2023 बीत गया, लेकिन पर्यावरण के लिहाज से अमिट छाप छोड़ गया! यह अब तक का सबसे गर्म साल रहा। इसकी पुष्टि यूरोपीय संघ के वैज्ञानिकों ने की है। यानी गर्म साल के मामले में 2023 ने इतिहास में नाम दर्ज कर लिया। वैसे, दुनिया के मौजूदा हालात को देखते हुए पक्के तौर पर यह भी नहीं कहा जा सकता है कि अगले ही साल या अगले एक दशक में इससे कहीं ज़्यादा गर्मी नहीं होगी! तो सवाल है कि यह कितनी बड़ी चेतावनी है?
गर्म होती दुनिया यानी ग्लोबल वार्मिंग को लेकर दुनिया भर में चिंताएँ हैं। चिंताएँ इसलिए कि दुनिया भर में प्रदूषण यानी ख़राब होती हवा का असर तापमान पर पड़ रहा है। हवा में कार्बन डाइऑक्साइड जैसे गैसों की मात्रा बढ़ रही है और इसका संतुलन बनाए रखने में अहम योगदान देने वाले पेड़ों की कटाई हो रही है। नतीजा सामने है। तापमान बढ़ रहा है और जलवायु परिवर्तन हो रहा है।
जलवायु परिवर्तन का असर यह हो रहा है कि मौसम अनपेक्षित हो गया है। कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ का कहर है। सर्दी पड़ रही है तो ऐसी कि रिकॉर्ड ही टूट रहे हैं। गर्मी भी ऐसी पड़ रही है कि पूरी दुनिया इसका असर महसूस कर रही है। हाल ही में इंग्लैंड सहित कई यूरोपीय देशों ने भीषण गर्मी झेली। कई ऐसी रिपोर्टें आई हैं जिनमें कहा गया है कि अगले कुछ दशकों में तापमान इतना बढ़ जाएगा कि यह असहनीय हो जाएगा और बड़े-बड़े ग्लेशियर पिघल जाएँगे। फिर तटीय इलाकों के डूबने का ख़तरा भी है।
इन्हीं चिंताओं के बीच अब 2023 का रिकॉर्ड संभलने की चेतावनी देता है। रायटर्स की रिपोर्ट के अनुसार यूरोपीय संघ की कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (सी3एस) ने मंगलवार को कहा है कि पिछला साल रिकॉर्ड के हिसाब से ग्रह का सबसे गर्म साल था और संभवतः पिछले 100,000 वर्षों में दुनिया का सबसे गर्म साल था।
यूरोपीय एजेंसी सी3एस ने पुष्टि की है कि 1850 से लेकर अब तक के वैश्विक तापमान रिकॉर्ड में 2023 सबसे गर्म वर्ष था।
बूनटेम्पो ने कहा कि जब पेड़ के छल्लों और ग्लेशियरों में हवा के बुलबुले जैसे स्रोतों से प्राप्त पेलियोक्लाइमैटिक डेटा रिकॉर्ड के आधार पर जांच की गई, तो इसके पिछले 100,000 वर्षों में सबसे गर्म वर्ष होने की बहुत संभावना है। औसतन 2023 में पृथ्वी 1850-1900 पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 1.48 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म थी, जब मनुष्यों ने औद्योगिक पैमाने पर जीवाश्म ईंधन जलाना शुरू किया, जिससे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ी।
2015 के पेरिस समझौते में देशों ने ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने से रोकने की कोशिश करने पर सहमति व्यक्त की, ताकि इसके सबसे गंभीर परिणामों से बचा जा सके।
गर्मी के घातक होंगे असर!
गर्मी से इस सदी के आख़िर तक तो हालात बेहद ख़राब होने की आशंका है। औद्योगीकरण के पूर्व के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक तापमान बढ़ने का आकलन किया गया है। कुछ महीने पहले आए नए शोध में भविष्यवाणी की गई है कि इस वजह से सदी के अंत तक दिल का दौरा और हीट स्ट्रोक के मामले बेहद घातक होंगे। इसमें भी भारत और पाकिस्तान सहित दुनिया के कुछ सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्रों में स्थिति ज़्यादा ख़तरनाक होगी।
यह शोध पेन स्टेट कॉलेज ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन डेवलपमेंट, पूर्ड्यू यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंसेज और पूर्ड्यू इंस्टीट्यूट फॉर ए सस्टेनेबल फ्यूचर ने किया है। शोध में कहा गया है कि यदि पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री तक बढ़ गया तो भारत और पाकिस्तान की ही क़रीब 220 करोड़ की आबादी प्रभावित होगी। इसके अलावा चीन की 100 करोड़ और उप-सहारा अफ्रीका क्षेत्र के 80 करोड़ लोग गंभीर हालात का सामना करेंगे। जो शहर इस मुश्किल हालात का खामियाजा भुगतेंगे उनमें दिल्ली, कोलकाता, शंघाई, मुल्तान, नानजिंग और वुहान जैसे शहर शामिल होंगे।
शोध में कहा गया है कि यदि पृथ्वी की ग्लोबल वार्मिंग औद्योगीकरण के पूर्व के स्तर से 3 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा हो जाती है तो ग्लोबल वार्मिंग का अमेरिका के भी अधिकतर हिस्सों, दक्षिण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तक पर भी बेहद ख़राब असर होगा।
ऐसा नहीं है कि दुनिया इसके ख़तरे से अनजान है। लेकिन देशों के बीच कार्बन उत्सर्जन पर सहमति ठीक से नहीं बन पा रही है। कोई भी देश अपने विकास से समझौता कर पर्यावरण बचाने का इच्छुक नहीं दिखता और इसकी ज़िम्मेदारी दूसरे देशों पर डालना चाहता है। हालाँकि, सहमति बनाने में काफी काम हुआ है और उम्मीद है कि इसपर देश आगे बढ़ेंगे। हाल ही में दुबई में COP28 जलवायु सम्मेलन के उद्घाटन दिवस पर कमजोर देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने में मदद करने के लिए एक हानि और क्षति कोष आधिकारिक तौर पर लॉन्च किया गया है। प्रारंभिक फंडिंग $475 मिलियन होने का अनुमान है। संयुक्त अरब अमीरात ने $100 मिलियन का वादा किया, यूरोपीय संघ ने $275 मिलियन, अमेरिका से $17.5 मिलियन और जापान से $10 मिलियन का वादा किया गया है। उम्मीद है कि इस तरह की शुरुआतों से ही पर्यावरण पर देश ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने का लक्ष्य हासिल कर पाएँगे।
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