इन दिनों बस फ़िल्म 'कश्मीर फाइल्स' की चर्चा है। निश्चय ही नब्बे के दशक में कश्मीरी पंडितों को जो कुछ झेलना पड़ा, वह त्रासदी से कम नहीं था। हालाँकि ऐसी त्रासदियाँ अपनी पूरी क़ीमत वसूल करती हैं। इस त्रासदी ने भी की। कश्मीरी आतंकवाद की उचित निंदा के क्रम में वह दूसरी त्रासदी भुला दी गई जो घाटी के मुसलमानों के साथ अरसे तक घटती रही। वे सब आतंकवादी नहीं थे, सदियों से कश्मीरी पंडितों के साथ रह रहे थे। आतंकवाद की मार उन्हें भी झेलनी पड़ी। उनके घरों के पिछवाड़े क़ब्रों से भर गए। वे भी अपने बच्चों की लाशें खोजते रहे। कश्मीर पर संजय काक की बनाई तीन घंटे से ऊपर की डॉक्यूमेंट्री 'जश्ने आज़ादी' देखते हुए समझ में आता है कि इस त्रासदी ने एक पूरी आबादी पर कैसे दोहरी मार की है।
क्या आपको वाक़ई कश्मीरी पंडितों की चिंता है?
- विचार
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- 25 Mar, 2022

कश्मीरी आतंकवाद ने बहुत ज़ख़्म दिए हैं। लेकिन कश्मीर के लोगों ने उतने ही ज़ख़्म झेले भी हैं। इस समस्या का समाधान बहुत संवेदनशीलता के साथ खोजने की ज़रूरत है। लेकिन क्या किसी की इसमें दिलचस्पी है भी? कश्मीर फाइल्स को लेकर जुनून पैदा करने वाले कम से कम यह भरोसा नहीं दिलाते।
लेकिन कश्मीरी पंडित विस्थापित हों या कश्मीरी मुसलमान मारे जाएँ, बाक़ी भारत के लिए वह बस राजनीति का मसला है। विस्थापन बहुत तकलीफ़देह चीज़ है- हमें इसको लेकर संवेदनशील होना चाहिए। अपना घर-बार छोड़कर भटकते और अपनी पीड़ा साझा करते कश्मीरी पंडितों को हम सबने देखा है। इस विराट त्रासदी के आगे भी कश्मीरी पंडितों की मनुष्यता बची रही- इसमें भी संदेह नहीं।