देश को डराने की पहली ज़रूरत यही हो सकती है कि सबसे पहले उस मीडिया को डराया जाए जो अभी भी सत्ता की वफ़ादारी निभाने से इनकार कर रहा है! सीनियर सम्पादकों के ख़िलाफ़ मुक़दमों के साथ-साथ युवा फ़्रीलान्स पत्रकारों की गिरफ़्तारी आने वाले दिनों का वैसा ही ‘मीडिया सर्वेक्षण’ है जैसा कि बजट के पहले ‘आर्थिक सर्वेक्षण’ पेश किया जाता है। यह ‘आपातकाल’ से भी आगे वाली ही कुछ बात नज़र आती है। विडम्बना है कि हाल-फ़िलहाल तक तो किसान आंदोलन को मीडिया के सहारे की ज़रूरत थी, अब मीडिया को ही उसके नैतिक समर्थन की ज़रूरत पड़ गई है।
सरकार ने अपने मंत्रालयों के दरवाज़े पत्रकारों के लिए काफ़ी पहले इसलिए ‘बंद’ कर दिए थे कि वे वहाँ से ख़बरें ढूँढकर जनता तक नहीं पहुँचा पाएँ। इसकी शुरुआत निर्मला सीतारमण के वित्त मंत्रालय से हुई थी। अब, जब पत्रकार सड़कों से भी ख़बरें ढूँढ कर लोगों तक पहुँचा रहे हैं, उन्हें ही ‘बंद’ किया जा रहा है। जनता समझ ही नहीं पा रही है कि हक़ीक़त में कौन किससे डर रहा है!
देश में जैसे लोकतंत्र की ‘ज़रूरत से ज़्यादा’ उपलब्धता को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं वैसा ही कुछ-कुछ मीडिया को उपलब्ध ‘ज़्यादा आज़ादी’ के संदर्भ में भी चल रहा है। माना जा रहा है कि सरकार को अपने आर्थिक सुधारों को एक-दलीय व्यवस्था वाले चीन के मुक़ाबले तेज़ी से लागू करने के लिए स्वतंत्र मीडिया की ज़रूरत ही नहीं है। ग़ौर किया जा सकता है कि कोरोना से बचाव के सिलसिले में प्राथमिकता के आधार पर जिन्हें ‘फ़्रंट लाइन वारियर्स’ मानकर टीके लगाए जा रहे हैं उनमें मीडिया के लोग शामिल नहीं हैं। शायद मान लिया गया है कि वे तो देश और सरकार के लिए वैसे ही अपनी जानें क़ुर्बान करने के लिए होड़ में लगे रहते हैं।
नागरिक समाज में लोग जो धृतराष्ट्र की भूमिका में उपस्थित हैं वे भी बिना किसी संजय की मदद के देख पा रहे हैं कि ‘मेन स्ट्रीम‘ या ‘मुख्य धारा’ के लगभग सम्पूर्ण ‘हाथी मीडिया’ पर इस समय व्यवस्था के महावत ही क़ाबिज़ हैं। परिणाम यह हो यह रहा है कि इस ‘हाथी मीडिया’ की ‘ब्रेकिंग’ या ‘एक्सक्लूसिव न्यूज़’ को भी दर्शक और पाठक ‘एक और सरकारी घोषणा’ की तरह ही अविश्वसनीय मानकर ख़ारिज करते जा रहे हैं।
यही वह मीडिया भी है जो उच्च पदों पर आसीन बड़े-बड़े लोगों की आम जनता के बीच लोकप्रियता के ‘ओपीनियन पोल्स’ और चुनावों की स्थिति में उसके कारण मिल सकने वाली सीटों की अतिरंजित भविष्यवाणियाँ मतदाताओं में बाँटकर सत्ताओं के पक्ष में माहौल तैयार करता नहीं थकता।
इस सब के बीच भी सांत्वना देने वाली बात यह है कि कुछ पत्रकार अभी भी हैं जो तमाम अवरोधों और व्यवधानों के बावजूद मीडिया की आज़ादी के लिए काम कर पा रहे हैं। चीजों का अभी साम्यवादी मुल्कों की तरह क्रूरता और दमन के शिखरों तक पहुँचना बाक़ी है। हो यह रहा है कि खेती की ज़मीन को बचाने की लड़ाई का नेतृत्व अब जिस तरह से छोटे किसान कर रहे हैं, मीडिया की ज़मीन को बचाने की लड़ाई भी छोटे और सीमित संसाधनों वाले पत्रकार ही कर रहे हैं। ये ही वे पत्रकार हैं जिन्हें छोटी-छोटी जगहों पर सबसे ज़्यादा अपमान, तिरस्कार और सरकारी दमन का शिकार होना पड़ता है। हत्याएँ भी इन्हीं की होती हैं।
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बताया गया है कि इन अकाउंट्स को बंद करने की माँग किसान आंदोलन के चलते क़ानून-व्यवस्था की स्थिति न बिगड़ने देने के प्रयासों के तहत की गई थी। इसी आधार पर आगे चलकर और भी बहुत कुछ बंद करवाया जा सकता है।
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