इन दिनों बस फ़िल्म 'कश्मीर फाइल्स' की चर्चा है। निश्चय ही नब्बे के दशक में कश्मीरी पंडितों को जो कुछ झेलना पड़ा, वह त्रासदी से कम नहीं था। हालाँकि ऐसी त्रासदियाँ अपनी पूरी क़ीमत वसूल करती हैं। इस त्रासदी ने भी की। कश्मीरी आतंकवाद की उचित निंदा के क्रम में वह दूसरी त्रासदी भुला दी गई जो घाटी के मुसलमानों के साथ अरसे तक घटती रही। वे सब आतंकवादी नहीं थे, सदियों से कश्मीरी पंडितों के साथ रह रहे थे। आतंकवाद की मार उन्हें भी झेलनी पड़ी। उनके घरों के पिछवाड़े क़ब्रों से भर गए। वे भी अपने बच्चों की लाशें खोजते रहे। कश्मीर पर संजय काक की बनाई तीन घंटे से ऊपर की डॉक्यूमेंट्री 'जश्ने आज़ादी' देखते हुए समझ में आता है कि इस त्रासदी ने एक पूरी आबादी पर कैसे दोहरी मार की है।
लेकिन कश्मीरी पंडित विस्थापित हों या कश्मीरी मुसलमान मारे जाएँ, बाक़ी भारत के लिए वह बस राजनीति का मसला है। विस्थापन बहुत तकलीफ़देह चीज़ है- हमें इसको लेकर संवेदनशील होना चाहिए। अपना घर-बार छोड़कर भटकते और अपनी पीड़ा साझा करते कश्मीरी पंडितों को हम सबने देखा है। इस विराट त्रासदी के आगे भी कश्मीरी पंडितों की मनुष्यता बची रही- इसमें भी संदेह नहीं।
मगर क्या भारत में सिर्फ़ कश्मीरी पंडित विस्थापित हुए हैं? ठीक है कि धर्म के नाम पर सिर्फ़ उन्हीं को विस्थापित होना पड़ा। यह एक तरह से भारतीय लोकतंत्र की सैद्धांतिक और भारत सरकार की राजनीतिक विफलता थी क्योंकि वह सरकार अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा नहीं कर सकी। लेकिन वह सरकार किसकी थी और उसे समर्थन कौन दे रहा था?
विश्वनाथ प्रताप सिंह की उस सरकार से बीजेपी ने तब समर्थन वापस लिया जब लालकृष्ण आडवाणी अपनी रथ यात्रा के दौरान समस्तीपुर में गिरफ़्तार किए गए। आज कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर रो रही बीजेपी के लिए लेकिन तब आडवाणी की गिरफ़्तारी कहीं ज़्यादा बड़ी घटना थी वरना विस्थापन के विरोध में भी वह समर्थन वापस ले सकती थी। यही नहीं, इस विस्थापन को मूकदर्शक की तरह देखते ही नहीं, उस में सहयोग करते तब के राज्यपाल जगमोहन को बीजेपी ने अपनी सरकार में विनिवेश मंत्रालय दिया जो शहरी विकास और पर्यटन का इंतज़ाम देखते रहे।
बहरहाल, क्या किसी को अंदाज़ा है कि विकास और रोज़गार के नाम पर कितने भारतीयों को विस्थापित होना पड़ा है? इस देश में कारखानों, बड़े बांधों, सड़कों, पुलों, हवाई अड्डों, बिजलीघरों, बंदरगाहों आदि-आदि के लिए कम से कम पच्चीस करोड़ लोगों को अपने घरों और अपनी ज़मीन से उजाड़ा गया।
नर्मदा पर लिखी अपनी किताब 'द ग्रेटर कॉमन गुड' में अरुंधति राय ने इस आँकड़े पर बात की है। ये सब लोग विकास के नाम पर ही उजाड़े नहीं गए, इनमें से बहुत सारे मॉल और मल्टीप्लेक्स बनाने के लिए भी अपनी ज़मीन से बेदखल किए गए।
इसके अलावा एक बहुत बड़ी आबादी रोटी और रोज़गार की तलाश में अपने गांवों और कस्बों से निकलकर शहरों और महानगरों में उनके सबसे ज़रूरी काम निपटा रही है।
लेकिन इन पच्चीस करोड़ लोगों को भुला कर, उनकी पीड़ा और बेचारगी से आंख मूंद कर अगर लोग बस एक समुदाय की तकलीफ़ पर आंसू बहाते हैं तो यह संदेह गैरवाजिब नहीं है कि वे संवेदना नहीं दिखा रहे, सियासत कर रहे हैं। इस सियासत का भी नतीजा है कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों की संख्या एक लाख से कम से शुरू कर छह लाख तक पहुंचा दी जाती है। इस सियासत से शिकायत बस इतनी है कि इसका फायदा सबसे कम कश्मीरी पंडितों को मिला। उनके विस्थापन का फायदा सबसे ज़्यादा बीजेपी ने उठाया। कश्मीरी पंडितों के नाम पर ध्रुवीकरण से बिहार-यूपी में वोट जुटाए जाते रहे। पंडितों से बार-बार घर वापसी का वादा किया जाता रहा, लेकिन वे हालात कभी नहीं बनाए गए जिनमें यह संभव हो सके।
अब भी जो माहौल बनाया जा रहा है, उससे बीजेपी का भले भला हो जाए, कश्मीरी पंडितों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आने वाला है।
'कश्मीर फाइल्स' अब बस फिल्म नहीं रह गई है। वह बीजेपी और संघ परिवार के प्रचार का औज़ार हो गई है। प्रधानमंत्री उसकी तारीफ़ कर रहे हैं। बीजेपी सरकारें उसे टैक्स फ्री कर रही हैं। असम सरकार ने फिल्म देखने के लिए बाक़ायदा एक दिन की छुट्टी कर दी। अब हालत यह है कि अगर आप इस फिल्म की आलोचना करें तो आप बस एक फिल्म पर अपनी राय नहीं दे रहे, आप कश्मीरी पंडितों का विरोध कर रहे हैं, आप आतंकवाद का समर्थन कर रहे हैं और अंततः देशद्रोही हैं।
यानी कश्मीर फाइल्स लोगों की गद्दारी तय करने की नई कसौटी है- नोटबंदी और टीकाकरण के विरोध की ही तरह या अस्पतालों की बदहाली और ऑक्सीजन की कमी की शिकायत करने की तरह।
लेकिन इससे फिल्मकारों का भला होगा, बीजेपी का भी होगा, कश्मीरी पंडितों का नहीं होगा। उनकी घर वापसी और मुश्किल होती जाएगी। सरकार घर बना देगी, बस्ती बना देगी, लेकिन घर का तापमान रहने लायक कैसे बनाएगी? क्या कश्मीरी पंडित उसी तरह संगीनों के साये में रहेंगे जैसे बाक़ी कश्मीर रह रहा है?
ये असुविधाजनक सवाल हैं। लेकिन क्या इसमें कोई संदेह है कि बाक़ी भारत में पिछले कुछ वर्षों में कश्मीर को किसी सौतेले की तरह चिढ़ाया गया है? अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद कश्मीर में घर खरीदने, कश्मीरी लड़कियों से शादी करने और डल झील में छठ मनाने जैसी बातें कुछ इस तरह की गईं जैसे कश्मीर कोई परायी जगह है जिसे जीत लिया गया है।
कश्मीरी आतंकवाद ने बहुत ज़ख़्म दिए हैं। लेकिन कश्मीर के लोगों ने उतने ही ज़ख़्म झेले भी हैं। इस समस्या का समाधान बहुत संवेदनशीलता के साथ खोजने की ज़रूरत है। लेकिन क्या किसी की इसमें दिलचस्पी है भी? कश्मीर फाइल्स को लेकर जुनून पैदा करने वाले कम से कम यह भरोसा नहीं दिलाते।
रहा विस्थापन का सवाल, तो वाक़ई अगर विस्थापितों की पीड़ा आपको आहत करती है तो उस विशाल हिंदुस्तान के बारे में भी सोचिए जिसे बेदखल करके आपने अपना उपनिवेश बना रखा है। कश्मीरी पंडितों को तो फिर भी कुछ मुआवजा मिला, इन लोगों को पूछने वाला कोई नहीं है। ये लोग एक नहीं कई कई बार उजाड़े गए हैं। लेकिन आपकी दिलचस्पी किसी के विस्थापन और किसी की बसाहट में नहीं है, बस अपनी राजनीति में है और इसीलिए एक फिल्म के नाम पर ज़ख़्मों को कुरेदने का ऐसा खेल कर रहे हैं जिसमें हर किसी को हारना है- कश्मीर को भी, कश्मीरी पंडितों को भी और अंततः इस देश को भी।
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