इन दिनों बस फ़िल्म 'कश्मीर फाइल्स' की चर्चा है। निश्चय ही नब्बे के दशक में कश्मीरी पंडितों को जो कुछ झेलना पड़ा, वह त्रासदी से कम नहीं था। हालाँकि ऐसी त्रासदियाँ अपनी पूरी क़ीमत वसूल करती हैं।‌ इस त्रासदी ने भी की। कश्मीरी आतंकवाद की उचित निंदा के क्रम में वह दूसरी त्रासदी भुला दी गई जो घाटी के मुसलमानों के साथ अरसे तक घटती रही। वे सब आतंकवादी नहीं थे, सदियों से कश्मीरी पंडितों के साथ रह रहे थे। आतंकवाद की मार उन्हें भी झेलनी पड़ी। उनके घरों के पिछवाड़े क़ब्रों से भर गए। वे भी अपने बच्चों की लाशें खोजते रहे। कश्मीर पर संजय काक की बनाई तीन घंटे से ऊपर की डॉक्यूमेंट्री 'जश्ने आज़ादी' देखते हुए समझ में आता है कि इस त्रासदी ने एक पूरी आबादी पर कैसे दोहरी मार की है।