साहिर लुधियानवी को इस दुनिया से रुखसत हुए एक लंबा अरसा हो गया, मगर उनकी शायरी आज भी उनके चाहने वालों के सिर चढ़कर बोलती है। उर्दू अदब में उनका कोई सानी नहीं। विद्यार्थी जीवन में ही साहिर लुधियानवी की गजलों, नज्मों का पहला काव्य संग्रह ‘तल्खियाँ’ प्रकाशित हुआ। यह संग्रह रातों-रात पूरे मुल्क में मशहूर हो गया। साहिर लुधियानवी अपनी तालीम पूरी करने के बाद, नौकरी की तलाश में लाहौर आ गए। ये दौर उनके संघर्ष का था। उन्हें रोज़ी-रोटी की तलाश थी। बावजूद इसके साहिर ने लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ा। तमाम तकलीफों के बाद भी वह लगातार लिखते रहे। एक वक्त ऐसा भी आया, जब उनकी रचनाएँ उस दौर के उर्दू के मशहूर रिसालों ‘अदबे लतीफ’, ‘शाहकार’ और ‘सबेरा’ में अहमियत के साथ शाया होने लगीं। लाहौर में कयाम के दौरान ही वह प्रगतिशील लेखक संघ के संपर्क में आए और इसके सरगर्म मेम्बर बन गए। संगठन से जुड़ने के बाद उनकी रचनाओं में और भी ज़्यादा निखार आया। मार्क्सवादी विचारधारा ने उनकी रचना को अवाम के दुःख-दर्द से जोड़ा। अवाम के संघर्ष को उन्होंने अपनी शायरी में आवाज दी। साहिर लुधियानवी का शुरुआती दौर, देश की आज़ादी के संघर्षों का दौर था। देश के सभी लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी अपनी रचनाओं एवं कला के ज़रिए आजादी का अलख जगाए हुए थे। गोया कि साहिर भी अपनी शायरी से यही काम कर रहे थे। उनकी एक नहीं कई गजलें हैं, जो अवाम को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उठने की आवाज देती हैं। एक गजल में वह कहते हैं,
साहिर लुधियानवी: जुल्म फिर जुल्म है बढ़ता है, तो मिट जाता है...
- साहित्य
- |
- |
- 25 Oct, 2020

आज यानी 25 अक्टूबर को साहिर लुधियानवी की पुण्यतिथि है।
‘‘सरकश बने हैं गीत बगावत के गाये हैं/बरसों नए निजाम के नक्शे बनाये हैं।’’
तो दूसरी गजल में वह कहते हैं,
‘‘फ़ाक़ा-कशों के ख़ून में है जोश-ए-इंतिक़ाम/सरमाया के फ़रेब जहाँ-पर्वरी की ख़ैर/… एहसास बढ़ रहा है हुकूक-ए-हयात (जीवन के अधिकारों) का/पैदाइशी हुकूक-सितम-पर्वरी (अत्याचार करने के जन्मसिद्ध अधिकारों) की खैर।’’
साहिर की इन रचनाओं में वर्ग चेतना स्पष्ट दिखलाई देती है। अपने हक, हुकूक के लिए एक तड़प है, जो उनकी शायरी में मुखर होकर नुमायाँ हुई है।