यहां `बिदेसिया’ को आधुनिक नाटक क्यों कहा जा रहा है? वो इसलिए कि जो बात इसमें कही गई है, उसका एक ऐतिहासिक प्रसंग है। जब इसकी रचना हुई या जब ये पहली बार खेला गया तो भारत एक उपनिवेश था और उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई चल रही थी। उपनिवेशकालीन भारत में स्थानीय स्तर पर रोजगार की समस्या थी। खासकर बिहार मे जहाँ के भिखारी ठाकुर रहनेवाले थे। उस समय के बिहार में कई सारे पुरुष रोजगार की तलाश में कोलकोता (तब कलकत्ता), रंगून आदि चले जाते थे। कुछ तो एग्रीमेंट लेबर, स्थानीय बोलियों में गिरमिटिया मज़दूर, बन के फिजी-गायना भी चले जाते थे। इन सबको ही भोजपुरी में बिदेसिया कहा जाता था। `बिदेसिया’ नाटक में एक ऐसे परिवार की कथा है जिसका पुरुष बिदेसिया हो गया है। बिदेसिया के घर पर पत्नी होती है, अकेली। पति कई बरस बाद वापस लौटता है। कुछ बार दूसरी पत्नी के साथ। इसलिए `बिदेसिया’ नाटक में भारत मे पीड़ित पत्नी (या ये कहें कि पत्नियों की गाथा) है। बेशक ये एक बेहतर प्रस्तुति है और संजय उपाध्याय खुद भी संगीत प्रधान नाटक करने के लिए मशहूर हैं, इसलिए नाटक की कहानी के अतिरिक्त गायन और नाच वाला पक्ष भी बहुत अच्छे रूप से उभरा। पर कई बार होता ये है कि गायन और नृत्य के आलोक में दर्शक ये भूल जाता है कि जिस बात की अभिव्यक्ति यहां हो रही है उसका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य क्या है। उस परिप्रेक्ष्य को जानने के बाद ही ये समझ में आता है कि भिखारी ठाकुर के नाटकों का ऐतिहासिक सच और अर्थ क्या है और क्यों उनको आधुनिक नाटककार मानना चाहिए न कि लोक नाटककार। उनके द्वारा तैयार या रचे गए सभी नाटकों में उनकी सहानुभूति औरतों के पक्ष मैं है। संजय उपाध्याय द्वारा निर्देशित इस नाटक में भी ये मौजूद है।