देश को डराने की पहली ज़रूरत यही हो सकती है कि सबसे पहले उस मीडिया को डराया जाए जो अभी भी सत्ता की वफ़ादारी निभाने से इनकार कर रहा है! सीनियर सम्पादकों के ख़िलाफ़ मुक़दमों के साथ-साथ युवा फ़्रीलान्स पत्रकारों की गिरफ़्तारी आने वाले दिनों का वैसा ही ‘मीडिया सर्वेक्षण’ है जैसा कि बजट के पहले ‘आर्थिक सर्वेक्षण’ पेश किया जाता है। यह ‘आपातकाल’ से भी आगे वाली ही कुछ बात नज़र आती है। विडम्बना है कि हाल-फ़िलहाल तक तो किसान आंदोलन को मीडिया के सहारे की ज़रूरत थी, अब मीडिया को ही उसके नैतिक समर्थन की ज़रूरत पड़ गई है।
लोकतंत्र की सड़क लंबी है; सरकार की कीलें कम पड़ेंगी!
- विचार
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- 3 Feb, 2021

किसान ‘कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग’ से लड़ रहे हैं और पत्रकार ‘कांट्रैक्ट जर्नलिज़्म’ से। व्यवस्था ने हाथियों पर तो क़ाबू पा लिया है पर वह चींटियों से डर रही है। ये पत्रकार अपना काम उस सोशल मीडिया की मदद से कर रहे हैं जिसके माध्यम से ट्यूनिशिया और मिस्र सहित दुनिया के कई देशों में बड़े अहिंसक परिवर्तन हो चुके हैं।
सरकार ने अपने मंत्रालयों के दरवाज़े पत्रकारों के लिए काफ़ी पहले इसलिए ‘बंद’ कर दिए थे कि वे वहाँ से ख़बरें ढूँढकर जनता तक नहीं पहुँचा पाएँ। इसकी शुरुआत निर्मला सीतारमण के वित्त मंत्रालय से हुई थी। अब, जब पत्रकार सड़कों से भी ख़बरें ढूँढ कर लोगों तक पहुँचा रहे हैं, उन्हें ही ‘बंद’ किया जा रहा है। जनता समझ ही नहीं पा रही है कि हक़ीक़त में कौन किससे डर रहा है!