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ऐसा `थ्री सिस्टर्स’ नहीं देखा!

रूसी नाटककार एंटन चेखव का नाटक `थ्री सिस्टर्स’ (तीन बहनें) हिंदी में भी बरसों से हो रहा है। इस बार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तीसरे और अंतिम वर्ष के छात्र-छात्राओं के लिए यहां की पूर्व छात्रा और चर्चित अभिनेत्री- रंगकर्मी मीता वसिष्ट ने इसका निर्देशन किया है। लगभग सवा सौ साल पहले, सन् 1900 में लिखा गया ये नाटक यथार्थवाद की दृष्टि से अहम रचना मानी जाती है। यथार्थवादी अभिनय सीखने- सिखाने के लिए एक संदर्भ भी। तत्कालीन रूस के अत्यंत प्रतिष्ठित निर्देशक स्तानिस्लावस्की ( जो आगे चलकर पूरी दुनिया में अभिनय गुरु बन गए) ने इसके लिखे जाने के तुरत बाद ही इसका निर्देशन किया था। वे और चेखव गहरे मित्र थे। हालांकि चेखव को स्तानिस्लावस्की के निर्देशन में हुई `थ्री सिस्टर्स’ की प्रस्तुति पसंद नहीं आई थी। चेखव का कहना था कि ये उदासी का नाटक है और स्तानिस्लावस्की ने इसमें आशा के तत्व पिरो दिए हैं।

ये अवांतर प्रसंग लग सकता है लेकिन यहां इसलिए बताया गया है कि ये एक जटिल नाटक है और इसीलिए हर निर्देशक के लिए चुनौती भी कि इसे किस तरह पेश करे। सवा सौ बरसों के विश्व रंगमंच के इतिहास में इस नाटक को कई देशों और भाषाओं में खेला गया है लेकिन ये सवाल तो हमेशा रहा है कि इसको उदासी और आशा के छोरों के बीच कहां रखें? मीता वसिष्ट ने इसमें दोनो छोरों के बीच एक संतुलन बनाए रखा है। यानी यहां भीतर निहित उदासी तो बरकरार रखी गई है लेकिन जिस तरह इसका अंत किया है उसमें मद्धिम आशा की लौ भी व्यक्त होती है।

नाम से ही जाहिर है कि ये तीन बहनों की कहानी है। ये हैं- ओल्गा, मारिया (माशा) और इरीना। एक भाई भी है– आंद्रेई। बड़ी यानी ओल्गा की शादी नहीं हुई है। वो स्कूल में पढ़ाती है। माशा की शादी कुलिजिन से हुई है जो एक शिक्षक है हालांकि वो कभी ओल्गा का प्रेमी था। माशा अपने जीवन से असंतुष्ट है और एक फौजी वर्शिनिन से प्यार करती है। सबसे छोटी इरीना की शादी नहीं हुई है और एक फौजी बैरन टुजेनबाख से शादी करना चाहती है मगर एक अन्य फौजी सोलिओनी भी उसे पाना चाहता है और वो इसके लिए जान लेने- देने पर उतारू है। भाई आंद्रेई नतालिया (नताशा) से प्रेम करता है और आखिरकार उससे शादी भी कर लेता है हालांकि वो तीनों बहनों की नजर में थोड़ी सी गंवारू है। जिस कालखंड में ये नाटक फैला है उसमें कुछ बरसों की घटनाएं शामिल हैं। तीनों बहनों से दिवंगत पिता भी फौज में थे इसलिए इस परिवार में फौजियों के प्रति एक लगाव है।  

कहानी घटित होती है रूस के पर्न नामक एक छोटे से शहर में जो मास्को से 800 किलोमीटर दूर है। मास्को का इस नाटक में खास महत्त्व है। तीनों बहनें अपने माता- पिता और भाई के साथ कभी मास्कों में रहती थीं। लेकिन बरसों पहले उन्हें उस शहर को छोड़ना पड़ा था। फिर भी मास्को उनके जेहन में बसा हुआ है। तीनों वहां लौटना चाहती हैं। खासकर इरीना। मगर ये चाहत क्या कभी पूरी होगी? भाई आंद्रेई भी मास्को जाकर वहां के विश्वविद्यालय में पढ़ाना चाहता है। मगर जुआखोरी की लत ऐसी लगती है कि कर्ज चुकाने के लिए घर को गिरवी रख देता है। घर में एक बूढ़ी नौकरानी अन्फीसा भी है जो हमेशा डरी रहती है कि कहीं उसे हटा न दिया जाए।

`थ्री सिस्टर्स’ अतृप्ति और अकेलेपन का नाटक है। फिराक गोरखपुरी का शेर है- जिंदगी क्या है आज इसे ए दोस्त सोच लें और उदास जाएं। कुछ कुछ यही सार है इस नाटक का। ये एक लंबा नाटक है। लगभग साढ़े तीन घंटे का। ये अवधि अक्सर दर्शकों के बीच आज के दौर में इस तरह की प्रतिक्रिया दे सकती है- अरे, इतना लंबा नाटक!  भारत में लोग आजकल डेढ़ घंटे के नाटकों के आदी हो रहे हैं। दो घंटे का नाटक भी लंबा लगता है। लेकिन `थ्री सिस्टर्स’ की ये प्रस्तुति साढ़े तीन घंटे की होकर भी किसी भी क्षण बोर नहीं करती है। ऐसा लगता है कि आप किसी शास्त्रीय संगीत के महफिल में बैठे हैं और कोई एक राग धीरे धीरे खुल और विस्तारित हो रहा है और आपको अपने आगोश  में ले रहा है। ये एक बड़ी निर्देशकीय सफलता है। सोचा जा सकता है  कि निर्देशक  और अभिनेताओं ने भी कितनी मेहनत की होगी। हर अभिनेता, (जिसमें अभिनेत्रियां भी शामिल हैं और दरअसल वही इसके केंद्र में हैं), ने  अपने चरित्र की बारीकी को गहरे में पकड़ा है और उसे अभिव्यक्त भी किया है। 
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प्रार्थना क्षेत्री (ओल्गा), मुस्कान कोस्टा (माशा), प्रगति शिंदे (इरीना) मंजुनाथ एच (आंद्रेई), बानी सेकिया (नताशा), अनिता बिटालू (अन्फीसा)  कबीर (वर्शिनिन), सुमित जी (टूजेनबाख), हेमंत कुमार (कुलिगीन) बिपिन यादव (चेबुटीकीन),  अमरेश कुमार (सोलियोनी), उन्नीनाया (पी पेराफोंट) – सब अपनी अपनी भूमिकाओं में लाजबाब थे। यहां ये बात भी रेखांकित किए जाने योग्य है कि एक अच्छे नाटक की एक कसौटी ये भी है उसमें अभिनेता अपने अपने चरित्रों का लगातार अन्वेषण करते रहे हैं क्योंकि ऐसे नाटकों के चरित्र बहुस्तरीय होते हैं और एक बार में पूरी तरह पकड़ में नहीं आते। साबरा हबीब का अनुवाद भी बहुत अच्छा है और राघव प्रकाश की प्रकाश परिकल्पना भी। प्रतिमा पांडे की वेशभूषा भी उत्कृष्ट है और जिल्स चुएन का नृत्य संयोजन भी आकर्षक है।

`थ्री सिस्टर्स’ एक नॉस्टल्जिया यानी अतीत - मोह भी है। तीनों बहनों और भाई से मास्को कब का छूट चुका है। लेकिन छूटकर भी नहीं छूटा है। मास्को उनके जेहन में है और निरंतर उसकी याद उनके भीतर बनी रहती है। `उधो, मोहि ब्रज बिसरत नाहीं’ की तरह। `थ्री सिस्टर्स’ एक त्रासदी भी है। तीनों बहनों की त्रासदियां कुछ मिली जुली भी  हैं  और अलग अलग भी। मिली जुली  इस तरह कि है वो एक छोटे से शहर में अपनी चाहतों के विपरीत रह रही है और वहां वो असहज हैं। उनकी अपनी अपनी निजी त्रासदियां भी हैं जो मंच पर पर कम किंतु  उनके मन में अधिक घटित होती है। ओल्गा की शादी नहीं हो पाती, माशा अपने पति से प्यार नहीं करती और जिससे करती है वो दूसरे शहर से चला जाता है। और इरीना जिस बैरन टुजेनबाख से शादी करना चाहती है और फिर उसके साथ मास्को जाना चाहती है वो एक द्वंद्वयुद्ध में सोलियोनी के हाथों मारा जाता है। तीनों बहनों की मास्को जाने की इच्छा ध्वस्त हो जाती है। इरीना तो बिखर ही जाती है। फिर भी ओल्गा उसे ढाढ़स देने की कोशिश करती है।

`थ्री सिस्टर्स’ की इस प्रस्तुति को देखना एक ऐसी मार्मिक अनुभूति से गुजरना है जो नाटक खत्म होने के बाद अधिक सघन होती जाती है। दर्शक के मन में।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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