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जब हर तरफ़ राष्ट्रवाद का शोर है, राष्ट्रगान गाने पर ज़ोर है, तब रवींद्रनाथ टैगोर को याद करने का एक ख़ास मतलब है। टैगोर संभवतः दुनिया के अकेले कवि हैं जिनकी रचनाओं को दो-दो देशों ने अपने राष्ट्रगान की तरह अपनाया। भारत के अलावा बांग्लादेश का राष्ट्रगान भी उनकी ही रचना है। यही नहीं, श्रीलंका का राष्ट्रगान भी जिस आनंद समरकून ने लिखा, वे टैगोर के शिष्य थे- उन्होंने विश्व भारती से पढ़ाई की थी।
कई लोगों का मानना है कि जिस गीत को श्रीलंका का राष्ट्रगान बनाया गया है, उसका संगीत टैगोर ने ही तैयार किया था।
इसके अलावा स्वतंत्रता की भावना पर दुनिया की जो सबसे अच्छी कविताएँ हैं, उनमें एक टैगोर की भी है। उन्होंने स्वतंत्रता के उस स्वर्ग में भारत के जागने की कामना की थी-
'जहां चित्त भय से शून्य हो
जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें
जहां ज्ञान मुक्त हो
जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर
छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों'।
(यह मूल कविता के शिवमंगल सिंह सुमन द्वारा किए गए अनुवाद का अंश है।)
लेकिन जो कवि तीन-तीन राष्ट्रगानों के साथ जुड़ा हो, वह राष्ट्रवाद को लगातार गहरे संदेह से देखता रहा, ख़ारिज करता रहा। 1908 में अपने दोस्त ए एम बोस को लिखी उनकी चिट्ठी का यह वाक्य अब बेहद मशहूर हो चुका है - “राष्ट्रवाद हमारा अंतिम आध्यात्मिक शरण्य नहीं हो सकता। मैं हीरे की क़ीमत पर काँच नहीं खरीदूंगा और जब तक जीवित हूँ तब तक देशभक्ति को अपनी मनुष्यता पर हावी होने नहीं दूंगा।”
लेकिन टैगोर ने इससे भी सख़्त शब्द इस्तेमाल किए हैं। आगे एक जगह उन्होंने लिखा है, “हालाँकि बचपन से मुझे सिखाया गया है कि राष्ट्र की पूजा ईश्वर या मनुष्यता के प्रति श्रद्धा से बड़ी है, मैं मानता हूँ कि मैंने उस शिक्षण को पीछे छोड़ दिया है। और मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मेरे देशवासी तभी वह वास्तविक भारत पा सकेंगे जब वे उस शिक्षा का विरोध करेंगे जो उन्हें सिखाती हो कि देश मनुष्यता के विचारों से बड़ा होता है।”
टैगोर राष्ट्रवाद से इस क़दर आक्रांत क्यों दिखते हैं? इसलिए कि उन्होंने उस यूरोप को देखा था जहां यह राष्ट्रवाद पैदा हुआ। वे भारत पर इस राष्ट्रवाद का प्रहार देख रहे थे।
वह जापान से होकर आए थे और देख रहे थे कि किस तरह जापान को एक राष्ट्रवादी जुनून की घुट्टी पिलाई जा रही थी। यूरोप, जापान और भारत के राष्ट्रवाद पर उनके जिन तीन वक्तव्यों का बार-बार उल्लेख होता है, उनमें वे बहुत सूक्ष्मता से इस बात की पड़ताल करते मिलते हैं कि किस तरह राष्ट्रवाद ने पश्चिमी सभ्यता के श्रेष्ठ मूल्यों को भी नष्ट किया है। वे याद दिलाते हैं कि पश्चिम की भावना और पश्चिम के राष्ट्र के द्वंद्व की वजह से भारत पीड़ित है। पश्चिमी सभ्यता के फ़ायदे यहाँ इतनी कंजूसी से पहुँचाए जा रहे हैं कि राष्ट्र पोषण का बिल्कुल शून्य स्तर पर नियमन करने की कोशिश कर रहा है और शिक्षा इतनी अपर्याप्त दी जा रही है कि इससे पश्चिमी मनुष्यता को आहत होना चाहिए।
टैगोर बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, “सच्चाई यह है कि पश्चिमी राष्ट्रवाद के केंद्र और मूल में संघर्ष और विजय की भावना है, सामाजिक सहयोग इसका आधार नहीं है। इसने सत्ता का एक विशुद्ध संगठन विकसित कर लिया है, लेकिन आध्यात्मिक आदर्शवाद का नहीं। ये आखेटक जीवों के ऐसे झुंड की तरह है जिसे हर हाल में अपने शिकार चाहिए। अपने दिल से यह अपने आखेट के इलाक़ों को उपजाऊ खेतों में बदलता नहीं देख सकता।”
ये बहुत लंबे लेख हैं- हमारा कवि राजनीतिक सभ्यता से बुरी तरह टूटा हुआ है और राष्ट्रवाद के अतिरेक देख रहा है, उसकी पूरी दृढ़ता से विरोध कर रहा है। अपने एक साक्षात्कार में आशीष नंदी ने बताया है कि टैगोर जब जापान पहुंचे तो उनका बिल्कुल शाही स्वागत हुआ। लेकिन जैसे-जैसे वे वहां अलग-अलग शहरों में अपने व्याख्यान देते रहे, वे अकेले पड़ते गए और जब वे जापान से निकल रहे थे तो उनको विदा देने के लिए उनके मेज़बान के अलावा और कोई वहां नहीं था।
लेकिन दुनिया अपनी बेख़बर हिंसा और आक्रामकता में जैसे टैगोर को सही साबित करने पर तुली हुई थी।
उनके देखते-देखते पहला विश्वयुद्ध छिड़ता और ख़त्म होता है, भारत में ब्रिटिश राष्ट्र का दमन अपने चरम पर पहुँचता है और जर्मनी में उसी घायल राष्ट्रवाद की कोख से निकला हिटलर जैसे उनके राष्ट्रवाद विरोधी सिद्धांत की अंतिम पुष्टि की तरह आता है। यह अनायास नहीं है कि जिस साल टैगोर का निधन हुआ, उसी साल पर्ल हार्बर में जापान ने अचानक हमला कर दूसरे विश्वयुद्ध में अमेरिकी हिस्सेदारी सुनिश्चित कर दी। 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर गिरे परमाणु बम दरअसल पर्ल हार्बर का भी प्रतिशोध थे वरना तब तक जर्मनी-जापान टूट चुके थे।
लेकिन इन सारी बातों से आज के भारत का क्या मतलब है? बस इतना कि जिस खौलते हुए राष्ट्रवाद ने पश्चिम और जापान को झुलसाया, वह हमारे यहाँ कहीं ज़्यादा वीभत्स तरीक़े से पोसा-पाला जा रहा है।
दूसरी बात यह कि जिस सांप्रदायिकता का वैचारिक समर्थन किसी आधार पर नहीं किया जा सकता, उसे हमारे यहां राष्ट्रवाद के कवच में बचाया जा रहा है। पश्चिम का बीमार राष्ट्रवाद अगर सत्ता और शक्ति के खेल से विकसित हुआ और अंततः अपने अंतर्विरोधों से नष्ट हो रहा है, तो भारत का राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता, बहुसंख्यकवाद और सैन्यवाद के गठजोड़ से मज़बूत किया जा रहा है जिसे एक दिन टूटना है। लेकिन इस बात का ख़याल हमें रखना होगा कि तब तक हमें हिटलर के दौर की जर्मनी जैसी नियति न भुगतनी पड़े।
ख़तरनाक बात यह है कि जब ऐसे राष्ट्रवाद का नशा तारी होता है तब कोई तर्क काम नहीं करता। यह कवि गुरु ने ही लिखा था- “राष्ट्रवाद इंसान का बनाया हुआ सबसे ताक़तवर एनिस्थीसिया है।”
(प्रियदर्शन की फ़ेसबुक वाल से)
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