कुछ समय पहले जब बुकर की लांग लिस्ट आई थी तो उसमें पहली किसी हिंदी लेखक का उपन्यास नज़र आया। पता चला कि गीतांजलि श्री के उपन्यास 'रेत समाधि' का अंग्रेज़ी अनुवाद Tomb of Sand बुकर लांग लिस्ट के लिए चुनी गई 13 कृतियों में शामिल है। अचानक बहुत सारे लोग पूछने लगे कि यह गीतांजलि श्री कौन हैं?
बेशक, इस सवाल में भी हिंदी समाज और साहित्य दोनों की एक विडंबना झांकती है। दोनों को एक-दूसरे के जितने करीब होना चाहिए, उतने वे नहीं हैं।
बहरहाल, गीतांजलि श्री पर लौटें। वे हिंदी की दुनिया की जानी-मानी कथाकार और उपन्यासकार हैं। उनका पहला उपन्यास 'माई' था। दूसरा उपन्यास 'हमारा शहर उस बरस' नब्बे के दशक में आया था। वह सांप्रदायिकता पर केंद्रित हमारे समय के सबसे संजीदा उपन्यासों में एक है। उसके कुछ साल बाद उनका तीसरा उपन्यास 'तिरोहित' आया।
यह किसी लेखिका द्वारा लिखा गया हिंदी में स्त्री समलैंगिकता पर संभवत: पहला उपन्यास होगा। लेकिन यह उपन्यास दरअसल बहुत सूक्ष्मता से तीन किरदारों के आपसी रिश्तों की बात करता है। उसे किसी सनसनीख़ेज़ दृष्टि से पढ़ने की कोशिश करना ख़ुद को मायूस करना होगा, क्योंकि यह पूरा उपन्यास इस गझिनता से बुना हुआ है कि इसके भीतर बहुत सावधानी से ही दाख़िल हुआ जा सकता है। उनका चौथा उपन्यास 'ख़ाली जगह' था और अब कुछ बरस पहले 'रेत समाधि' प्रकाशित हुआ है।
गीतांजलि श्री ने एक दौर में कहानियाँ भी लिखी हैं और 'वैराग्य' और 'यहां हाथी रहते थे' जैसे उनके कहानी संग्रहों में कई मार्मिक-मनोवैज्ञानिक कहानियां हैं। गीतांजलि श्री दरअसल एक जटिल कथाकार हैं जो बाहर और भीतर की दुनिया को एक साथ साधती हैं।
अगर आप उनके लेखन में रोमांचक तत्व खोजने की कोशिश करेंगे, मनबहलाव वाली कोई कहानी चाहेंगे, एक तेज़ रफ़्तार सिलसिला चाहेंगे तो निराश होंगे। लेकिन अगर आपको गहरी और संवेदनशील यात्रा पर निकलना है, अगर आपको बाहर के शोर और भीतर के सन्नाटे के बीच बनती-टूटती परतों को पहचानना है, अगर आपको बदलावों और ठहरावों को बारीकी से समझना है, तो उनका लेखन शायद आपकी मदद कर सकता है।
गीतांजलि श्री के पति सुधीरचंद्र जाने-माने इतिहासकार हैं- ख़ास कर गांधी दृष्टि को लेकर उनका काम उल्लेखनीय है। इन दिनों यह संवेदनशील-बौद्धिक परिवार गुड़गांव में रहता है। वैसे उनका घर दिल्ली में भी है। हालांकि इस लेखक को सुधीरचंद्र ने पिछले दिनों एक लंबे इंटरव्यू में कहा था कि दुनिया में उनके कई ठिकाने हैं- मैनपुरी से लेकर पेरिस तक- और वे खुद को उन्नीसवीं सदी का निवासी मानते हैं, बीसवीं सदी के प्रवासी हैं।
खुद गीतांजलि श्री अपने समय की चौकस प्रहरी हैं- ऊपरी और स्थूल रूपाकारों के भीतर झांककर उनके बेडौल सिरों को पहचानने का कौशल उन्होंने अपनी दृष्टि से अर्जित किया है और अपनी भाषा से साधा है। हम बस शुभकामना दे सकते हैं कि 26 मई को बुकर सम्मान घोषित हो तो उनके लिए हो। लेकिन अगर न भी हो तो वे हमारे समय की बड़ी और संवेदनशील लेखिका हैं। लेखक पुरस्कारों से नहीं, अपनी कृतियों से बड़े होते हैं- पुरस्कार बस उन्हें पहचान के नए इलाक़ों में ले जाने का ज़रिया हो पाते हैं।
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