पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में परंपरागत विरोधी रही कांग्रेस और वामपंथी दलों का हाथ मिलाना, पार्टी में असंतोष के कारण कुछ महीने पहले ही मुख्यमंत्री बदलना, सरकार में सहयोगी इंडीजीनस पीपुल्स प्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के साथ रिश्तों में खटास, टिपरा मोथा जैसे क्षेत्रीय दलों का उभार और बीते करीब डेढ़ साल से राज्य में पांव जमाने की कवायद में जुटी तृणमूल कांग्रेस----अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा की राह में ऐसे तमाम स्पीड ब्रेकर हैं. शायद यही वजह है कि नाक की इस लड़ाई में अपने पैरों तले की जमीन बचाने के लिए राज्य में चुनावी एलान के साथ ही हिंसा भी शुरू हो गई है.
पूर्वोत्तर में अगर असम को छोड़ दें तो बाकी राज्यों के विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय राजनीति में खास अहमियत नहीं रखते. लेकिन वर्ष 2018 में त्रिपुरा ने सुर्खियां इसलिए बटोरी थी कि वहां भाजपा ने इलाके की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले हिमंता बिस्वा सरमा की सहायता से लंबे समय से राज करने वाले वामपंथियों को सत्ता से बाहर का दिखा दिया था. और ठीक पांच साल बाद अब खुद उसे भी सत्ता में वापसी की राह में ऊपर लिखी तमाम दिक्कतों से जूझना पड़ रहा है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि अबकी भाजपा की मुश्किलों के चलते ही यह चुनाव एक बार फिर सुर्खियों में है.
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राज्य की राजनीति में धुर विरोधी रही कांग्रेस और वामपंथी दलों ने भाजपा से मुकाबले के लिए कमर कसते हुए चुनावी तालमेल किया है. सीपीएम ने तो सत्ता में आने की स्थिति में हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर यहां भी पुरानी पेंशन योजना बहाल करने का भरोसा दिया है. राज्य के 28 लाख वोटरों में 1.04 लाख सरकारी कर्मचारी और करीब 81 हजार पेंशनभोगी हैं. ऐसे में कोई भी राजनीतिक दल उनकी अनदेखी नहीं कर सकता. सीपीएम के प्रदेश सचिव जितेंद्र चौधरी कहते हैं कि यह मुद्दा पार्टी के घोषणापत्र में शामिल होगा. हम लंबे समय से इसकी मांग कर रहे हैं.
इस गठबंधन ने शनिवार को राजधानी अगरतला में एक रैली के जरिए अपने चुनाव अभियान का श्रीगणेश कर दिया है. इस राज्य की राजनीति में यह पहला मौका था जब लोगों ने कांग्रेस और सीपीएम के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों-समीर चंद्र बर्मन और माणिक सरकार को एक साथ किसी रैली में देखा.
वर्ष 2018 में त्रिपुरा की 60 सीटों में से 59 सीटों पर चुनाव हुए थे. चारीलाम सीट से सीपीएम उम्मीदवार रामेंद्र नारायण देबबर्मा के निधन के कारण इस सीट पर चुनाव नहीं हो सका था. भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए 35 सीटों पर जीत दर्ज की थी जबकि सीपीएम सिर्फ 16 सीटों पर ही सिमट गई थी. भाजपा की सहयोगी पार्टी इंडीजीनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) ने आठ सीटें जीती थी.
राज्य में राजघराने से संबंध रखने वाले प्रद्योत देबबर्मा के नेतृत्व वाले क्षेत्रीय दल टिपरा मोथा ने हालांकि कांग्रेस-सीपीएम गठबंधन और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन की परेशानी बढ़ा दी है. यही वजह है कि सत्ता के दोनों दावेदार उसे अपने पाले में खींचने का प्रयास कर रहे हैं. ग्रेटर टिपरालैंड की मांग कर रहे टिपरा मोथा की आदिवासी बहुल 20 सीटों पर खासी पकड़ है और कई स्वायत्त परिषदों पर भी उसका कब्जा है. बर्मा ने कहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी 40 से 45 सीटों पर उम्मीदवारों को खड़ा करेगी. उनका कहना है कि वह तब तक किसी दल के साथ गठबंधन नहीं करेंगे जब तक उनको ग्रेटर टिपरालैंड पर लिखित भरोसा नहीं मिल जाता.
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दूसरी ओर, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी अबकी पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरने की योजना बना रही है. दरअसल, पार्टी ने 2021 के बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक लगाने के बाद ही त्रिपुरा पर ध्यान केंद्रित किया है. उसके नेता लगातार राज्य का दौरा करते रहे हैं. उस दौरान कई बार हिंसा हुई है और पार्टी के नेताओं के खिलाफ दर्जनों मामले भी दर्ज किए गए हैं. खुद ममता फरवरी के पहले सप्ताह में चुनाव प्रचार के लिए त्रिपुरा पहुंचेगी.
उधर, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा ने कम से कम 50 सीटों पर पार्टी की जीत का दावा करते हुए कहा है कि अबकी विकास ही भाजपा का मुख्य चुनावी मुद्दा होगा.
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