‘फ़िराक़ हूँ और न जोश हूँ मैं, मजाज़़ हूँ सरफरोश हूँ मैं।’
मजाज़ : न हिंदू चला गया, न मुसलमान चला गया
- साहित्य
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- 19 Oct, 2020

तरक्की पसन्द और इन्कलाबी शायर मजाज़ लखनवी का आज जन्मदिन है। 19 अक्टूबर 1911 को उनको जन्म हुआ था।
शेर-ओ-अदब की महफिल में जब भी रूमानियत और इंकलाबियत भरी ग़ज़लों-नज़्मों का ज़िक्र छिड़ता है, मजाज़ लखनवी का नाम अव्वल नंबर पर आता है। एक लंबा अरसा गुज़र गया, मगर मजाज़ की शायरी की धमक कम नहीं हुई। आज भी मजाज़, अवाम के महबूबतरीन शायर हैं।
मजाज़ के अलावा और भी ऐसे कई शायर हैं, जिन्हें अपने ज़माने में ख़ूब शोहरत मिली लेकिन मजाज़ की मकबूलियत कुछ और ही है। मजाज़ के समूचे कलाम में दिलों के अंदर उतर जाने की जो कैफियत है, वह बहुत कम लोगों को नसीब हुई है। मजाज़ की ख़ूबसूरत, पुरसोज शायरी के पहले भी सभी दीवाने थे और आज भी उनकी मौत के इतने सालों बाद, यह दीवानगी ज़रा सी कम नहीं हुई है। मजाज़ सरापा मुहब्बत थे। तिस पर उनकी शख्सियत भी दिलनवाज थी।
वह जब अपनी सुरीली आवाज़ और ख़ूबसूरत तरन्नुम में नज़्म पढ़ते तो चारों और खामोशी पसर जाती। सामयीन उनकी नज़्मों में डूब जाते। बाज आलोचक उन्हें उर्दू का कीट्स कहते थे तो फ़िराक़ गोरखपुरी की नज़र में-
‘अल्फाजों के इंतखाब और संप्रेषण के लिहाज से मजाज़, फ़ैज़़ के बजाय ज़्यादा ताक़तवर शायर थे।’