीवास्तव पुलिस सेवा में रहे हैं शायद इसीलिए उन्होंने हैमिल्टन के अंग्रेजी नाटक को भारतीय परिवेश में ढालने के लिए शोभराज नाम का इस्तेमाल किया है। 
आखिर चार्ल्स शोभराज भारतीय पुलिस अधिकारियों के लिए भी पहेली रहा है। जिन लोगों ने शोभराज के चरित्र को `ब्लैक वारंट’ में देखा है उन्होंने महसूस किया होगा कि वो हमेशा कैप पहने रहता है। सौरभ श्रीवास्तव निर्देशित नाटक में मुख्य चरित्र शोभराज स्टाइल में कैप पहने रहता है।

यहाँ ये भी बता दिया जाए कि सौरभ श्रीवास्तव ने उस मुख्य चरित्र की भी भूमिका निभाई है। अर्थात `थ्री-इन वन’ जैसा मामला है। निर्देशक, रूपांतरकार और मुख्य अभिनेता- तीनों एक। हिंदी रूपांतर में मुख्य पात्र का वैसे नाम है मनजीत सिंह मान। मान देहरादून में रहता है। एक बड़ा सा मकान उसने अपनी पत्नी बेला (खुशबू बी. कमल) के पैसे से खरीदा है। बेला से उसका रिश्ता जटिल है। बेला हमेशा डरी डरी रहती है। मान उससे कहता रहता है कि वो चीजें भूलने लगी है। यानी कभी किराने की दुकान का बिल कहीं रखकर भूल जाती है तो कभी घर में रखी तस्वीर को छिपा देती है। पर अंत में मालूम होता है कि छुपाने का काम खुद मान करवा रहा था और इल्जाम अपनी पत्नी पर लगा रहा था। अंत में ये रहस्य खुलता है कि मान ने कई साल पहले उसी घर में हीरे के लिए एक बूढ़ी महिला की हत्या कर दी थी और तब उसका नाम शोभराज था। आगे चलकर उसने नाम बदल लिया। हालाँकि जब उसने बूढ़ी महिला की हत्या की तो उस वक़्त उसे हीरे नहीं मिले। मगर वो लगातार उन हीरों की खोज करता रहा और अपनी पत्नी को असामान्य बनाता रहा।

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मूल में भी और रूपांतर में भी `गैसलाइट’ एक मनोवैज्ञानिक थ्रिलर भी है। हालाँकि ये बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के पहले लिखा गया है लेकिन इसमें कई ऐसे तत्व हैं जो इसको सदाबहार बनाते हैं। इसीलिए आज भी ये होता रहता है। वजह शायद ये है कि आज भी दुनिया में ऐसे परपीड़क मगर धूर्त अपराधियों की संख्या काफी है जो अपने फ़ायदे के लिए किसी रिश्ते की परवाह नहीं करते और लोगों को अपने लिए इस्तेमाल करते हैं। इस नाटक में मान/शोभराज नाम का जो चरित्र है वो चालाक है, पढ़ा लिखा भी है और क्रूर भी। उसने अपनी पत्नी पर नज़र रखने के लिए एक अभिनेत्री (रिंकी ठाकुर) को नौकरानी के तौर पर रखा है। यहाँ एक खास बात ये है कि जो पुलिस अधिकारी (विनीत एम विश्वनाथन) शोभराज की खोज लंबे समय से कर रहा है वो जिस तरह मामले को लेकर साक्ष्य जुटा रहा है वो वाला दृश्य तनाव से भरा है और उसमें एक धुकधुकी भी है कि पता नहीं कब मान घर में आ जाए और कुछ लफड़ा हो जाए। ये लगभग पंद्रह मिनट का दृश्य है लेकिन नाटक को कसे रहता है।

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अंग्रेज़ी में एक शब्द-युग्म है `पुलिस प्रोस्यूडरल’। यानी पुलिस की जांच पड़ताल की शैली पर केंद्रित रचना। एक वक़्त में ये अपराध कथाओं वाली जासूसी कथा विधा के रूप में पेश किया जाता था पर उन फ़िल्मों और वेबसीरिज को भी `पुलिस प्रोस्यूडरल’ कहा जाता है जिनमें पुलिस के कारनामे होते हैं। हिंदी में खेली गई `गैसलाइट’ की प्रस्तुति भी `पुलिस प्रोस्यूडरल’ विधा की भी है। हैमिल्टन के नाटक का ये भारतीय व हिंदी रूपांतर भारतीय परिवेश में प्रामाणिक लगता है। ये दीगर बात है कि वास्तविक जीवन में भारतीय पुलिस जाने-अनजाने ठीक से तहकीकात नहीं करती और साक्ष्य जुटाने में ढिलाई बरतती है। इसलिए भी कई बार अपराधी क़ानून से बच निकलते हैं। पर ये अलग मसला है। यहां प्रासंगिक बिंदु ये है कि सौरभ श्रीवास्तव के नाटक में पुलिस प्रोस्यूडरल वाला पहलू भी दिखता है हालाँकि एक शातिर अपराधी कैसे अपने ही क़रीबियों का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करता है, ये पक्ष भी इसमें उभरता है।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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